संध्या का पहला सूत्र आपसे कहना चाहता हूं—सरल हो जाएं। और यह मत पूछें
कि हम सरल कैसे हो जाएं, क्योंकि जहां कैसे का भाव शुरू हुआ,
कठिनता शुरू हो जाती है। जैसे ही आपने पूछा—
मैं कैसे हो जाऊं सरल? बस आप कठिन होना शुरू हो गए।
सरलता तो स्वभाव है। सरल होना नहीं पड़ता है, केवल कठिन होना बंद कर दें,
और आप पाएंगे कि सरल हो गए हैं।
मैं यह मुट्ठी बांध लूं और फिर पूछने लगे लोगों से कि मैं
मुट्ठी कैसे खोलूं? तो कोई मुझसे क्या कहे? मुट्ठी खोलनी नहीं पड़ती,
बांधनी जरूर पड़ती है। मुट्ठी खोलनी नहीं पड़ती, बांधनी जरूर पड़ती है। अब मैं मुट्ठी बांधे हूं और लोगों से पूछता हूं
मुट्ठी कैसे खोलूं? जो जानता है वह कहेगा कि सिर्फ बांधना
बंद कर दें, मुट्ठी खुल जाएगी। बांधें मत, खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है।
एक बच्चा एक वृक्ष की शाखा को खींच कर खड़ा है और पूछता है, इसे मैं इसकी जगह वापस कैसे
पहुंचा दूं? क्या कहें उससे? वापस
पहुंचाने के लिए कोई आयोजन करना पड़े? नहीं, बच्चा छोड़ दे शाखा को। शाखा हिलेगी, कपेगी, अपनी जगह वापस पहुंच जाएगी।
स्वभाव सरल है मनुष्य का,
जटिलता कल्टिवेटेड है। जटिलता कोशिश करके लाई गई है। जटिलता साधी गई
है। सरलता साधनी नहीं है, केवल जटिलता न हो, और सरलता उपस्थित हो जाती है। यह मत पूछना कि हम सरल कैसे हो जाएं! कठिन
कैसे हो गए हैं, यह समझ लें, और कठिन
होना छोड़ दें, और पाएंगे कि सरलता आ गई है। सरलता सदा मौजूद
है।
कैसे कठिन हो गए हैं?
कैसे हमने अपने को रोज—रोज कठिन कर लिया है?
पहली बात मैंने कही,
हमने असत्य का जीवन को ढांचा दिया है। असत्य हमारा पैटर्न है,
असत्य हमारा ढांचा है। असत्य में हम जीते हैं, श्वास लेते हैं। असत्य में हम चलते हैं। खोजें कि कहीं आपका सारा जीवन
असत्य पर तो खड़ा हुआ नहीं है?
एक छोटा सा बच्चा समुद्र की रेत पर अपने हस्ताक्षर कर रहा था।
वह बड़ी बारीकी से, बड़ी कुशलता से अपने हस्ताक्षर बना रहा था। एक का उससे कहने लगा, पागल, तू हस्ताक्षर कर भी न पाएगा, हवाएं आएंगी और रेत बिखर जाएगी। व्यर्थ मेहनत कर रहा है, समय खो रहा है, दुख को आमंत्रित कर रहा है। क्योंकि
जिसे तू बनाएगा और पाएगा कि बिखर गया, तो दुख आएगा। बनाने
में दुख होगा, फिर मिटने में दुख होगा। लेकिन तू रेत पर बना
रहा है, मिटना सुनिश्चित है। दुख तू बो रहा है। अगर
हस्ताक्षर ही करने हैं तो किसी सख्त, कठोर चट्टान पर कर,
जिसे मिटाया न जा सके।
मैंने सुना है कि वह बच्चा हंसने लगा और उसने कहा, जिसे आप रेत समझ रहे हैं,
कभी वह चट्टान थी; और जिसे आप चट्टान कहते हैं,
कभी वह रेत हो जाएगी।
बच्चे रेत पर हस्ताक्षर करते हैं, बूढ़े चट्टानों पर हस्ताक्षर करते हैं, मंदिरों के पत्थरों पर। लेकिन दोनों रेत पर बना रहे हैं। रेत पर जो बनाया
जा रहा है वह झूठ है, वह असत्य है। हम सारा जीवन ही रेत पर
बनाते हैं। हम सारी नावें ही कागज की बनाते हैं। और बड़े समुद्र में छोड़ते हैं,
सोचते हैं कहीं पहुंच जाएंगे। नावें ड़बती हैं, साथ हम ड़बते हैं। रेत के भवन गिरते हैं, साथ हम
गिरते हैं। असत्य रोज—रोज हमें रोज—रोज
पीड़ा देता और हम रोज—रोज असत्य की पीड़ा से बचने को और बड़े
असत्य खोज लेते हैं। तब जीवन सरल कैसे हो सकता है? असत्य को पहचानें
कि मेरे जीवन का ढांचा कहीं असत्य तो नहीं है? और हम इतने
होशियार हैं कि हमने छोटी—मोटी चीजों में असत्य पर खड़ा किया
हो अपने को, ऐसा ही नहीं है, हमने अपने
धर्म तक को असत्य पर खड़ा कर रखा है।
जीवन रहस्य
ओशो