.... न जाने कौन कब इस
शरीर को समाप्त कर दे! इससे मन में एक उतावलापन रहता है कि जो करना है, शीघ्रता से करूं; अन्यथा बिना कुछ पाए ही चला जाना होगा। भय या अड़चन बिलकुल नहीं लगती। हर
क्षण जाने को तैयार हूं। दुबारा आने से भी डर नहीं लगता। परंतु एक भय, एक अड़चन अवश्य सताती है कि उस समय आप गुरु भगवान तो नहीं उपलब्ध होंगे।
क्या मेरा उतावलापन उचित है? मैं क्या कर सकता हूं? हर प्रकार से तैयार ही होकर आया हूं।
ओशो : नारद स्वर्ग जा रहे हैं। और एक वृक्ष के नीचे उन्होंने एक बूढ़े
संन्यासी को बैठे देखा, तप में लीन माला जप रहा है। जटा-जूटधारी! अग्नि को जला रखा है। धूप घनी,
दुपहर तेज, वह और आग में तप रहा है। पसीने से
लथपथ। नारद को देखकर उसने कहा कि सुनो, जाते हो प्रभु की तरफ,
पूछ लेना, जरा पक्का करके आना, मेरी मुक्ति कब तक होगी? तीन जन्मों से कोशिश कर रहा
हूं। आखिर हर चीज की हद्द होती है।
चेष्टा करनेवाले का मन ऐसा ही होता है, व्यवसायी का होता है। नारद
ने कहा जरूर पूछ आऊंगा। उसके ही दो कदम आगे चलकर दूसरे वृक्ष के नीचे, एक बड़े बरगद के वृक्ष के नीचे एक युवा संन्यासी नाच रहा था। रहा होगा कोई
प्राचीन बाउल: एकतारा लिए, डुगडुगी बांधे। थाप दे रहा
डुगडुगी पर, एकतारा बजा रहा, नाच रहा।
युवा है। अभी बिलकुल ताजा और नया है। अभी तो दिन भी संन्यास के न थे।
नारद ने कहा--मजाक में ही कहा--कि तुम्हें भी तो नहीं पूछना है कि
कितनी देर लगेगी? वह कुछ बोला ही नहीं। वह अपने नाच में लीन था। उसने नारद को देखा ही नहीं।
उस घड़ी तो नारायण भी खड़े होते तो वह न देखता। फुर्सत किसे? नारद
चले गए। दूसरे दिन जब वापस लौटे तो उन्होंने उस बूढ़े को कहा कि मैंने पूछा,
उन्होंने कहा कि तीन जन्म और लग जाएंगे। बूढ़ा बड़ा नाराज हो गया।
उसने माला आग में फेंक दी। उसने कहा, भाड़ में जाए यह सब! तीन
जन्म से तड़फ रहा हूं, अब तीन जन्म और लगेंगे? यह क्या अंधेर है? अन्याय हो रहा है।
नारद तो चौंके। थोड़े डरे भी। उस युवक के पास जाकर कहा कि भई!
नाराज मत हो जाना--वह नाच रहा है--मैंने पूछा था। अब तो मैं कहने में भी डरता हूं।
क्योंकि उन्होंने कहा है कि वह युवक,
वह जिस वृक्ष के नीचे नाच रहा है, उस वृक्ष
में जितने पत्ते हैं, उतने ही जन्म उसे लग जाएंगे।
ऐसा सुना था उस युवक ने,
कि वह एकदम पागल हो गया मस्ती में और दीवाना होकर थिरकने लगा। नारद
ने कहा, समझे कि नहीं समझे? मतलब समझे
कि नहीं? जितने इस वृक्ष में पत्ते हैं इतने जन्म! उसने कहा,
जीत लिया, पा लिया, हो
ही गई बात। जमीन पर कितने पत्ते हैं! सिर्फ इतने ही पत्ते? खतम!
पहुंच गए!
कहते हैं वह उसी क्षण मुक्त हो गया। ऐसा धीरज, ऐसी अटूट श्रद्धा, ऐसा सरल भाव, ऐसी प्रेम से, चाहत
से भरी आंख...उसी क्षण! पता नहीं उस बूढ़े का क्या हुआ! मैं नहीं सोचता कि वह तीन
जन्मों में भी मुक्त हुआ होगा क्योंकि वह वक्तव्य नारायण ने माला फेंकने के पहले
दिया था। वह बूढ़ा कहीं न कहीं अब भी तपश्चर्या कर रहा होगा।
अक्सर तुम माला जपते लोगों का चेहरा देखो तो उस बूढ़े का चेहरा
थोड़ा तुम्हें समझ में आएगा। बैठे हैं। खोल-खोलकर आंख देख लेते हैं, बड़ी देर हो गई अभी तक।
तपश्चर्या, उपवास करते लोगों के चेहरे को गौर से देखो तो उस
बूढ़े की थोड़ी पहचान तुम्हें हो जाएगी।
नहीं ओमप्रकाश के लिए वैसा होने की कोई जरूरत नहीं है। लो
एकतारा हाथ में, ले लो डुग्गी, नाचो। हो ही गया है। करना क्या है और?
परमात्मा को हमने कभी खोया नहीं है, सिर्फ
भ्रांति है खो देने की। नाचने में भ्रांति झड़ जाती है। गीत गुनगुनाने में भ्रांति
गिर जाती है। उल्लास, उत्सव में राख उतर जाती है, अंगारा निकल आता है।
रही बात कि--"उस समय आप गुरु-भगवान तो नहीं उपलब्ध होंगे।'
अगर मुझसे संबंध जुड़ गया तो मैं सदा उपलब्ध हूं। संबंध जुड़ने की
बात है। जिनका नहीं जुड़ा उन्हें अभी भी उपलब्ध नहीं हूं। वे यहां भी बैठे होंगे।
जिनसे नहीं जुड़ाव हुआ, उन्हें अभी भी उपलब्ध नहीं हूं। जिनसे जुड़ गया उन्हें सदा उपलब्ध हूं।
ओमप्रकाश से जोड़ बन रहा है। तो घबड़ाओ मत। अहोभाव से भरो। जोड़ बन
गया तो यह जोड़ शाश्वत है। यह टूटता नहीं। इसके टूटने का कोई उपाय नहीं है।
और यह उतावलेपन को तो बिलकुल भूल जाओ। अधैर्य पकड़ो, लेकिन धीरज के साथ।
दिन जो निकला तो पुकारों ने परेशान किया
रात आयी तो सितारों ने परेशान किया
गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई
गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया
यह उतावलापन संसार का है। धन मिल जाए, पद मिल जाए, यह उतावलापन सांसारिक है।
गर्ज है यह कि परेशानी कभी कम न हुई
गई खिजां तो बहारों ने परेशान किया
अब बहार आ गई है। जरा देखो तो! मगर तुम पुरानी खिजां की आदत, पुरानी पतझड़ की आदत परेशान
होने की बनाए बैठे हो। यह पुरानी छाया है तुम्हारे अनुभव की। इसे छोड़ो। चारों तरफ
वसंत मौजूद है।
अगर मैं कुछ हूं तो वसंत का संदेशवाहक हूं। यह वसंत मौजूद है।
यह बहार आ ही गई है। जरा आंख बंद करो तो भीतर दिखाई पड़े। जरा आंख ठीक से खोलो तो
बाहर दिखाई पड़े। अब परेशान होने की कोई भी जरूरत नहीं। जो ऊर्जा परेशानी बन रही है, उसी ऊर्जा को आनंद बनाओ!
जिन सूत्र
ओशो
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