एक विश्वविद्यालय में विधीशास्त्र के एक
अध्यापक अपने जीवनभर वर्ष के पहले दिन की पढ़ाई तखते पर ‘चार’ और ‘दो’ के अंक लिखकर
प्रारंभ करते थे। वे दोनों अंकों को लिखकर विद्यार्थियों से पूछते थे : ‘क्या हल है?'
निश्चय ही कोई विद्यार्थी शीघ्रता से कहता
: ‘छः!’
और फिर कोई दूसरा कहता : ‘दो!’
लेकिन अध्यापक को चुप सिर हिलाते देखकर
अंततः अंतिम संभावना को सोचकर अधिकतम विद्यार्थी चिल्लाते ‘आठ’। लेकिन
अध्यापक तब भी अपना अस्वीकार सूचक सिर हिलाते ही जाते थे!
और तब सन्नाटा छा जाता था क्योंकि और कोई
उत्तर तो हो ही नहीं सकता था!
फिर वे अध्यापक हंसते थे और कहते थे : ‘मित्रो, आप सभी ने
अत्यंत आधारभूत प्रश्न ही नहीं पूछा तो हल कैसे संभव हो सकता है? आपने यही नहीं जानना चाहा कि वस्तुतः समस्या क्या है? और जो समस्या को सम्यक रूप से जाने बिना ही समाधान जानने
मैं लग जाता है, निश्चय ही वह समाधान तो पाता ही नहीं है
और उल्टे समस्या को और उलझा लेता है।’
क्या यह बात सत्य नहीं है कि समस्या को
जाने बिना ही समाधान खोज और पकड़ लिए जाते हैं; जबकि समाधान
नहीं, महत्वपूर्ण सदा समस्या ही है। क्योंकि अंततः तो समस्या को
उसकी समग्रता में जान लेना ही समाधान बनता है।
और गणित में एसी भूल हो तो हो लेकिन क्या
जीवन में भी ऐसा ही नहीं होता है?
क्या वास्तविक समस्या को जाने बिना ही जब
हम समाधान के लिए श्रम करने लगते हैं तो सारा श्रम व्यर्थ ही नहीं, आत्मघाती भी सिद्ध नहीं होता है?
मित्र, समस्या को ही
जो सही रूप में नहीं जानता है, वह यदि किसी
अन्य ही प्रश्न को प्रश्न जानकर हल करता हो तो भी आश्चर्य नहीं है।
क्या आपको उस जहाज़ के बाबत कुछ भी पता
नहीं है, जो कि डूब रहा था; और कुछ लोग उसे डूबने से बचाने के लिए उस पर पालिश कर रहे
थे। मैं तो सोचता हूँ कि आपको उस जहाज़ के संबंध में ज़रूर ही पता होगा, क्योंकि मैं तो आपको भी उस पर ही सवार देखता हूँ; और न केवल सवार ही देखता हूँ बल्कि यह भी देखता हूँ कि जहाज़
डूब रहा है और आप उसे बचाने के लिए उस पर पालिश करने में लगे हैं!
मित्र, वह जहाज़ जीवन
का ही जहाज़ तो है।
फूल और कांटे (अप्रकाशित)
ओशो
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