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Friday, February 23, 2018

सरल हो जाएं



संध्या का पहला सूत्र आपसे कहना चाहता हूंसरल हो जाएं। और यह मत पूछें कि हम सरल कैसे हो जाएं, क्योंकि जहां कैसे का भाव शुरू हुआ, कठिनता शुरू हो जाती है। जैसे ही आपने पूछा मैं कैसे हो जाऊं सरल? बस आप कठिन होना शुरू हो गए।


सरलता तो स्वभाव है। सरल होना नहीं पड़ता है, केवल कठिन होना बंद कर दें, और आप पाएंगे कि सरल हो गए हैं।


मैं यह मुट्ठी बांध लूं और फिर पूछने लगे लोगों से कि मैं मुट्ठी कैसे खोलूं? तो कोई मुझसे क्या कहे? मुट्ठी खोलनी नहीं पड़ती, बांधनी जरूर पड़ती है। मुट्ठी खोलनी नहीं पड़ती, बांधनी जरूर पड़ती है। अब मैं मुट्ठी बांधे हूं और लोगों से पूछता हूं मुट्ठी कैसे खोलूं? जो जानता है वह कहेगा कि सिर्फ बांधना बंद कर दें, मुट्ठी खुल जाएगी। बांधें मत, खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है।


एक बच्चा एक वृक्ष की शाखा को खींच कर खड़ा है और पूछता है, इसे मैं इसकी जगह वापस कैसे पहुंचा दूं? क्या कहें उससे? वापस पहुंचाने के लिए कोई आयोजन करना पड़े? नहीं, बच्चा छोड़ दे शाखा को। शाखा हिलेगी, कपेगी, अपनी जगह वापस पहुंच जाएगी।


स्वभाव सरल है मनुष्य का, जटिलता कल्टिवेटेड है। जटिलता कोशिश करके लाई गई है। जटिलता साधी गई है। सरलता साधनी नहीं है, केवल जटिलता न हो, और सरलता उपस्थित हो जाती है। यह मत पूछना कि हम सरल कैसे हो जाएं! कठिन कैसे हो गए हैं, यह समझ लें, और कठिन होना छोड़ दें, और पाएंगे कि सरलता आ गई है। सरलता सदा मौजूद है।


कैसे कठिन हो गए हैं? कैसे हमने अपने को रोजरोज कठिन कर लिया है?


पहली बात मैंने कही, हमने असत्य का जीवन को ढांचा दिया है। असत्य हमारा पैटर्न है, असत्य हमारा ढांचा है। असत्य में हम जीते हैं, श्वास लेते हैं। असत्य में हम चलते हैं। खोजें कि कहीं आपका सारा जीवन असत्य पर तो खड़ा हुआ नहीं है?


एक छोटा सा बच्चा समुद्र की रेत पर अपने हस्ताक्षर कर रहा था। वह बड़ी बारीकी से, बड़ी कुशलता से अपने हस्ताक्षर बना रहा था। एक का उससे कहने लगा, पागल, तू हस्ताक्षर कर भी न पाएगा, हवाएं आएंगी और रेत बिखर जाएगी। व्यर्थ मेहनत कर रहा है, समय खो रहा है, दुख को आमंत्रित कर रहा है। क्योंकि जिसे तू बनाएगा और पाएगा कि बिखर गया, तो दुख आएगा। बनाने में दुख होगा, फिर मिटने में दुख होगा। लेकिन तू रेत पर बना रहा है, मिटना सुनिश्चित है। दुख तू बो रहा है। अगर हस्ताक्षर ही करने हैं तो किसी सख्त, कठोर चट्टान पर कर, जिसे मिटाया न जा सके।


मैंने सुना है कि वह बच्चा हंसने लगा और उसने कहा, जिसे आप रेत समझ रहे हैं, कभी वह चट्टान थी; और जिसे आप चट्टान कहते हैं, कभी वह रेत हो जाएगी।


