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Tuesday, January 31, 2017

समर्पण



डायोजनीज गुजरता है एक जंगल से। नंगा फकीर, अलमस्त आदमी है। कुछ लोग जा रहे हैं गुलामों को बेचने बाजार। उन्होंने देखा इस डायोजनीज को। सोचा कि यह आदमी पकड़ में आ जाए तो दाम अच्छे मिल सकते हैं। और ऐसा गुलाम कभी बाजार में बिका भी नहीं है। बड़ा शानदार है! ठीक महावीर जैसा शरीर अगर किसी आदमी के पास था दूसरे फकीरों में, तो वह डायोजनीज के पास था। मैं तो यह निरंतर कहता ही हूं कि महावीर नग्न इसलिए खड़े हो सके कि वे इतने सुंदर थे कि ढांकने योग्य कुछ था नहीं। बहुत सुंदर व्यक्तित्व था। वैसा डायोजनीज का भी व्यक्तित्व था। गुलामों ने लेकिन सोचा कि हम हैं तो आठ, लेकिन इसको पकड़ेंगे कैसे! यह हम आठ की भी मिट्टी कर दे सकता है। यह अकेला काफी है। मगर फिर भी उन्होंने सोचा कि हिम्मत बांधो। और ध्यान रहे, जो दूसरे को दबाने जाता है वह हमेशा भीतर अपने को कमजोर समझता ही है। वह सदा भयभीत होता है। ध्यान रखें, जो दूसरे को भयभीत करता है, वह भीतर भयभीत होता ही है। सिर्फ वे ही दूसरे को भयभीत करने से बच सकते हैं, जो अभय हैं। अन्यथा कोई उपाय नहीं। असल में वह दूसरे को भयभीत ही इसलिए करता है कि कहीं यह हमें भयभीत न कर दे। मेक्याबेली ने लिखा है, इसके पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम आक्रमण कर देना; यही सुरक्षा का श्रेष्ठतम उपाय है। तो डरा हुआ आदमी।


वे आठों डर गए। बड़ी गोष्ठी करके, बड़ा पक्का निर्णय करके, चर्चा करके वे आठों एकदम से हमला करते हैं डायोजनीज पर। लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। अगर डायोजनीज उनके हमले का जवाब देता तो वह मुश्किल में न पड़ते। क्योंकि उनकी योजना में इसकी चर्चा हो गई थी। डायोजनीज उनके बीच में आंख बंद करके हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और कहता है, क्या इरादे हैं? क्या खेल खेलने का इरादा है? वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं कि अब इससे क्या कहें! उन्होंने कहा कि माफ करें, हम आपको गुलाम बनाना चाहते हैं। डायोजनीज ने कहा, इतने जोर से कूदने-फांदने की क्या जरूरत है! नासमझो, निवेदन कर देते, हम राजी हो जाते। इसमें इतना उछल-कूद, इतना छिपना-छिपाना यह सब क्या कर रहे हो? बंद करो यह सब। कहां हैं तुम्हारी जंजीरें? वे तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि ऐसा आदमी कभी नहीं देखा था जो कहे--कहां हैं तुम्हारी जंजीरें? और इतने डांटकर वह पूछता है जैसे मालिक वह है और गुलाम ये हैं। जंजीरें उन्होंने निकालीं। डरते हुए दे दीं। उसने हाथ बढ़ा दिए और कहा कि बंद करो। और वे कहने लगे, आप यह क्या कर रहे हैं, हम आपको गुलाम बनाने आए थे, आप बने जा रहे हैं। डायोजनीज ने कहा कि हम यह राज समझ गए हैं कि इस जगत में स्वतंत्र होने का एक ही उपाय है और वह यह कि गुलामी के लिए भी दिल से राजी हो जाए। अब हमें कोई गुलाम बना नहीं सकता है। अब उपाय ही न रहा तुम्हारे पास। अब तुम कुछ न कर सकोगे।

