नरेश सिंह! यह अधिकतर लोगों की मनोदशा है, तुम्हारी कुछ विशिष्ट बात नहीं। अधिकतर लोग ऐसे ही जीते हैं--औरों से भयभीत, कि कोई दूसरा हमारे संबंध में बुरा न सोच ले। तुम जिनसे डर रहे हो वे तुमसे डर रहे हैं। यह बहुत अचंभे की दुनिया है। तुम उनसे भयभीत हो, वे तुमसे भयभीत हैं। भय के कारण तुम उनके अनुसार चल रहे हो, भय के कारण वे तुम्हारे अनुसार चल रहे हैं। न तुम जी रहे हो स्वभावतः, न वे जी रहे हैं स्वभावतः न तुम अपने को जीने की स्वतंत्रता दे रहे हो, न उनको जीने की स्वतंत्रता दे रहे हो।
और स्वभावतः जब तुम दूसरों से भयभीत रहोगे तो तुम दूसरों को भयभीत करोगे भी, क्योंकि तुम बदला चुकाओगे। तुम बदला लोगे। तुम्हारे भीतर प्रतिशोध की अग्नि जलेगी। तुम कहते हो नरेश सिंह कि मैं एक बात से सदा भयभीत रहता हूं कि लोग कहीं मेरे संबंध में कुछ बुरा न सोच लें! क्यों भयभीत हो? बुरा ही सोच लेंगे तो क्या हर्जा हो जाएगा? और यूं भी क्या तुम सोचते हो कि भला सोचते होंगे? लोग एक-दूसरे की पीठ के पीछे जो कहते हैं, अगर मुंह के सामने कहें तो दुनिया में दो दोस्त भी न बचें।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सारे लोग चैबीस घंटे सत्य-सत्य बातें कह दें, जो एक दूसरे के संबंध में सोचते हैं, बिलकुल सत्य सत्य कह दें, निपट, बिना लाग-लगाव के, बिना मिलावट के--तो दुनिया में एक दोस्ती भी न बचे; सारी दोस्तियां खत्म हो जाएं, सारे पति-पत्नी तलाक दे दें। अगर पति सच्चा-सच्चा कह दे पत्नी से, अगर पत्नी सच्ची-सच्ची बात कहे दे पति से, अगर बच्चे मां-बाप से सच्ची-सच्ची बात कह दें और मां-बाप बच्चों से सच्ची-सच्ची बात कह दें। तो सारे परिवार टूट जाएं। मगर कोई किसी से सच्ची बात कहता नहीं।
फ्रेड्रिक नीत्शे कहता थाः मत लोगों को सत्य की बातें कहो, अन्यथा उनकी जिंदगी टूट जाएगी। उनको झूठ में जीने दो। वे झूठ में ही रगे-पगे हैं। झूठ ही उनका आसरा है, झूठ ही उनका सहारा है। झूठ ही उनकी जिंदगी है। झूठ को मत छीनो उनसे, अन्यथा वे मर जाएंगे।
वह बात ठीक ही कह रहा था एक अर्थों में। झूठ को छीनना बड़ा कठिन पड़ जाता है लोगों को। वही तो उनका प्राण बन गया है।
तुम्हें क्या भय है? और लोग कोई तुम सोचते हो कि तुम्हारे संबंध में पीछे अच्छी बातें सोचते होंगे? जैसे वे दूसरों की तुमसे बुराई करते हैं, दूसरों से तुम्हारी बुराई करते होंगे। तुम जैसे दूसरों से उनकी बुराई करते हो...निंदा में कितना रस जगह-जगह लोग लेते हैं! पता नहीं जिन्होंने रसों का वर्णन किया है, उन्होंने निंदा-रस को क्यों नहीं गिना है! बाकी सब रस तो फीके मालूम पड़ते हैं। बाकी सब रसों में तो कभी कोई कविता वगैरह करता है। वीर-रस इत्यादि में कोई कभी कविता वगैरह करता है। मगर निंदा-रस में तो प्रत्येक व्यक्ति निपुण है। आदमी ही खोजना मुश्किल है जो निंदा न करता हो।
मगर तुम्हें भय क्यों लगता है? तुम अपने भीतर इस बात का निरीक्षण करो। भय लगने का एक ही कारण हो सकता हैः तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। तुम लोगों की ही मान्यताओं पर अपना परिचय बनाए हुए हो। लोग जैसा कहते हैं, वही तुम मानते हो। लोग कहते हैं सुंदर, तो तुम सुंदर मानते हो। लोग कहते हैं बुद्धिमान, तो तुम अपने को बुद्धिमान मानते हो। इससे डर लगता है। लोगों की ही मान्यताओं पर तो तुम्हारा सारा अस्तित्व खड़ा है। अगर उन्होंने खींच ली एक-एक ईंट अपनी मान्यता की, अगर उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि तुम सुंदर नहीं हो, तो फिर क्या होगा? तुम्हें तो अपने सौंदर्य का कोई पता नहीं है।
सुमिरन मेरा हरि करे
ओशो
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