बच्चे रेत पर हस्ताक्षर करते हैं, बूढ़े चट्टानों पर हस्ताक्षर करते हैं, मंदिरों के पत्थरों पर। लेकिन दोनों रेत पर बना रहे हैं। रेत पर जो बनाया जा रहा है वह झूठ है, वह असत्य है। हम सारा जीवन ही रेत पर बनाते हैं। हम सारी नावें ही कागज की बनाते हैं। और बड़े समुद्र में छोड़ते हैं, सोचते हैं कहीं पहुंच जाएंगे। नावें ड़बती हैं, साथ हम ड़बते हैं। रेत के भवन गिरते हैं, साथ हम गिरते हैं। असत्य रोजरोज हमें रोजरोज पीड़ा देता और हम रोजरोज असत्य की पीड़ा से बचने को और बड़े असत्य खोज लेते हैं। तब जीवन सरल कैसे हो सकता है? असत्य को पहचानें कि मेरे जीवन का ढांचा कहीं असत्य तो नहीं है? और हम इतने होशियार हैं कि हमने छोटीमोटी चीजों में असत्य पर खड़ा किया हो अपने को, ऐसा ही नहीं है, हमने अपने धर्म तक को असत्य पर खड़ा कर रखा है।

जीवन रहस्य 

ओशो

स्रष्टा सृष्टि से बड़ा होता है



रोम में एक बहुत कुशल कारीगर था, एक बहुत बड़ा लोहार था। उसकी कुशलता की प्रसिद्धि दूर-दूर के देशों तक थी। दूर-दूर के बाजारों में उसकी चीजें बिकतीं। दूर-दूर उसकी प्रशंसा होती। धीरे-धीरे बहुत धन उसके द्वार पर आकर इकट्ठा होने लगा। फिर रोम पर हमला हुआ। और दुश्मन ने आकर रोम को रौंद डाला। और रोम के सौ बड़े नागरिकों को बंदी बना लिया। उन सौ बड़े नागरिकों में वह लोहार भी एक था। उन सबके हाथों में जंजीरें पहना दी गईं और पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं, और उन्हें एक दूर पहाड़ी घाटियों में फिंकवा दिया गया मरने को, मृत्यु की प्रतीक्षा करने को। सौ नागरिकों में निन्यानबे नागरिक रो रहे थे, उनकी आंखें आंसुओं से भरी थीं, और प्राण चिंता और व्याकुलता से, लेकिन वह लोहार निश्चिंत मालूम होता था। न उसकी आंखों में आंसू थे, न उसके चेहरे पर उदासी थी, उसे खयाल था इस बात का, मैं जीवन भर खुद लोहे की कड़ियां बनाता रहा हूं, तो कड़ियां कितनी ही मजबूत हों, मैं उन्हें खोलने का कोई न कोई उपाय जरूर खोज लूंगा। बहुत कुशल था वह कारीगर, निश्चिंत था इसलिए, आश्वस्त था कि घबड़ाने की कोई बात नहीं है। जैसे ही मुझे फेंक कर कैदी की तरह घाटी में सैनिक लौट जाएंगे, मैं कड़ियां खोल लूंगा।


और उसे फेंक कर सैनिक वापस लौटे, तो उसने पहला काम अपनी कड़ियों को देखने का किया। लेकिन जंजीर को देखते ही, बेड़ी को देखते ही उसकी आंखें आंसुओं से भर गईं और उसने अपने बंधे हुए हाथों से अपनी छाती पीट ली और रोने लगा। क्या दिखाई पड़ गया उसे जंजीर पर? एक बड़ी अजीब बात जिसकी उसने जीवन में कभी कल्पना भी न की थी। उसकी आदत थी, वह जो भी बनाता था, जो भी चीज तैयार करता था उसके कोने तरफ में हस्ताक्षर कर देता था। कड़ी जब उसने देखी, पैर की जंजीर जब देखी, तो पाया, उसके हस्ताक्षर हैं। वह उसकी ही बनाई हुई जंजीर थी। जो दूर बाजारों में बिक कर वापस लौट आई थी दुश्मन के हाथों। और अब, अब वह घबड़ा गया था। अब जंजीर को तोड़ना बहुत कठिन था, क्योंकि उसे पता था कमजोर चीज बनाने की उसकी आदत ही नहीं थी। परिचित था इस कड़ी से, इस जंजीर से। कमजोर चीज बनाने की उसकी आदत नहीं रही, उसने तो मजबूत से मजबूत चीजें बनाई थीं। उसे कब खयाल था कि अपनी ही बनाई हुई जंजीरें किसी दिन अपने ही पैरों पर पड़ सकती हैं। यह तो कभी सपना भी न देखा था। कोई भी आदमी कभी यह सपना नहीं देखता कि जो कारागृह मैं बना रहा हूं उनका अंतिम बंदी मैं ही होने को हूं। कोई कभी यह नहीं देखता कि जो जंजीरें मैं निर्मित करता हूं, वे मेरे ही हाथों पर पड़ जाएंगी। कोई इस बात की कल्पना भी नहीं करता, दूर खयाल भी इस बात का नहीं आता कि पूरे जीवन में मैं जो जाल रच रहा हूं, मैं ही उसमें फंस जाऊंगा। 


