आदमी बहुत कमजोर है और बहुत तरह की तकलीफों में है। उसकी
तकलीफें बिलकुल सांसारिक हैं। अभी एक,
और सामान्य आदमी ही नहीं—सुशिक्षित, जिनको हम विशेष कहें वे भी...। अभी एक चार—छह दिन
पहले कलकत्ते से एक डाक्टर का पत्र मुझे आया। वह डाक्टर है। तबादला करवाना है,
कलकत्ते से बनारस। पत्नी—बच्चे बनारस में हैं।
तो मुझे लिखता है कि मैं सब तरह की पूजा—पाठ करवा चुका हूं।
साधु—संतों के सब तरह के दर्शन कर चुका हूं सैकडों रुपए भी
खर्च कर चुका इस पर, लेकिन अभी तक मेरा तबादला नहीं हो पाया।
तब आखिरी आपकी शरण आता हूं। तबादला करवा दें, नहीं तो मेरा
भगवान से भरोसा ही उठ जाएगा।
इधर मैं देखता हूं सौ मैं नित्यानबे आदमियों की तकलीफें ऐसी
हैं। और जितना गरीब मुल्क होगा,
उतनी ही तकलीफें ज्यादा होंगी। किसी को नौकरी नहीं, किसी को बच्चा नहीं, किसी को बीमारी है, किसी को कोई तकलीफ है। हजार तरह की तकलीफें हैं! यह जो तकलीफों से भरा हुआ
आदमी है, यह चमत्कार की तलाश करता है। अगर कोई चमत्कार कर
रहा है, तो इसे एक आशा बनती है। और तो सब आशा छूट गई। और यह
सब उपाय कर चुका है, कुछ होता दिखाई इसे पडता नहीं। लेकिन
अगर यह देख ले कि कोई आदमी हवा में से भभूत दे रहा है, तो
फिर इसे भरोसा आता है कि अभी भी कुछ आशा है। मुझे भी लडका मिल सकता है। जब हवा से
भभूत आ सकती है। तो साधु के चमत्कार से बच्चा भी आ सकता है। और अगर हाथ से सोना आ
जाता है और घडियां आ जाती हैं, तो फिर क्या दिक्कत कि मेरा
तबादला न हो और मुझे नौकरी न मिल जाए!
गरीब समाज है,
दुखी—पीडित समाज है और जब तक लोग दुखी हैं,
तब तक कोई न कोई चमत्कार से शोषण करेगा। सिर्फ ठीक संपन्न समाज हो,
तो चमत्कार का असर कम हो जाएगा। जितनी तकलीफें होंगी, उतना चमत्कार का परिणाम होगा। फिर चमत्कार क्या है? एक
तरफ तो ये दुखी—पीडित लोग हैं, जिनका
शोषण किया जा सकता है आसानी से। ये हाथ फैलाए खड़े हैं कि इनका शोषण करो! और इनका
शोषण एक ही तरह से किया जा सकता है कि इनकी वासनाओं की तृप्ति की कोई आशा बंधे। तो
वह आशा कैसे बंधे!
अगर कोई बुद्ध,
महावीर हो, तो वह तो आशा बंधाता नहीं। वह तो
उल्टे इस आदमी को कहता है कि तुम्हारे दुखों का कारण तुम्हीं हो। तो तुम दुख के
बाहर कैसे जाओगे, उसका मैं रास्ता बता सकता हूं। लेकिन जिन
कारणों से तुम दुखी हो, उनकी पूर्ति करने का मेरे पास कोई
उपाय नहीं है। लेकिन बुद्ध, महावीर के प्रति ये आदमी आकर्षित
नहीं होंगे। इनकी वासना ही वह नहीं है अभी। एक आदमी ताबीज निकाल देगा, उसके प्रति आकर्षित होंगे, क्योंकि वासना के लिए
रास्ता मिलता है। और ताबीज निकालना ऐसा काम है कि सड़क पर मदारी कर रहा है उसको।
जिसको हम दो पैसा देने को भी राजी नहीं हैं! और वही मदारी कल साधु बनकर खड़ा हो जाए,
तो फिर हम उसके चरणों में सिर रखने को और सब कुछ करने को राजी हैं!