फिर वे डरे हुए उसको बांधकर चलने लगे, तो डायोजनीज ने कहा कि नाहक तुम्हें यह जंजीरों का बोझ ढोना पड़ रहा है। क्योंकि उन जंजीरों को उन्हें पकड़कर उन्हें रखना पड़ रहा है। डायोजनीज ने कहा उतारकर फेंक दो। मैं तो तुम्हारे साथ चल ही रहा हूं। एक ही बात का खयाल रखें कि तुम समय के पहले मत भाग जाना, मैं भागने वाला नहीं हूं। तो उन्होंने जंजीरें उतारकर रख दीं, क्योंकि आदमी तो ऐसा ही मालूम हो रहा था। जिसने अपने हाथ में जंजीरें पहनवा दीं, उसको अब और जंजीर बांधकर ले जाने का क्या मतलब था? फिर जहां से भी वे निकलते हैं तो डायोजनीज शान से चल रहा है और जिन्होंने गुलाम बनाया है, वे बड़े डरे हुए चल रहे हैं कि पता नहीं, कोई उपद्रव न कर दे यह किसी जगह पर, कोई सड़क पर, किसी गांव में। और जगह-जगह जो भी देखता है वह डायोजनीज को देखता है और डायोजनीज कहता है, क्या देख रहे हो? ये मेरे गुलाम हैं। ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते। वह जगह-जगह यह कहता फिरता है कि ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते, ये मुझसे बंधे हैं। और वे बेचारे बड़े हतप्रभ हुए जा रहे हैं। किसी तरह वह बाजार आ जाए!


वह बाजार आ गया। उन्होंने जाकर किसी से गुफ्तगू की, जो बेचने वाला था, उससे बातचीत की। कहा कि जल्दी नीलाम पर इस आदमी को चढ़ा दो, क्योंकि इसकी वजह से हम बड़ी मुसीबत में पड़े हुए हैं। और भीड़ लग जाती है और लोगों से यह कहता है कि ये मेरे गुलाम हैं, अच्छा, ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते। अगर हों मालिक, भाग जाएं। तो इसको छोड़कर कहां भागें हम, कीमती आदमी है और पैसा अच्छा मिल जाएगा। तो उसे टिकटी पर खड़ा किया जाता है और नीलाम करने वाला जोर से चिल्लाता है कि एक बहुत शानदार गुलाम बिकने आया है, कोई खरीदार है? तो डायोजनीज जोर से चिल्लाकर कहता है कि चुप, नासमझ! अगर तुझे आवाज लगाना नहीं आता है तो आवाज हम लगा देंगे। वह घबड़ा जाता है, क्योंकि किसी गुलाम ने कभी उस नीलाम करने वाले को इस तरह नहीं डांटा था। और डायोजनीज चिल्लाकर कहता है कि आज एक मालिक इस बाजार में बिकने आया है, किसी को खरीदना हो तो खरीद ले।


जिस "इन्स्ट्रूमेंटालिटी' में, जिस यांत्रिकता में हम यंत्र बनाए जाते हैं, जहां हमारी मजबूरी है, जहां हम गुलाम की तरह हैं, वहां तो व्यक्तित्व मरता है। लेकिन कृष्ण अर्जुन से यह नहीं कह रहे हैं कि तू यंत्रवत बन जा। कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तू समझ। इस जगत की धारा में तू व्यर्थ ही लड़ मत। इस धारा को समझ, इसमें आड़े मत पड़, इसमें बह। और तब तू पूरा खिल जाएगा। अगर कोई आदमी अपने ही हाथ से समर्पित हो गया है इस जगत के प्रति, सत्य के प्रति, इस विश्वयात्रा के प्रति, तो वह यंत्रवत नहीं है, वही आत्मवान है। क्योंकि समर्पण से बड़ी और कोई घोषणा अपी मालकियत की इस जगत में नहीं है।

कृष्ण स्मृति 

ओशो 

एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु



तंत्र में एक बहुत पुरानी प्रक्रिया है। और वह प्रक्रिया यह है कि तुम जब तक सपने में यह न जान लो कि यह झूठा है, तब तक तुम संसार को झूठा न जान सकोगे।

यह उलटा हुआ। अभी तुमने संसार को सच माना है, इसलिए सपना तक सच मालूम होता है। तंत्र कहता है, सपने में जब तक तुम न जान लो कि सपना झूठा है, तब तक तुम संसार को माया न समझ सकोगे। और बड़ी सूक्ष्म विधियां तंत्र ने विकसित की हैं--सपने में कैसे जानना?