मैं आपसे निवेदन करता हूं, हर आदमी उसी जाल में फंस जाता है जिसका वह निर्माता है। और तब, तब वह चिल्लाता है और हाथ जोड़ता है और परमात्मा से प्रार्थनाएं करता है, व्रत-उपवास करता है, पूजा-अर्चना करता है, गिड़गिड़ाता है, घुटने टेक कर जमीन पर खड़ा होता आकाश की तरफ आंखें उठाता है--मुझे मुक्त कर दो, मुझे स्वतंत्र कर दो। लेकिन कौन करेगा स्वतंत्र? कोई आकाश से उतरेंगे देवता? कोई ईश्वर आएगा स्वतंत्र करने? जब परतंत्र होना चाहा था तब किससे पूछने हम गए थे? और किस परमात्मा से हमने प्रार्थना की थी? और किस मंदिर के द्वार पर हमने घुटने टेके थे? और किससे हमने पूछा था कि मैं परतंत्र होना चाहता हूं मुझे जंजीरें बनाने का रास्ता बता दो? किसी से भी नहीं, तब हम अपने से ही पूछ कर ये सब कुछ कर लिए थे। और स्वतंत्रता के लिए दूसरे के द्वार पूछने जाते हैं? और इसमें न हमें शर्म आती है और न यह खयाल आता है कि कैसी विक्षिप्त है यह बात। परतंत्रता अपनी निर्मित है तो स्वतंत्रता भी अपनी ही निर्मित करनी होगी। कोई प्रार्थना नहीं काम करेगी, कोई साथ नहीं देगा, कोई हाथ आकाश से नीचे नहीं उतरेगा कड़ियां खोलने को, अपने ही हाथों से जो बांधा है उसे खोलने पड़ेगा।


वह लोहार रोता रहा, छाती पीटता रहा, छोड़ दी उसने आशा जीवन की, अब बचने की कोई उम्मीद न थी। एक लकड़हारा बूढ़ा उस रास्ते से निकलता था, उसने पूछा, क्यों रोते हो? उस लोहार ने अपने दुख की कथा कही। उसने कहा, मैं सोचता था कि मुक्त हो सकूंगा इन जंजीरों से, लेकिन ये जंजीरें मेरी बनाई हुई हैं और बहुत मजबूत हैं। और अब, अब कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता है। 


वह बूढ़ा हंसने लगा और उसने कहा, इतने निराश हो जाने का कोई कारण नहीं। अगर ये जंजीरें किसी और की बनाई हुई होतीं, तो निराश होने का कारण भी था, ये तुम्हारी ही बनाई हुई हैं। और स्मरण रखो, बनाने वाला जिन चीजों को बनाता है उनसे हमेशा बड़ा होता है। स्रष्टा सृष्टि से बड़ा होता है; निर्माता निर्मित से बड़ा होता है। तुमने जो बनाया है तुम उससे बड़े हो। और इसलिए घबड़ाओ मत, जो तुमने बनाया है उसे तोड़ने की सामर्थ्य हमेशा तुम्हारे भीतर है, घबड़ा गए तो चूक जाओगे, फिर मुश्किल हो जाएगी। और स्मरण रखो, कड़ियां कितनी ही मजबूत हों, जंजीरें कितनी ही मजबूत हों, जहां जंजीर जोड़ी जाती है वह एक कड़ी हमेशा कमजोर रह जाती है, उस पर जोड़ होता है जो खुल सकता है। इसलिए घबड़ाओ मत, धैर्य से काम लो। इतने कुशल कारीगर हो, बेड़ियां बनाने में इतने कुशल थे, तो यह क्यों भूल जाते हो कि खोलने में भी वह कुशलता काम आ सकती है। जो आदमी गांठ बांधना जानता है, वह बांधते ही उसको खोलना भी जान जाता है, सीख जाता है। हर व्यक्ति अपनी परतंत्रता निर्मित करता है, अगर उसे ठीक से देखे तो उसे खोलने का मार्ग भी उसके पास है। 


अंतर की खोज 

ओशो

स्वतंत्रता



मेरे प्रिय आत्मन्!


