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Monday, January 30, 2017

कुछ दिन ध्यान में जी लगता है, फिर कुछ दिन पूजा और भजन चलता है, लेकिन एकाग्रता कहीं भी नहीं होती।



मन का स्वभाव ऐसा। न यहां लगता, न वहां लगता। मन का स्वभाव है द्वंद्व। जो करोगे वहीं से उचटा हुआ लगेगा। जहां हो वहां से भागा हुआ रहेगा। जहां नहीं हो वहां का रस जन्मेगा। जो मिला, व्यर्थ हो जाता है। जो नहीं मिला, वे दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं।

मन के इस स्वभाव को समझो। न तो ध्यान काम आता, न भजन काम आता; मन के स्वभाव को समझना काम आता है।

मन की यह प्रक्रिया है। पद मिल जाए तो असंतुष्ट, पद न मिले तो असंतुष्ट। पद न मिले तो पीड़ा, पद मिल जाए तो व्यर्थता का बोध। गरीब रोता, अमीर नहीं है। अमीर रोता कि अमीर हो गया, अब क्या करूं?

जो भी तुम्हारे पास है, वह पास होने के कारण ही दो कौड़ी का हो जाता है। और जो तुमसे बहुत दूर है, दूर होने के कारण ही उसका बुलावा मालूम होता है।

मन के इस आधारभूत जाल को समझो। इसे पहचानो। यह ध्यान और भजन का ही सवाल नहीं है। भोजन करो तो मन में उपवास का रस उमगता है कि पता नहीं, उपवास करनेवाले न मालूम किस गहन शांति और आनंद को उपलब्ध हो रहे हों। उपवास करो तो भोजन की याद आती है।
जीवन के प्रत्येक पल तुम ऐसा ही पाओगे।

बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी
अब कहां ले जाके बैठें ऐसे दीवाने को हम

बगीचे में बिठाओ तो लगता नहीं। मरुस्थल में ले जाओ तो घबड़ाता है।


बाग में लगता नहीं, सहरा से घबड़ाता है जी
अब कहां ले जाके बैठें ऐसे दीवाने को हम


मन एक तरह का पागलपन है, एक तरह की विक्षिप्तता है। मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन के पार होना ही स्वस्थ होना है। तो पहली तो बात, मन के इस स्वभाव को समझने की कोशिश करो। अक्सर लोग समझने की कम कोशिश करते हैं, छुटकारा पाने की ज्यादा कोशिश करते हैं। और छुटकारा बिना समझे कभी नहीं है। तो तुम्हारी आकांक्षा यह होती है, कैसे झंझट मिटे। लेकिन बिना समझे झंझट मिटी ही नहीं। नासमझी में झंझट है।


तो तुम चाहते हो, कैसे इस मन से छुटकारा हो? लेकिन पहले इस पहचानो तो। इससे दोस्ती तो साधो। इससे परिचय तो बनाओ। इसके कोने-कांतर तो खोजो। दीया तो जलाओ कि इसके सारे स्वभाव को तुम ठीक से देख लो। उस देखने में, उस दर्शन में, उस साक्षीभाव में ही तुम पाओगे विजय की यात्रा पूरी होने लगी।


जिस दिन कोई मन को पूरा समझ लेता है, उसी दिन मन विसर्जित हो जाता है। जैसे सूरज के ऊगने पर ओसकण तिरोहित हो जाते हैं, ऐसे ही बोध के जगने पर मन तिरोहित हो जाता है। जैसे दीये के जलने पर अंधेरा नहीं पाया जाता, ऐसे समझ के, प्रज्ञा के दीये के जलने पर मन नहीं पाया जाता।
तो मन से लड़ो मत--पहली बात। लड़ने का अर्थ ही नासमझी है। लड़कर कभी कोई जीता? तुमने यही सुना है कि जो लड़े वे जीते। मैं तुमसे कहता हूं, लड़कर कोई कभी जीता? समझकर जीत होती है। लड़नेवाले तो नासमझ हैं। लड़ोगे किससे! छायाओं से लड़ रहे हो।


जैसे कोई अपनी छाया से लड़ने लगे, खींच ले तलवार, करने लगे हमला। परिणाम क्या होगा? छाया कटेगी? परिणाम यही होगा, खुद ही थकेगा। और डर है कि छाया से लड़ने में कहीं अपने हाथ-पैर न काट ले। क्रोध में, उबाल में, पागल न हो उठे। कहीं ऐसी घड़ी न आ जाए कि विक्षिप्तता में अपने को ही काट ले।


अक्सर मन के साथ लड़नेवाले ऐसी ही स्थिति में पड़ जाते हैं। मन तुम्हारा है; तुम्हारी छाया। है नहीं, बस छाया जैसा है।


जिन सूत्र 

ओशो 

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