तुम थोड़े प्रयोग करना। कुछ भी एक बात तय कर लो। रात सोते समय उसको तय किए जाओ। यह तय कर लो कि जब भी मुझे सपना आएगा, तभी मैं अपना बायां हाथ जोर से ऊपर उठा दूंगा। या अपनी हथेली को अपनी आंख के सामने ले आऊंगा--सपने में। इसको रोज याद करते हुए सोओ। इसकी गूंज तुम्हारे भीतर बनी रहे। कोई तीन महीने लगेंगे। अगर तुम इसको रोज दोहराते रहे, तो तीन महीने के भीतर, या तीन महीने के करीब, एक दिन अचानक तुम सपने में पाओगे, वह याददाश्त इतनी गहरी हो गयी है, अचेतन में उतर गयी कि जैसे ही सपना शुरू होता है, तुम्हारी हथेली सामने आ जाती है। और जैसे ही तुम्हारी हथेली सामने आयी, तुम्हें समझ में आ जाएगा, यह सपना है। क्योंकि वे दोनों संयुक्त हैं। सपने में हथेली सामने आ जाए।


तंत्र में एक प्रक्रिया है कि सपने में तुम जो भी देखो--अगर तुम एक रास्ते से गुजर रहे हो, बाजार भरा है, दूकानें लगी हैं--तो तुम किसी भी एक चीज को ध्यान से देखो, दूकान को ध्यान से देखो। और तुम हैरान होगे कि जैसे ही तुम ध्यान देते हो, दूकान खो जाती है। क्योंकि है तो है नहीं; सपना है। फिर तुम और चीजें ध्यान से देखो। रास्ते से लोग गुजर रहे हैं। जो भी दिखायी पड़े, उसको गौर से देखते रहो, एकटक। तुम पाओगे, वह खो गया। अगर तुम सपने को पूरा गौर से देख लो, तुम पाओगे, पूरा सपना खो गया। जैसे ही सपना खोता है, नींद में भी ध्यान लग गया। समाधि आ गयी।


सपने से शुरू करे कोई जागना, तो यह सारा संसार सपना मालूम होगा। यह खुली आंख का सपना है। लेकिन हमारी आदत गहन है। दृश्य में हम खो जाते हैं। और जब दृश्य में खो जाते हैं, तो द्रष्टा विस्मरण हो जाता है। हमारी चेतना का तीर एकतरफा है।


गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि जिस दिन तुम्हारी चेतना का तीर दुतरफा हो जाएगा, तीर में दोनों तरफ फल लग जाएंगे, उसी दिन तुम सिद्ध हो जाओगे। तो सारी चेष्टा गुरजिएफ करवाता था कि जब तुम किसी को देखो, तब उसको भी देखो और अपने को भी देखने की कोशिश जारी रखो कि मैं देख रहा हूं। मैं द्रष्टा हूं। तो तुम तीर में एक नया फल पैदा कर रहे हो, तीर तुम्हारी तरफ भी और दूसरे की तरफ भी।


मुझे तुम सुन रहे हो, सुनते वक्त तुम मुझ में खो जाओगे। तुम सुनने वाले को भूल ही जाओगे। तुम सुनने वाले को भूल गए, तो भूल हो गयी। सुनते समय सुनने वाला भी याद रहे। तो मैं यहां बोल रहा हूं, तुम वहां सुन रहे हो, और तुम यह भी साथ जान रहे हो कि मैं सुन रहा हूं। तब तुम सुनने वाले से पार हो गए। एक ट्रांसनडेन्स, एक अतिक्रमण हो गया, साक्षी का जन्म हुआ।


और जैसे ही साक्षी पैदा होता है, वैसे ही मनुष्य अनेक से तीन में आ गया। त्रिवेणी आ गयी। त्रिवेणी के बाद एक तक पहुंचना बहुत आसान है। क्योंकि एक कदम और! और जैसे-जैसे त्रिवेणी सघन होती जाती है, वैसे-वैसे एक ही रह जाता है। क्योंकि त्रिवेणी, तीनों नदियां एक में खो जाती हैं।

हम प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं। और तीर्थराज इसीलिए कहते हैं कि वह त्रिवेणी है। और त्रिवेणी भी बड़ी अदभुत है। उसमें दो तो दिखायी पड़ती हैं और एक दिखायी नहीं पड़ती। सरस्वती दिखायी नहीं पड़ती। वह अदृश्य है। गंगा और यमुना दिखायी पड़ती हैं।


तुम जब भी किसी चीज पर ध्यान दोगे, तो ध्यान देने वाला और जिस पर तुमने ध्यान दिया-- सब्जेक्ट और आब्जेक्ट--दो तो दिखायी पड़ने लगेंगे। उन दोनों के बीच का जो संबंध है, वह सरस्वती है, वह दिखायी नहीं पड़ता। लेकिन तीनों वहां मिल रहे हैं। दो दृश्य नदियां, और एक अदृश्य नदी। और जब तीनों मिल जाते हैं, एक अपने आप घटित हो जाता है।

नानक कहते हैं, एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।

एक मां से, एक माया से, तीन प्रामाणिक चेलों का जन्म हुआ। उसमें एक संसारी ब्रह्मा है, एक भंडारी विष्णु है, एक दीवान प्रलयंकर महेश है।

इक ओंकार सतनाम

ओशो

Monday, January 30, 2017

रजनीश महाराज को कैसे नमस्कार करें, जब तक कि भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए!