एक अत्यंत वीरानी पहाड़ी सराय में मुझे ठहरने का मौका मिला था। संध्या सूरज के ढलते समय जब मैं उस सराय के पास पहुंच रहा था, तो उस वीरान घाटी में एक मार्मिक आवाज सुनाई पड़ रही थी। आवाज ऐसी मालूम पड़ती थी जैसे किसी बहुत पीड़ा भरे हृदय से निकलती हो। कोई बहुत ही हार्दिक स्वर में, बहुत दुख भरे स्वर में चिल्ला रहा था: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। और जब मैं सराय के निकट पहुंचा, तो मुझे ज्ञात हुआ, वह कोई मनुष्य न था, वह सराय के मालिक का तोता था, जो यह आवाज कर रहा था। 


मुझे हैरानी हुई। क्योंकि मैंने तो ऐसा मनुष्य भी नहीं देखा जो स्वतंत्रता के लिए इतने प्यास से भरा हो। इस तोते को स्वतंत्र होने की ऐसी कैसी प्यास भर गई? निश्चित ही वह तोता कैद में था, पिंजड़े में बंद था। और उसके प्राणों में शायद मुक्त हो जाने की आकांक्षा अंकुरित हो गई थी।



उसके पिंजड़े का द्वार बंद था। मेरे मन में हुआ उसका द्वार खोल दूं और उसे उड़ा दूं, लेकिन उस समय सराय का मालिक मौजूद था, और उसके कैदी को मुक्त होना शायद वह पसंद न करता। इसलिए मैं रात की प्रतीक्षा करता रहा। रात आने तक उस तोते ने कई बार वही आवाज स्वतंत्रता की, वही पुकार लगाई। जैसे ही रात हो गई और सराय का मालिक सो गया, मैं उठा, और मैंने जाकर उस तोते के पिंजड़े के द्वार खोल दिए। सोचा था मैंने, द्वार खोलते ही वह उड़ जाएगा खुले आकाश में, लेकिन नहीं, द्वार खुला रहा और वह तोता अपने पिंजड़े के सींकचों को पकड़े हुए चिल्लाता रहा: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। तब मेरी कुछ समझ में बात नहीं आई, क्या उसे खुला हुआ द्वार दिखाई नहीं पड़ रहा है? सोचा, शायद बहुत दिन की आदत के कारण खुले आकाश से वह भयभीत होता हो। तो मैंने हाथ डाला और उस तोते को बाहर खींचने की कोशिश की। लेकिन नहीं, उसने मेरे हाथ पर हमले किए, चिल्लाता वह यही रहा: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। लेकिन अपने पिंजड़ों के सींकचों को पकड़े रहा और छोड़ने को राजी न हुआ। बहुत कठिनाई से उसे बाहर मैंने निकाल कर उड़ा दिया और यह सोच कर कि एक आत्मा मुक्त हुई, एक पिंजड़ा टूटा, एक कारागृह मिटा। मैं निश्चिंत होकर सो गया। 


सुबह जब मैं उठा तो मैंने देखा, वही आवाज फिर गूंज रही है। बाहर आया, देखता हूं, तोता अपने पिंजड़े में भीतर बैठा है, सींकचे पकड़े हुए है, द्वार खुला है और वह चिल्ला रहा है: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। तब बात बहुत बेबूझ हो गई, समझ के बाहर हो गई, क्या यह तोता स्वतंत्रता चाहता था या कि स्वतंत्रता की बात ऐसे ही पुकारे चले जा रहा था? शायद यह स्वतंत्रता की बात भी उसने अपने मालिक से सीख ली थी। उसी मालिक से जिसने उसे पिंजड़े में बंद किया हुआ था। शायद यह उसके अपने हृदय की आवाज न थी। शायद उसके अपने प्राणों की प्यास न थी। उधार थी यह आवाज, अन्यथा उसका जीवन विपरीत नहीं हो सकता। 


उस तोते को कभी नहीं भूल पाया हूं। और जब भी कोई मनुष्य मुझे मिलता है तो उस तोते का स्मरण फिर दिला देता है। 


हर आदमी मुक्त होने की कामना से प्रेरित दिखाई पड़ता है। हर आदमी स्वतंत्र होने की आकांक्षा से उद्वेलित मालूम होता है। हरेक के प्राण में कारागृह के बाहर निकल जाने की तीव्र अभीप्सा मालूम होती है। और हरेक का हृदय चिल्लाता रहता है जीवन भर: स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। लेकिन मैं बहुत हैरान हूं। जो व्यक्ति यह स्वतंत्रता की पुकार लगाए जाता है वही पिंजड़ों के सींकचों को पकड़े हुए है। उसके द्वार भी कोई खोल दे तो बाहर उड़ने को राजी नहीं है। ऐसी मनुष्य की दशा है। 


