तंत्र में एक बहुत पुरानी प्रक्रिया है। और वह प्रक्रिया यह है
कि तुम जब तक सपने में यह न जान लो कि यह झूठा है, तब तक तुम संसार को झूठा न जान सकोगे।
यह उलटा हुआ। अभी तुमने संसार को सच माना है, इसलिए सपना तक सच मालूम
होता है। तंत्र कहता है, सपने में जब तक तुम न जान लो कि
सपना झूठा है, तब तक तुम संसार को माया न समझ सकोगे। और बड़ी
सूक्ष्म विधियां तंत्र ने विकसित की हैं--सपने में कैसे जानना?
तुम थोड़े प्रयोग करना। कुछ भी एक बात तय कर लो। रात सोते समय
उसको तय किए जाओ। यह तय कर लो कि जब भी मुझे सपना आएगा, तभी मैं अपना बायां हाथ जोर
से ऊपर उठा दूंगा। या अपनी हथेली को अपनी आंख के सामने ले आऊंगा--सपने में। इसको
रोज याद करते हुए सोओ। इसकी गूंज तुम्हारे भीतर बनी रहे। कोई तीन महीने लगेंगे।
अगर तुम इसको रोज दोहराते रहे, तो तीन महीने के भीतर,
या तीन महीने के करीब, एक दिन अचानक तुम सपने
में पाओगे, वह याददाश्त इतनी गहरी हो गयी है, अचेतन में उतर गयी कि जैसे ही सपना शुरू होता है, तुम्हारी
हथेली सामने आ जाती है। और जैसे ही तुम्हारी हथेली सामने आयी, तुम्हें समझ में आ जाएगा, यह सपना है। क्योंकि वे
दोनों संयुक्त हैं। सपने में हथेली सामने आ जाए।
तंत्र में एक प्रक्रिया है कि सपने में तुम जो भी देखो--अगर तुम
एक रास्ते से गुजर रहे हो, बाजार भरा है, दूकानें लगी हैं--तो तुम किसी भी एक
चीज को ध्यान से देखो, दूकान को ध्यान से देखो। और तुम हैरान
होगे कि जैसे ही तुम ध्यान देते हो, दूकान खो जाती है।
क्योंकि है तो है नहीं; सपना है। फिर तुम और चीजें ध्यान से
देखो। रास्ते से लोग गुजर रहे हैं। जो भी दिखायी पड़े, उसको
गौर से देखते रहो, एकटक। तुम पाओगे, वह
खो गया। अगर तुम सपने को पूरा गौर से देख लो, तुम पाओगे,
पूरा सपना खो गया। जैसे ही सपना खोता है, नींद
में भी ध्यान लग गया। समाधि आ गयी।
सपने से शुरू करे कोई जागना, तो यह सारा संसार सपना मालूम होगा। यह खुली आंख
का सपना है। लेकिन हमारी आदत गहन है। दृश्य में हम खो जाते हैं। और जब दृश्य में
खो जाते हैं, तो द्रष्टा विस्मरण हो जाता है। हमारी चेतना का
तीर एकतरफा है।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि जिस दिन तुम्हारी चेतना का
तीर दुतरफा हो जाएगा, तीर में दोनों तरफ फल लग जाएंगे, उसी दिन तुम सिद्ध
हो जाओगे। तो सारी चेष्टा गुरजिएफ करवाता था कि जब तुम किसी को देखो, तब उसको भी देखो और अपने को भी देखने की कोशिश जारी रखो कि मैं देख रहा
हूं। मैं द्रष्टा हूं। तो तुम तीर में एक नया फल पैदा कर रहे हो, तीर तुम्हारी तरफ भी और दूसरे की तरफ भी।
मुझे तुम सुन रहे हो,
सुनते वक्त तुम मुझ में खो जाओगे। तुम सुनने वाले को भूल ही जाओगे।
तुम सुनने वाले को भूल गए, तो भूल हो गयी। सुनते समय सुनने
वाला भी याद रहे। तो मैं यहां बोल रहा हूं, तुम वहां सुन रहे
हो, और तुम यह भी साथ जान रहे हो कि मैं सुन रहा हूं। तब तुम
सुनने वाले से पार हो गए। एक ट्रांसनडेन्स, एक अतिक्रमण हो
गया, साक्षी का जन्म हुआ।
और जैसे ही साक्षी पैदा होता है, वैसे ही मनुष्य अनेक से तीन में आ गया।
त्रिवेणी आ गयी। त्रिवेणी के बाद एक तक पहुंचना बहुत आसान है। क्योंकि एक कदम और!
और जैसे-जैसे त्रिवेणी सघन होती जाती है, वैसे-वैसे एक ही रह
जाता है। क्योंकि त्रिवेणी, तीनों नदियां एक में खो जाती
हैं।
हम प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं। और तीर्थराज इसीलिए कहते हैं
कि वह त्रिवेणी है। और त्रिवेणी भी बड़ी अदभुत है। उसमें दो तो दिखायी पड़ती हैं और
एक दिखायी नहीं पड़ती। सरस्वती दिखायी नहीं पड़ती। वह अदृश्य है। गंगा और यमुना
दिखायी पड़ती हैं।
तुम जब भी किसी चीज पर ध्यान दोगे, तो ध्यान देने वाला और जिस
पर तुमने ध्यान दिया-- सब्जेक्ट और आब्जेक्ट--दो तो दिखायी पड़ने लगेंगे। उन दोनों
के बीच का जो संबंध है, वह सरस्वती है, वह दिखायी नहीं पड़ता। लेकिन तीनों वहां मिल रहे हैं। दो दृश्य नदियां,
और एक अदृश्य नदी। और जब तीनों मिल जाते हैं, एक
अपने आप घटित हो जाता है।
नानक कहते हैं,
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु।
एक मां से, एक माया से, तीन प्रामाणिक चेलों का जन्म हुआ। उसमें
एक संसारी ब्रह्मा है, एक भंडारी विष्णु है, एक दीवान प्रलयंकर महेश है।
ओशो
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