कल आपने कहा कि उत्तर गीता से मिला हो तो कृष्ण महाराज को नमस्कार करना। माना कि कृष्ण से मिलना संभव नहीं, कोई याददाश्त भी नहीं, लेकिन कृपया बताएं कि रजनीश महाराज को कैसे नमस्कार करें, जब तक कि भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए!

जब तक भीतर का रजनीश उभरकर न आए तब तक नमन करो; जब उभरकर आ जाए तब नमस्कार कर लेना। नमन और नमस्कार में कोई बहुत फासला थोड़े ही है! नमन जरा लंबा कर दिया साष्टांग, तो नमस्कार!

कृष्ण महाराज को नमस्कार करने को कहा क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे भीतर का कृष्ण तुम्हारे बाहर की कृष्ण की धारणा में दबा रह जाए। कहीं ऐसा न हो कि शास्त्र तुम्हारे सत्य को उभरने न दे। कहीं ऐसा न हो कि उधार ज्ञान तुम्हारी मौलिक प्रतिभा को प्रगट न होने दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम सूचनाओं को ही ज्ञान समझते हुए जीयो और मर जाओ; और तुम्हें अपनी कोई जीवंत अनुभूति न हो।


मेरी बात तुम सुन रहे हो। अगर मेरी बात को संगृहीत करने लगे तो खतरा है। सुनो मेरी, गुनो अपनी। समझो, संग्रह मत करो। याददाश्त भरने से कुछ भी न होगा। स्मृति के पात्र में तुमने, जो-जो मैंने तुमसे कहा, इकट्ठा भी कर लिया तो दो कौड़ी का है। उससे कुछ लाभ नहीं। तुम्हारा बोध जगे। जो मैं कह रहा हूं उसे समझो, उससे जागो। कोई परीक्षा थोड़ी ही देनी है कहीं कि तुमने जो मुझसे सुना, वह याद रहा कि नहीं रहा।


एक मित्र एक दिन आए, वे कहने लगे, बड़ी मुश्किल है। रोज आपको सुनता हूं लेकिन घर जाते-जाते भूल जाता हूं। तो अगर मैं नोट लेने लगूं तो कोई हर्ज तो नहीं? तो नोट लेकर भी क्या करोगे? अगर नोट लिया तो नोट-बुक का मोक्ष हो जाएगा, तुम्हारा कैसे होगा? तो याद तो नोट-बुक को रहेगा। तुमको तो रहेगा नहीं।


और याद रखने की जरूरत क्या है? मैंने उनसे पूछा, याद रखकर करोगे क्या? समझ लो, बात हो गई। सार-सार रह जाएगा। फूल तो विदा हो जाएंगे, सुगंध रह जाएगी। पहचानना भी मुश्किल होगा, किस फूल से मिली थी। लेकिन उस सुगंध के साथ-साथ तुम्हारे भीतर की सुगंध भी उठ आएगी। उस सुगंध का हाथ पकड़कर तुम्हारी सुगंध भी लहराने लगेगी।


तो एक दिन तो गुरु को नमस्कार करना ही है। नमन से शुरू करना, नमस्कार से विदा देनी। इसे याद रखना। इसे भूलना मत। कृष्ण से उतना खतरा नहीं है, जितना तुम्हारे लिए मुझसे खतरा है। क्योंकि कृष्ण से तुम्हारा कोई लगाव ही नहीं। जिनका लगाव है, वे तो मेरे पास आते भी नहीं। तो कृष्ण को तो तुम बड़े मजे से नमस्कार कर सकते हो। असली कठिनाई तो मुझे नमस्कार करने में आएगी।


लेकिन नमस्कार करने के पहले नमन का अभ्यास करना होगा। नमन ही लंबा होकर नमस्कार बनता है। झुको! तुम अगर झुके तो तुम्हारे भीतर कोई जगेगा। तुम अगर अकड़े रहे तो तुम्हारे भीतर कोई झुका रहेगा। तुम झुको तो तुम्हारे भीतर कोई खड़ा हो जाएगा।