इस तोते की घटना से इसलिए ही शुरू करना चाहता हूं, सारी पृथ्वी पर मनुष्य की दशा यही है। वे जो मुक्ति का आकाश खोजना चाहते हैं, मनुष्य द्वारा निर्मित ही कारागृहों में बंद हैं। वे जो स्वतंत्रता की उड़ान भरना चाहते हैं, अपने ही हाथों से बनाई हुई दीवालों में कैद हैं। वे जिनके प्राण गीत गाते हैं मुक्ति के, उनके हाथ उनकी ही जंजीरों को निर्मित करते रहते हैं। और इसका हमें कभी स्मरण भी नहीं हो पाता, इसका हमें कभी बोध भी नहीं हो पाता, अगर हमारी परतंत्रता किसी और के द्वारा निर्मित होती तो भी यह एक बात थी, हम खुद ही उसके निर्माता और स्रष्टा हैं। 

अंतर की खोज 

ओशो

 

साधु-महात्माओं व मुनि-महाराजों को आप गधों की उपाधि से विभूषित क्यों करते हैं? गधा शब्द से आपका क्या तात्पर्य है? समझाने की कृपा करें।



प्रश्नकर्ता ने अपना नाम नहीं लिखा है। पता नहीं किस गधे ने यह प्रश्न पूछा है। मालूम पड़ता है जरूर कोई गधा नाराज हो गया है। नाराज होना भी चाहिए, क्योंकि गधे इतने गये-बीते नहीं। मुझसे भूल तो हो गयी।

 
गधे तो बड़े शालीन होते हैं। गधों का मौन देखो। यूं कभी-कभी रेंक देते हैं, मगर रेंकने में भी बड़ी अटपटी वाणी है, जिसको सधुक्कड़ी भाषा कहते हैं, कि कोई समझने वाला ही समझे तो समझे। कुछ ऐसी गहरी पते की बात कहते हैं कि जो शब्दों में आती ही नहीं; शास्त्र जिसको कह-कह कर थक गए...। ऐसा कभी-कभी। नहीं तो यूं मौन रहते हैं। 


और गधों के चेहरे देखो--कैसे उदासीन, कैसे विरक्त! न कोई लाग, न कोई लगाव। अनासक्त भाव से चले जा रहे हैं। और कुछ बोझा लाद दो--कुरान लाद दो, गीता लाद दो, वेद लाद दो--कोई किसी तरह की धार्मिक मतांधता नहीं। कुरान लादो तो ठीक, वेद लादो तो ठीक, गीता रख दो तो ठीक, तो ऐसा सर्व-धर्म-समन्वय...अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान! कुछ भेद-भाव नहीं करते, अद्वैतवादी हैं।


और गधे इतने गधे नहीं होते जितना कि आमतौर से लोग सोचते हैं। पता नहीं क्यों गधे बदनाम हो गए! कैसे बदनाम हो गए!


मुझे बचपन से ही गधों में रुचि रही। मेरे गांव में बहुत गधे थे--सभी जगह होते है। गधों की कहां कमी है? घोड़े तो मेरे गांव में बहुत कम थे; बस जितने तांगे थे, थोड़े से...। और बिलकुल मरियल घोड़े, गरीब गांव, गरीब तांगे, उनके गरीब घोड़े। किसी के ऊपर घाव बन गए हैं, हड्डी-हड्डी हो रहे हैं। खच्चर तो बिलकुल ही नहीं थे, क्योंकि खच्चर तो पहाड़ी इलाकों में काम आते हैं। वह कोई पहाड़ी इलाका न था।


मगर गधे काफी थे। अच्छे मस्त गधे थे!


