गुरु तो दर्पण है। गुरु के दर्पण के समक्ष
तो शिष्य को समग्र—रूप से नग्न
हो जाना है। उसे तो अपने हृदय को पूरा उघाड़ कर रख देना है, तो ही क्रांति घट सकती है।
पुरानी कथा है जैन शास्त्रों में, मिथिला के महाराजा नेमी के संबंध में।
उन्होंने कभी शास्त्र नहीं पढ़े। उन्होंने कभी अध्यात्म में रुचि नहीं ली। वह उनका
लगाव ही न था। उनकी चाहत ने वह दिशा कभी नहीं पकड़ी थी। बूढ़े हो गए थे, तब बड़े जोर का दाह्य—ज्वर उन्हें पकड़ा। भयंकर ज्वर की पीड़ा में
पड़े हैं। उनकी रानियां उनके शरीर को शीतल करने के लिए चंदन और केसर का लेप करने
लगीं। रानियों के हाथ में सोने की चूड़ियां थीं, चूड़ियों पर हीरे—जवाहरात लगे
थे; लेकिन लेप करते समय
उनकी चूड़ियां खड़खड़ाती और बजती। सम्राट नेमी को वह खड़खड़ाहट की आवाज, वह चूड़ियों का बजना बड़ा अरुचिकर मालूम
हुआ। और उन्होंने कहा, हटाओ ये
चूड़ियां, इन चूड़ियों को
बंद करो! ये मेरे कानों में बड़ी कर्ण कटु मालूम
होती हैं।
तो सिर्फ मंगलसूत्र के खयाल से एक एक चूड़ी बचा कर, बाकी चूड़ियां रानियों ने निकाल कर रख दीं।
आवाज बंद हो गई। लेप चलता रहा। नेमी भीतर एक महाक्रांति को उपलब्ध हो गए। यह देख
कर कि दस चूड़ियां थीं हाथ में तो बजती थीं;
एक बची तो बजती नहीं। अनेक हैं तो शोरगुल है। एक है तो शांति है। कभी शास्त्र
नहीं पढ़ा, कभी अध्यात्म
में कोई रस नहीं रहा। उठ कर बैठ गए। कहा,
मुझे जाने दो। यह दाह्य—ज्वर नहीं है, यह मेरे जीवन में क्रांति का संदेश ले कर
आ गया। यह प्रभु—अनुकंपा है।
रानियां पकड़ने लगीं। उन्होंने समझा कि
शायद ज्वर की तीव्रता में विक्षिप्तता तो नहीं हो गई! उनका भोगी—रूप ही जाना था। योग की तो उन्होंने कभी
बात ही न की थी, योगी को तो वे
पास न फटकने देते थे। भोग ही भोग था उनके जीवन में। कहीं ऐसा तो नहीं कि सन्निपात हो
गया है! वे तो घबड़ा गईं, वे तो रोकने
लगीं।
सम्राट ने कहा, घबड़ाओ मत। न कोई यह सन्निपात है। सन्निपात
तो था, वह गया। तुम्हारी
चूइड़यों की बड़ी कृपा! कैसी जगह से परमात्मा ने सूरज निकाल दिया, कहा नहीं जा सकता! चूइड़यां बजती थीं
तुम्हारी, बहुत तुमने
पहन रखीं थीं। एक बची, शोरगुल बंद
हुआ—उससे एक बोध हुआ कि जब
तक मन में बहुत आकांक्षाएं हैं तब तक शोरगुल है। जब एक ही बचे आकांक्षा, एक ही अभीप्सा बचे, या एक की ही अभीप्सा बचे—और ध्यान रखना एक की ही अभीप्सा एक हो
सकती है। संसार की अभीप्सा तो एक हो ही नहीं सकती—संसार अनेक है। तो वहां अनेक वासनाएं होंगी। एक की अभीप्सा
ही एक हो सकती है।
नेमी तो उठ गए, ज्वर तो गया। वे तो चल पड़े जंगल की तरफ। न
शास्त्र पढ़ा, न शास्त्र
जानते थे। लेकिन, शास्त्र पढ़ने
से कब किसने जाना! जीवन के शास्त्र के प्रति जागरूकता चाहिए तो कहीं से भी इशारा
मिल जाता है। अब चूड़ियों से कुछ लेना—देना है?
तुमने कभी सुना, चूड़ियों और संन्यास का कोई संबंध? जुड़ता ही नहीं। लेकिन बोध के किसी क्षण
में, जागरूकता के किसी क्षण
में, मौन के किसी क्षण में, कोई भी घटना जगाने वाली हो सकती है। तुम
सो रहे हो, घड़ी का अलार्म
जगा देता है, पक्षियों की
चहचहाहट जगा देती है, कौओं की कांव—कांव जगा देती है, दूध वाले की आवाज जगा देती है, राह से निकलती हुई ट्रक का शोरगुल जगा
देता है, ट्रेन जगा
देती है, हवाई—जहाज जगा देता है; कुत्ता भौंकने लगे पड़ोसी का, वह जगा देता है।
ठीक ऐसे ही हम सोए हैं। इसमें जागरण की
घटना घट सकती है, लेकिन जागरण
की घटना केवल शब्दों से नहीं घटती। वास्तविक ध्वनि...। शास्त्र तो ऐसे हैं जैसे
रिकार्ड में ध्वनियां बंद हैं। तुम रिकार्ड रखे अपने बिस्तर के पास सोए रहो, इससे कुछ भी न होगा। तुम अपनी स्मृति में
कितने ही शास्त्रों के रिकार्ड भर लो,
इससे कुछ न होगा।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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