कल आपने कहा कि उत्तर गीता से मिला हो तो कृष्ण महाराज को
नमस्कार करना। माना कि कृष्ण से मिलना संभव नहीं, कोई याददाश्त भी नहीं, लेकिन
कृपया बताएं कि रजनीश महाराज को कैसे नमस्कार करें, जब तक कि
भीतर का रजनीश उभरकर न आ जाए!
जब तक भीतर का रजनीश उभरकर न आए तब तक नमन करो; जब उभरकर आ जाए तब नमस्कार
कर लेना। नमन और नमस्कार में कोई बहुत फासला थोड़े ही है! नमन जरा लंबा कर दिया
साष्टांग, तो नमस्कार!
कृष्ण महाराज को नमस्कार करने को कहा क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि
तुम्हारे भीतर का कृष्ण तुम्हारे बाहर की कृष्ण की धारणा में दबा रह जाए। कहीं ऐसा
न हो कि शास्त्र तुम्हारे सत्य को उभरने न दे। कहीं ऐसा न हो कि उधार ज्ञान
तुम्हारी मौलिक प्रतिभा को प्रगट न होने दो। कहीं ऐसा न हो कि तुम सूचनाओं को ही
ज्ञान समझते हुए जीयो और मर जाओ;
और तुम्हें अपनी कोई जीवंत अनुभूति न हो।
मेरी बात तुम सुन रहे हो। अगर मेरी बात को संगृहीत करने लगे तो
खतरा है। सुनो मेरी, गुनो अपनी। समझो, संग्रह मत करो। याददाश्त भरने से
कुछ भी न होगा। स्मृति के पात्र में तुमने, जो-जो मैंने
तुमसे कहा, इकट्ठा भी कर लिया तो दो कौड़ी का है। उससे कुछ
लाभ नहीं। तुम्हारा बोध जगे। जो मैं कह रहा हूं उसे समझो, उससे
जागो। कोई परीक्षा थोड़ी ही देनी है कहीं कि तुमने जो मुझसे सुना, वह याद रहा कि नहीं रहा।
एक मित्र एक दिन आए,
वे कहने लगे, बड़ी मुश्किल है। रोज आपको सुनता
हूं लेकिन घर जाते-जाते भूल जाता हूं। तो अगर मैं नोट लेने लगूं तो कोई हर्ज तो
नहीं? तो नोट लेकर भी क्या करोगे? अगर
नोट लिया तो नोट-बुक का मोक्ष हो जाएगा, तुम्हारा कैसे होगा?
तो याद तो नोट-बुक को रहेगा। तुमको तो रहेगा नहीं।
और याद रखने की जरूरत क्या है? मैंने उनसे पूछा, याद
रखकर करोगे क्या? समझ लो, बात हो गई।
सार-सार रह जाएगा। फूल तो विदा हो जाएंगे, सुगंध रह जाएगी।
पहचानना भी मुश्किल होगा, किस फूल से मिली थी। लेकिन उस
सुगंध के साथ-साथ तुम्हारे भीतर की सुगंध भी उठ आएगी। उस सुगंध का हाथ पकड़कर
तुम्हारी सुगंध भी लहराने लगेगी।
तो एक दिन तो गुरु को नमस्कार करना ही है। नमन से शुरू करना, नमस्कार से विदा देनी। इसे
याद रखना। इसे भूलना मत। कृष्ण से उतना खतरा नहीं है, जितना
तुम्हारे लिए मुझसे खतरा है। क्योंकि कृष्ण से तुम्हारा कोई लगाव ही नहीं। जिनका
लगाव है, वे तो मेरे पास आते भी नहीं। तो कृष्ण को तो तुम
बड़े मजे से नमस्कार कर सकते हो। असली कठिनाई तो मुझे नमस्कार करने में आएगी।
लेकिन नमस्कार करने के पहले नमन का अभ्यास करना होगा। नमन ही
लंबा होकर नमस्कार बनता है। झुको! तुम अगर झुके तो तुम्हारे भीतर कोई जगेगा। तुम
अगर अकड़े रहे तो तुम्हारे भीतर कोई झुका रहेगा। तुम झुको तो तुम्हारे भीतर कोई खड़ा
हो जाएगा।
बाहर का गुरु तो केवल थोड़ी देर का साथ है ताकि भीतर का गुरु जग
जाए। और जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाता है, उस दिन तुम जल्दी न करोगे हाथ छुड़ाने की।
किस-किस उन्वां से भुलाना उसे चाहा था रविश
किसी उन्वां से मगर उनको भुलाया न गया
भुलाने की जल्दी भी मत करो। जागने की फिक्र करो। भुलाने पर जोर
मत दो, जागने पर
जोर दो। इधर तुम जागे, कि एक अर्थ में तुम भूल जाओगे गुरु को
और एक गहरे अर्थ में पहली दफे तुम उसे पाओगे। अपने ही भीतर विराजमान पाओगे।
तुम्हारे ही सिंहासन पर विराजमान पाओगे। तुम्हारी ही आत्मा जैसा विराजमान पाओगे।
अचानक तुम पाओगे,
गुरु और शिष्य दो नहीं थे।
मैं तुम्हारी ही संभावना हूं। जो तुम हो सकते हो, उसकी ही खबर हूं। लेकिन छुड़ाने
की कोई जल्दी नहीं है। जल्दी छुड़ाने में तो तुम अटके रह जाओगे। लाभ भी न होगा।
छूटना तो हो ही जाएगा। सीख लो। जाग लो। तुम हो जाओ।
जिन सूत्र
ओशो
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