तो गरीबी है,
दुख है, और मूढ़ता है। और मूढ़ता यह है कि साधु
कर रहा है तो चमत्कार और गैर—साधु कर रहा है तो मदारी। और जो
वे कर रहे हैं, वह बिलकुल एक चीज है। इसमें जरा भी फर्क नहीं
है। बल्कि मदारी ईमानदार है और यह साधु बेईमान है। क्योंकि मदारी बेचारा कह रहा है
कि यह खेल है, यही उसकी भूल है। मूढों के बीच इतना साफ होना
ठीक नहीं। इतना सच होना, यही उसकी गलती है। कह रहा है : यह
खेल है, इसमें हाथ की तरकीब है, ताकि
आप भी चाहें तो सीख सकते हैं और कर सकते हैं। बात खत्म हो गई। तो फिर कोई रस नहीं
उसमें। हमें खुद में तो कोई रस है ही नहीं। जो हम ही कर सकते हैं, उसमें कोई बात ही न रह गई।
यह मदारी बताने को तैयार है कि कैसे हो रहा है। इस मदारी की
परीक्षा ली जाए इसके लिए तैयार है। वह आपका साधु न तो परीक्षा के लिए तैयार है, न किसी तरह की वैज्ञानिक
शोध के लिए राजी है। लेकिन फिर कारण क्या है कि हम उसको इतना मूल्य देते हैं,
मदारी को नहीं देते? क्योंकि मदारी से हमारी
वासना की कोई पूर्ति की आशा नहीं बनती। ठीक है, हाथ का खेल
है, बात खतम हो गई। अगर मैं हाथ के ही खेल से ताबीज निकाल
रहा हूं तो बात खतम हो गई। ठीक है अब मुझसे क्या आपको मिलेगा और! कोई हाथ के खेल
से बच्चा तो पैदा नहीं हो सकता; न नौकरी मिल सकती है;
न धन आ सकता है : न मुकदमा जीता जा सकता है; कुछ
नहीं हो सकता। न आपकी बीमारी दूर हो सकती है। हाथ का खेल तो हाथ का खेल है। ठीक
है। मनोरंजन है। बात खत्म हो गई।
जब मैं यह दावा करता हूं कि हाथ का खेल नहीं है, यह चमत्कार है, दिव्य शक्ति है, तब आपकी आशा बंधती है। फिर आपकी आशा
का शोषण होता है। तो मैं मानता हूं कि जो भी साधु चमत्कार करते हैं, उनसे ज्यादा असाधु लोग खोजना कठिन हैं। क्योंकि असाधुता और क्या होगी इससे,
कि लोगों का शोषण हो। और उनकी मूढ़ता का लाभ और धोखा...! एक भी
चमत्कार ऐसा नहीं है जो मदारी नहीं करते। पर अंधेपन की सीमाएं नहीं हैं!
सच तो यह है कि मदारी जो करते हैं वह आपके कोई साधु नहीं कर
सकते। और जो आपके साधु करते हैं,
वह दो कौड़ी का कोई भी मदारी करता है। और जो मदारी करते हैं, वह आपका कोई साधु नहीं कर सकता। फिर भी, इसके पीछे
कोई कारण है, यह मैं समझा भी दूर तो मैं यह मानता नहीं कि
मेरे समझाने से कोई चमत्कार में आस्था रखने वाले में कोई फर्क पड़ने वाला है। कोई
फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि यह समझाने का सवाल ही नहीं है। उसकी जो वासना है,
वह तकलीफ दे रही है। उसके भीतर जो वासनाएं हैं, उसका प्रश्न है, कि वह कैसे हल हो।
अब यह जो आदमी है डाक्टर,
जिसने मुझे लिखा, इसको मैं कितना ही समझाऊं,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्योंकि समझाने में कोई तबादला तो
होगा ही नहीं। समझाने का एक ही परिणाम होगा कि यह मुझे हाथ जोड़कर किसी और की तलाश
करे। कोई उपाय नहीं होने वाला है। क्योंकि इस आदमी को कुछ मालूम नहीं है। बात खत्म
हो गई। इतना ही इसका परिणाम होगा और कोई परिणाम होने वाला नहीं। ये किसी और की
तलाश करेंगे। वे चमत्कार के तलाशी हैं। और हमारे मुल्क में ज्यादा होंगे, क्योंकि बहुत दुखी मुल्क है। बहुत पीडित मुल्क है, अति