और मुझे बचपन से ही गधों पर चढ़ने की धुन थी। शाम हुई कि मैं गधों की तलाश में निकला। और तभी मुझे पता चला कि गधे इतने गधे नहीं, जितना लोग समझते हैं। गधे मुझे पहचानने लगे। मुझे दूर से ही देख कर एकदम रेंकने, लगते, भागने लगते। मैं भी चकित हुआ। मैं पहले यही सोचता था कि गधे सच मैं गधे होते हैं। रात के अंधेरे में, जैसे मेरी बास भी उन्हें समझ में आने लगी। मैं कितना ही धीमे-धीमे उनके पास जाऊं...। दूसरे लोग निकल जाएं उनके बगल से, बराबर खड़े रहें। मैं उनके पास गया नहीं कि वे भागे। तब मुझे पता चला कि इतने गधे नहीं हैं। बड़े पहुंचे हुए सिद्ध हैं! अपनी मतलब की बात पहचान लेते थे, अब बाकी ऐरे-गैर नत्थू-खैरे निकल रहे हैं तो निकलने दो। इनसे क्या लेना-देना? जैसे ही उनको दिखा कि यह आ रहा है खतरनाक आदमी और उन्होंने रेंकना शुरू किया।


इसलिए मैंने कहा कि अभी गुजरात के गधों की मैं जनगणना कर रहा हूं। मेरे हाथ तो एक सूत्र लग गया। अब मैं सारे भारत के गधों की जनगणना कर लूंगा यहीं बैठे-बैठे, न कहीं गए न कहीं उठे। जब गुजरात के सब गधे रेंक चुके होंगे, तब में जाऊंगा कटक। फिर उड़ीसा के गधों की रेंक शुरू होगी। फिर चले कलकत्ता। अपना बिगड़ता क्या है? फिर बंगाली गधों की जांच-पड़ताल कर लेंगे। जितने भी गधा बाबू होंगे उनका पता लगा लेंगे। फिर चले बिहार। अरे न कहीं आना न जाना! मगर यूं बैठे-बैठे गधों की जनगणना तो हो ही जाएगी। अपने-आप गधे बोल देंगे। यह बचपन से ही मेरा उनसे नाता है। वे मुझे देख कर एकदम छड़कते हैं, एकदम भागते हैं। 


तो गधे इतने तो गधे नहीं होते। इसलिए एक लिहाज से तो ठीक ही है। जिस गधे ने भी यह पूछा है, उससे मैं काफी मांगता हूं कि मुझे साधु-संतों को, मुनि-महात्माओं को गधा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि गधों ने बेचारों ने किसी का कभी कुछ नहीं बिगाड़ा। गधे बिलकुल निर्दोष हैं। इनके ऊपर कोई हिंदू-मुसलमान दंगे-फसाद का, मसजिद-मंदिर को जलाने का कोई आरोप नहीं कर सकता। मगर गधा शब्द का मेरा अर्थ भी समझ लो। उससे तुम्हें आसानी होगी। कम से कम मेरे संन्यासियों को आसानी होगी; कोई गधा पूछ ही बैठा तो तुमको आसानी रहेगी। कोई गधा पूछ बैठे तो उसको कहना कि है गधाराम जी...। राम तो लगा ही देना पीछे। राम लगाने से बड़ी बचत हो जाती है। जैसे ही किसी के नाम के पीछे राम लगा दो तो चित्त प्रसन्न हो जाता है उसका। तो कहना: हे गधाराम जी आपको नाराज वगैरह होने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि मेरा जो गधा शब्द का प्रयोग है, वह शार्ट फार्म है। ग अर्थात गंभीर और धा अर्थात धार्मिक। जो बहुत गंभीर रूप से धार्मिक है, उसको मैं गधा कहता हूं।


और गधों को बिगाड़ना मेरा धंधा है। धा को तो रहने देता हूं, ग को मिटाता हूं। गंभीरता मिटानी है। मस्ती लानी है। नृत्य लाना है। धार्मिकता तो अच्छी है। धा यानी मेधा, प्रतिभा। ग को मिटा देना है। ग मिटाने की कोशिश करेंगे, ताकि सिर्फ धा बचे, धार्मिकता बचे, मेधा बचे। अपने से जो भी सेवा बन सकेगी, करेंगे।


इसलिए गधों से मेरी प्रार्थना है, नाराज न होना। जिसकी सूरत पर सदा बारह बजे रहते हों और जो धर्म की बकवास करता फिरे--भावार्थ पंडित-पुरोहित, साधु-महात्मा संयमीत्तपस्वी, मुनि-मौलवी इत्यादि-इत्यादि। मेरा तात्पर्य कोई चौपाया गधे से नहीं था। उस बेचारे ने तो किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा। ये जो दोपाये गधे हैं, इन्होंने मनुष्य-जाति का बहुत अहित किया है। इनसे छुटकारे की आवश्यकता है।


बहुरि न ऐसो दांव 


ओशो

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