शिखर जब तक है, तब तक घाटियां भी होंगी।
शिखर की आकांक्षा जब तक है, तब तक घाटियों का विषाद भी झेलना
होगा। सुख को जिसने मांगा, उसने दुख को भी साथ में ही मांग
लिया। और सुख जब आया तो उसकी छाया की तरह दुख भी भीतर आ गया।
हम सुख के नाम तो बदल लेते हैं, लेकिन सुख से हमारी मुक्ति नहीं हो पाती। और जो
सुख से मुक्त नहीं, वह दुख से मुक्त नहीं होगा। अष्टावक्र की
पूरी उपदेशना एक ही बात की है. द्वंद्व से मुक्त हो जाओ।
जो निर्द्वंद्व हुआ, वही पहुंचा। जिस शिखर को
तुम सोचते हो पहुंच गये, वह पहुंचने की भ्रांति है। क्योंकि
पहुंचने का कोई शिखर नहीं होता। पहुंचना तो बड़ी समभूमि है। न ऊंचाई है वहा,
न नीचाई है वहा। पहुंचना तो ऐसे ही है जैसे तराजू तुल गया। दोनों
पलड़े ठीक समतुल हो गये। बीच का काटा ठहर गया। या जैसे घड़ी का पेंडुलम बाएं गया,
दाएं गया, तो चलता रहेगा। लेकिन बीच में रुक
गया, न बाएं, न दाएं, ठीक मध्य में, तो घड़ी रुक गयी।
जहां न सुख है,
न दुख, दोनों के बीच में ठहर गये, वहीं छुटकारा है, वहीं मुक्ति है। अन्यथा मन नये—नये खेल रच लेता है। धन पाना, ध्यान पाना, संसार में सफलता पानी, कि धर्म में सफलता पानी।
लेकिन जब तक सफलता का मन है और जब तक सुख की खोज है तब तक तुम दुख पाते ही रहोगे।
क्योंकि हर दिन में रात सम्मिलित है। और फूलों के साथ काटे उग आते हैं। फूल काटो
से अलग नहीं और रात दिन से अलग नहीं।
छोड़ना हो तो दोनों छोड़ना। एक को तुम न छोड़ पाओगे। एक को हम सब
छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी सब की चेष्टा यही है कि रात समाप्त हो जाए, दिन ही दिन हो। ऐसा नहीं
होगा। संसार द्वंद्व से बना है। ही, अगर तुम द्वंद्व के बाहर
सरक जाओ, अतिक्रमण हो जाए, तुम दोनों
के साक्षी हो जाओ। अब समझो फर्क।
तुम कहते हो,
'कभी—कभी शिखर पर होता हूं।’
जब तुम शिखर पर होते हो,
कुछ शांति मिलती है, कुछ आनंद मिलता, कुछ पुलक समाती, कुछ उत्सव होता भीतर, तब तुम उस उत्सव के साथ तादात्म्य कर लेते हो। तब तुम सोचते हो, मैं उत्सव। तब तुम सोचते हो,
मैं आनंद। बस वहीं चूक हो गयी। साक्षी बने रही। होने दो शिखर,
उठने दो शिखर, गौरीशंकर बनने दो, उड़ा ऊंचाई आ जाए, लेकिन तुम देखते रहो दूर खड़े,
जुड़ मत जाओ, यह मत कहो कि मैं आनंद। इतना ही
कहो, आनंद को देख रहा हूं, आनंद हो रहा
है, मैं देखनेवाला, मैं आनंद नहीं। फिर
थोड़ी देर में तुम पाओगे कि शिखर गया और घाटी आयी। दिन गया, रात
आयी। तब भी जानते रहो कि मैं विषाद नहीं। देखता हूं विषाद है, दुख है, पीड़ा है, मैं दूर खड़ा
द्रष्टामात्र। सुख को भी देखो, दुख को भी देखो। जब तुम
देखनेवाले हो जाओगे तो कैसा शिखर, कैसी घाटी! फिर कैसी विजय
और कैसी हार!
अष्टावक्र महागीता
ओशो