बाहर का गुरु तो केवल थोड़ी देर का साथ है ताकि भीतर का गुरु जग जाए। और जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाता है, उस दिन तुम जल्दी न करोगे हाथ छुड़ाने की।



किस-किस उन्वां से भुलाना उसे चाहा था रविश
किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया


भुलाने की जल्दी भी मत करो। जागने की फिक्र करो। भुलाने पर जोर मत दो, जागने पर जोर दो। इधर तुम जागे, कि एक अर्थ में तुम भूल जाओगे गुरु को और एक गहरे अर्थ में पहली दफे तुम उसे पाओगे। अपने ही भीतर विराजमान पाओगे। तुम्हारे ही सिंहासन पर विराजमान पाओगे। तुम्हारी ही आत्मा जैसा विराजमान पाओगे।


अचानक तुम पाओगे, गुरु और शिष्य दो नहीं थे।

मैं तुम्हारी ही संभावना हूं। जो तुम हो सकते हो, उसकी ही खबर हूं। लेकिन छुड़ाने की कोई जल्दी नहीं है। जल्दी छुड़ाने में तो तुम अटके रह जाओगे। लाभ भी न होगा। छूटना तो हो ही जाएगा। सीख लो। जाग लो। तुम हो जाओ।

जिन सूत्र 

ओशो

ऐसा लगता है कि अब थोड़ी-सी आयु ही बची है...



.... न जाने कौन कब इस शरीर को समाप्त कर दे! इससे मन में एक उतावलापन रहता है कि जो करना है, शीघ्रता से करूं; अन्यथा बिना कुछ पाए ही चला जाना होगा। भय या अड़चन बिलकुल नहीं लगती। हर क्षण जाने को तैयार हूं। दुबारा आने से भी डर नहीं लगता। परंतु एक भय, एक अड़चन अवश्य सताती है कि उस समय आप गुरु भगवान तो नहीं उपलब्ध होंगे। क्या मेरा उतावलापन उचित है? मैं क्या कर सकता हूं? हर प्रकार से तैयार ही होकर आया हूं।




ओशो :  नारद स्वर्ग जा रहे हैं। और एक वृक्ष के नीचे उन्होंने एक बूढ़े संन्यासी को बैठे देखा, तप में लीन माला जप रहा है। जटा-जूटधारी! अग्नि को जला रखा है। धूप घनी, दुपहर तेज, वह और आग में तप रहा है। पसीने से लथपथ। नारद को देखकर उसने कहा कि सुनो, जाते हो प्रभु की तरफ, पूछ लेना, जरा पक्का करके आना, मेरी मुक्ति कब तक होगी? तीन जन्मों से कोशिश कर रहा हूं। आखिर हर चीज की हद्द होती है।


चेष्टा करनेवाले का मन ऐसा ही होता है, व्यवसायी का होता है। नारद ने कहा जरूर पूछ आऊंगा। उसके ही दो कदम आगे चलकर दूसरे वृक्ष के नीचे, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे एक युवा संन्यासी नाच रहा था। रहा होगा कोई प्राचीन बाउल: एकतारा लिए, डुगडुगी बांधे। थाप दे रहा डुगडुगी पर, एकतारा बजा रहा, नाच रहा। युवा है। अभी बिलकुल ताजा और नया है। अभी तो दिन भी संन्यास के न थे।


नारद ने कहा--मजाक में ही कहा--कि तुम्हें भी तो नहीं पूछना है कि कितनी देर लगेगी? वह कुछ बोला ही नहीं। वह अपने नाच में लीन था। उसने नारद को देखा ही नहीं। उस घड़ी तो नारायण भी खड़े होते तो वह न देखता। फुर्सत किसे? नारद चले गए। दूसरे दिन जब वापस लौटे तो उन्होंने उस बूढ़े को कहा कि मैंने पूछा, उन्होंने कहा कि तीन जन्म और लग जाएंगे। बूढ़ा बड़ा नाराज हो गया। उसने माला आग में फेंक दी। उसने कहा, भाड़ में जाए यह सब! तीन जन्म से तड़फ रहा हूं, अब तीन जन्म और लगेंगे? यह क्या अंधेर है? अन्याय हो रहा है।


