कोई पच्चीस सौ वर्ष पहले एक छोटे से गांव में एक सुदास नाम का
व्यक्ति था, बहुत गरीब, उसकी एक छोटी
सी तलई थी, उसमें कमल का एक फूल बेमौसम खिल गया था। उसे बहुत
खुशी हुई। उसने पांच रूपये निकाल कर उस सुदास को देने चाहे, सुदास
हैरान हुआ, पांच रूपये कोई देगा इस फूल के, लेकिन इसके पहले कि वह रूपये लेता, पीछे से नगर का
जो सबसे बड़ा धनपति था, उसका रथ आकर रुका। उसने कहा सुदास ठहर
जा, बेच मत देना। पांच रूपये देगा वह सेनापति, तो मैं पांच सौ रूपये दूंगा। सुदास तो बहुत हैरान हो गया, यह बात तो सपने जैसी हो गई कि एक फूल के कोई पांच सौ रूपये देगा। सुदास
बढ़ा उस धनपति की ओर अपने फूल को लेकर, लेकिन तभी पीछे धूल
उड़ाता राजा का स्वर्ण रथ भी आ गया। और उसने कहा, सुदास ठहर
जा, धनपति जो देता होगा, उससे दस गुना
मैं तुझे दूंगा। सुदास की समझ के बाहर थी यह बात, इतनी
धनराशि कोई एक फूल के लिए देगा!
राजा के स्वर्ण रथ की तरफ वह बढ़ा, रुपये लेने को नहीं, बल्कि राजा से यह पूछने को कि इस एक फूल के इतने दाम देने की क्या जरूरत आ पड़ी है? और सारा नगर ही क्या फूल को खरीदने को उत्सुक हो आया है? राजा ने कहा शायद तुझे पता नहीं, नगर में बुद्ध का आगमन हुआ है, हम उनके स्वागत को जाते हैं। और धन्य होगा वह व्यक्ति, जो इस फूल को उनके चरणों में चढ़ाएगा। फूल मुझे दे दे और धन थोड़ी ही देर में तेरे घर पहुंच जाएगा।
सूदास ने कहाः क्षमा करें, यह फूल अब मैं बेचूंगा नहीं। मैं भी उसी तरफ चलता हूं, जिस तरफ आप सब जाते हैं। राजा हैरान हो आया। कल्पना न थी कि गरीब व्यक्ति भी, इतने बड़े मोह को छोड़ सकेगा। सुदास ने फूल बेचने से इनकार कर दिया। राजा का रथ तो पहले ही बुद्ध के पास पहुंच गया, सुदास बाद में पैदल पहुंचा। बुद्ध के चरणों पर उसने उस फूल को रखा, बुद्ध को खबर हो गई कि राजा ने कहा था, हजारों स्वर्णमुद्राओं को ठुकरा कर एक दीन-हीन चमार ने आज मुझे चकित कर दिया है। बुद्ध ने कहा सुदास को, पागल है तू, पीड़ियों तक के लिए तेरी जीवन की चिंता, आजीविक की चिंता समाप्त हो जाती। फूल बेच क्यों न दिया? सुदास ने कहा, जो आनंद उस धन से मुझे मिलता, आपके चरणों में फूल को रख कर उससे बहुत अनंत गुना आनंद मुझे मिल गया है।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहा, भिक्षुओं ये दीन-हीन मनुष्य
नहीं है, ये बहुत सुसंस्कृत और सुशिक्षित व्यक्ति है।
सुसंस्कृत और सुशिक्षित कहा उस सुदास को, जो न पढ़ा था,
न लिखा था, दीन-हीन था। जूते सीकर ही जीवन
जिसने यापन किया था। किसी विद्यालय मंे कोई प्रवेश नहीं पाया था, किसी गुरु के पास बैठ कर कोई शिक्षा न पाई थी। लेकिन बुद्ध ने कहा,
सुशिक्षित है, सुसंस्कृत है, ये दीन-हीन चमार। और भिक्षुओं इससे शिक्षा लो, उनके
एक भिक्षु ने पूछा, किन अर्थों में इसे सुशिक्षित कहते हैं?
बुद्ध ने कहा इसमें ऊंचे मूल्यों को देखने की क्षमता है। हाइयर
वैल्यूज जिन्हें हम कहें, जीवन के ऊंचे मूल्यों को देखने की
इसमें क्षमता है।
शिक्षा का और कोई अर्थ ही नहीं है। जीवन में उच्चतर मूल्यों का
दर्शन हो सके, तो ही मनुष्य शिक्षित है। पैसे का दर्शन तो
सुदास को भी हो सकता था, लेकिन नहीं पैसे की जगह प्रेम को
उसने वरन किया। धन तो उसे भी दिखाई पड़ सकता था, एक फूल के
लिए उसे जो धन मिलने को था, वह बहुत था। लेकिन नहीं उसने धन
को ठुकराया। और धर्म को वरन कि या। उसने साहस किया क्षुद्र को छोड़ देने का,
और विराट के प्रति समर्पण का। शिक्षित मनुष्य का और कोई अर्थ नहीं
होता।
शिक्षित चित्त का अर्थ है, जो क्षुद्र को विराट के लिए छोड़ सके। और अशिक्षित का अर्थ है, जो क्षुद्र को पकड़े रहे और विराट को छोड़ दे। लेकिन इन अर्थों में क्या हम आज की शिक्षा को शिक्षा कह सकेंगे? शायद नहीं, कोई कारण नहीं है इस अर्थ में शिक्षा को शिक्षा कहने का। क्योंकि सारे जगत में जो मूल्य शिक्षा से हमें उपलब्ध हो रहे हैं, जो मूल्य हमें प्रेम को छोड़ने को कहते हैं, पकड़ने को नहीं; वे हमें धर्म को छोड़ने को कहते हैं, धन को पकड़ लेने को; वे जीवन में जो कुछ स्थूल और पार्थिव है, जो अत्यंत शुभ है, उसके ही इर्द, उसकी हत्या के लिए हमें तैयार करते हैं। जो जीवन का विराट है, जीवन में चिन्मय है, जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वो क्षुद्र सी वेदी के सामने...किया जाता हो, तो नहीं किया जा सकता; जिसे हम शिक्षा समझ बैठे हैं, वह शिक्षा है। होगी आजीविका को उत्पन्न कर लेने की विधि, लिविंग उससे आ जाती होगी, लाइव, आजीविका मिल जाती होगी, लेकिन जीवन, जीवन उससे छिन जाता है।
सम्यक शिक्षा
ओशो
No comments:
Post a Comment