कष्ट में है। इतने कष्ट में यह शोषण आसान है।
मगर मेरा मानना ऐसा है कि धर्म से चमत्कार का कोई लेना—देना नहीं है। क्योंकि धर्म
का वस्तुत: आपकी वासना से कोई लेना—देना नहीं। धर्म तो इस
बात की खोज है कि वह घड़ी कैसे आए, जब सब वासनाएं शांत हो
जायें। कैसे वह क्षण आए, जब मेरे भीतर कोई चाह न रह जाए।
क्योंकि तभी मैं शांत हो पाऊंगा। जब तक चाह है, तब तक अशांति
रहेगी। चाह ही अशांति है।
तो धर्म की पूरी चेष्टा यह है कि कैसे आपके भीतर वह भाव बन जाए, जहां कोई चाह नहीं है,
कोई मांग नहीं है। उस घड़ी ही अनुभव होगा जीवन की परम धन्यता का। तो
चमत्कार से क्या लेना—देना है! धर्म का कोई लेना—देना चमत्कार से नहीं है। और सब चमत्कार मदारी के लिए हैं। जो नासमझ मदारी
हैं, वे बेचारे सड्कों पर करते हैं। जो समझदार हैं, चालाक हैं, होशियार हैं, बेईमान
हैं, वे साधु के वेश में कर रहे हैं। और इनको तोड़। भी नहीं
जा सकता, वह भी मैं समझता हूं। इनके खिलाफ कुछ भी कहो,
उससे कोई परिणाम नहीं होता। परिणाम उस आदमी पर हो सकता है, जो वासना के पीछे न हो; ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है।
एक स्त्री मेरे पास आई। उसको बच्चा चाहिए। और उसको मैं समझा रहा
हूं कि सब चमत्कार मदारीगिरी है?
वह उदास हो गई बिलकुल। वह बोली कि सब मदारीगिरी है? उसको दुख हो रहा है मेरी बात सुनकर। मुझे खुद ही ऐसा अनुभव होने लगा कि
मैं पाप कर रहा हूं जो उसको मैं समझा रहा हूं। हो बच्चा, न
हो बच्चा, होने की आशा में तो वह इतनी दौड— धूप कर रही है। तो मैंने कहा, 'तू मेरी बात की फिक्र
मत कर, और तू वैसे भी नहीं करेगी। तू जा, और खोज कोई न कोई, पता नहीं कोई कर सके चमत्कार!'
उसकी आंखों में ज्योति वापस लौट आई। उसने कहा, 'तो आप कहते हैं कि शायद कोई कर सके। '
ये हमारे विश फुलफिलमेंट हैं। भीतर हमारी इच्छा है कि ऐसा हो।
चमत्कार होने चाहिए, ऐसा हम चाहते हैं। इसलिए फिर कोई तैयार होकर बता देता है कि देखो, ये हो रहे हैं। और हम चाहते हैं कि वह इच्छा पूरी हो।
और उन चमत्कारियों से कोई भी नहीं कहता, जब तुम राख ही निकालते हो,
तो क्यों राख निकालते हो! कुछ और काम की चीजें निकालो, ताकि इस मुल्क में कुछ काम आये! क्या तुम ताबीज निकाल रहे हो! निकाल ही
रहे हो और चमत्कार ही दिखा रहे हो, तो फिर इस मुल्क में कुछ
और, बहुत चीजों की जरूरत है। और इससे क्या फर्क पडता है। जब
राख निकल सकती है, ताबीज निकल सकती है, घड़ी निकल सकती है, तो जब एक तरकीब तुम्हारे हाथ आ
गई—तब कुछ भी निकल सकता है।
अगर एक बूंद पानी को हम भाप बना सकते हैं, फिर हम पूरे सागर को भाप
बना सकते हैं, नियम की बात है। जब नियम मेरे हाथ में आ गया
कि शून्य से राख बन जाती है, तब क्या दिक्कत है, कोई दिक्कत नहीं ये चमत्कार दिखाने वाले इस मुल्क में दिखा रहे हैं हजारों
साल से चमत्कार। और यह मुल्क रोज बीमारियों, गरीबी और दुख
में ढकता जाता है और मरता जाता है—और ये दिखाते चले जाते
हैं। इनके चमत्कार की वजह से गरीबी नहीं मिटती। मेरा मानना है, गरीबी की वजह से इनके चमत्कार चलते हैं।
चल हंसा उस देश
ओशो