नारद तो चौंके। थोड़े डरे भी। उस युवक के पास जाकर कहा कि भई! नाराज मत हो जाना--वह नाच रहा है--मैंने पूछा था। अब तो मैं कहने में भी डरता हूं। क्योंकि उन्होंने कहा है कि वह युवक, वह जिस वृक्ष के नीचे नाच रहा है, उस वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे लग जाएंगे।


ऐसा सुना था उस युवक ने, कि वह एकदम पागल हो गया मस्ती में और दीवाना होकर थिरकने लगा। नारद ने कहा, समझे कि नहीं समझे? मतलब समझे कि नहीं? जितने इस वृक्ष में पत्ते हैं इतने जन्म! उसने कहा, जीत लिया, पा लिया, हो ही गई बात। जमीन पर कितने पत्ते हैं! सिर्फ इतने ही पत्ते? खतम! पहुंच गए!


कहते हैं वह उसी क्षण मुक्त हो गया। ऐसा धीरज, ऐसी अटूट श्रद्धा, ऐसा सरल भाव, ऐसी प्रेम से, चाहत से भरी आंख...उसी क्षण! पता नहीं उस बूढ़े का क्या हुआ! मैं नहीं सोचता कि वह तीन जन्मों में भी मुक्त हुआ होगा क्योंकि वह वक्तव्य नारायण ने माला फेंकने के पहले दिया था। वह बूढ़ा कहीं न कहीं अब भी तपश्चर्या कर रहा होगा।


अक्सर तुम माला जपते लोगों का चेहरा देखो तो उस बूढ़े का चेहरा थोड़ा तुम्हें समझ में आएगा। बैठे हैं। खोल-खोलकर आंख देख लेते हैं, बड़ी देर हो गई अभी तक। तपश्चर्या, उपवास करते लोगों के चेहरे को गौर से देखो तो उस बूढ़े की थोड़ी पहचान तुम्हें हो जाएगी।


नहीं ओमप्रकाश के लिए वैसा होने की कोई जरूरत नहीं है। लो एकतारा हाथ में, ले लो डुग्गी, नाचो। हो ही गया है। करना क्या है और? परमात्मा को हमने कभी खोया नहीं है, सिर्फ भ्रांति है खो देने की। नाचने में भ्रांति झड़ जाती है। गीत गुनगुनाने में भ्रांति गिर जाती है। उल्लास, उत्सव में राख उतर जाती है, अंगारा निकल आता है।


रही बात कि--"उस समय आप गुरु-भगवान तो नहीं उपलब्ध होंगे।'


अगर मुझसे संबंध जुड़ गया तो मैं सदा उपलब्ध हूं। संबंध जुड़ने की बात है। जिनका नहीं जुड़ा उन्हें अभी भी उपलब्ध नहीं हूं। वे यहां भी बैठे होंगे। जिनसे नहीं जुड़ाव हुआ, उन्हें अभी भी उपलब्ध नहीं हूं। जिनसे जुड़ गया उन्हें सदा उपलब्ध हूं।


ओमप्रकाश से जोड़ बन रहा है। तो घबड़ाओ मत। अहोभाव से भरो। जोड़ बन गया तो यह जोड़ शाश्वत है। यह टूटता नहीं। इसके टूटने का कोई उपाय नहीं है। 


और यह उतावलेपन को तो बिलकुल भूल जाओ। अधैर्य पकड़ो, लेकिन धीरज के साथ।

दिन जो निकला तो पुकारों ने परेशान किया
रात आयी तो सितारों ने परेशान किया
गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई
गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया

यह उतावलापन संसार का है। धन मिल जाए, पद मिल जाए, यह उतावलापन सांसारिक है।

गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई
गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया

अब बहार आ गई है। जरा देखो तो! मगर तुम पुरानी खिजां की आदत, पुरानी पतझड़ की आदत परेशान होने की बनाए बैठे हो। यह पुरानी छाया है तुम्हारे अनुभव की। इसे छोड़ो। चारों तरफ वसंत मौजूद है।

अगर मैं कुछ हूं तो वसंत का संदेशवाहक हूं। यह वसंत मौजूद है। यह बहार आ ही गई है। जरा आंख बंद करो तो भीतर दिखाई पड़े। जरा आंख ठीक से खोलो तो बाहर दिखाई पड़े। अब परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं। जो ऊर्जा परेशानी बन रही है, उसी ऊर्जा को आनंद बनाओ!

जिन सूत्र 

ओशो

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