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Monday, April 8, 2019

ध्यान मन की मृत्यु है


मन का एक ही भय हैः वह ध्यान है। ध्यान मन की मृत्यु है। ध्यान का अर्थ हैः अपने आमने-सामने आ जाना। जैसे कोई दर्पण में अपने को देख ले, ऐसा ही कोई मन के बिल्कुल सामने खड़ा हो जाए; इंच भर भी मन को हटने न दे, तो बड़ा चमत्कार घटित होता है। अगर मन बिल्कुल सामने आ जाए, तो तत्क्षण खो जाता है। तुम्हारी आंख काफी है, उसकी मृत्यु के लिए।

तुमने कहानी सुनी है कि कामदेव ने शिव को कामातुर किया। और उन्होंने अपनी तीसरी आंख से कामदेव को देखा और वह भस्म हो गया; तब से वह अनंग है, उसकी कोई देह नहीं है।
  

ध्यान तीसरी आंख है: दि थर्ड आई। और अगर तुम कामवासना को तीसरी आंख से देख लो, ध्यान से देख लो, तो वह राख हो जाती है।

मन क्या है? सारी वासनाओं का जोड़ है। और मन के गहरे में कामवासना है। इसलिए ब्रह्मचर्य पर इतना जोर दिया है। अगर कामवासना चली जाए, तो शेष सारी वासनाएं अपने आप झर जाती हैं। क्योंकि जिसकी कामवासना न हो, उसका लोभ क्या होगा?

जब तक तुम्हारे मन में काम है, तब तक लोभ है। जब तक लोभ है, तब तक क्रोध है। जब तक क्रोध है, तब तक मद-मत्सर हैं। सब जुड़े हैं। लेकिन सबसे गहरी कड़ी काम-वासना की है।

छोटा बच्चा इतना भोला मालूम पड़ता है, क्योंकि वह गहरी कड़ी अभी प्रकट नहीं हुई है; अभी शरीर तैयार नहीं है। अभी चौदह साल लगेंगे, तब शरीर तैयार होगा और कामवासना की पहली कड़ी प्रकट होगी। बस, फिर सारी वासनाएं आस-पास आने लगेंगी। जैसे ही कामवासना मन में आती है, बाकी सारी वासनाएं सहयोग के लिए खड़ी हो जाती हैं।

लोभ का अर्थ है, अगर तुम कामी नहीं हो। अगर तुम कामी नहीं हो, तो तुम क्रोध कैसे करोगे। अगर तुम कामी नहीं हो, तो अहंकार की घोषणा का कोई भी प्रयोजन नहीं है। तब तुम ऐसे जी सकते हो, जैसे तुम हो ही नहीं। और तब तुम्हारे पास कुछ हो या न हो, बराबर अर्थ होगा। तुम सारे संसार को जीत लो हजार-हजार सिंहासन तुम्हारे हों तो, और तुम्हारे पास कुछ भी न हो, सब खो जाए, तो भी तुम्हारी नींद में कोई खलल न पड़ेगी। तुम वैसे ही रहोगे, जैसे सब घटनाएं बाहर-बाहर हैं।

लेकिन अगर काम-वासना भीतर है, तो फर्क पड़ेगा। क्योंकि अगर तुम सिंहासन पर हो, तो तुम सुंदर स्त्रियों को पा सकोगे। अगर सिंहासन गया, तो वह सौंदर्य का सारा राज्य गया। तुम अगर धन वाले हो, तो तुम वासना को खरीद सकते हो। अगर तुम निर्धन हो, तो तुम क्या खरीदोगे? गरीब की क्या क्षमता है खरीद लेने की? तो आदमी धन इकट्ठा करता है, वह भी काम के लिए ही है।

फिर अगर कोई तुम्हारी वासना में बाधा डाले, तो क्रोध आता है। इसलिए हम कहते हैं कि संत अक्रोधी होगा; क्योंकि उसकी कोई वासना नहीं है। तुम बाधा किस बात में डालोगे? वह कुछ मांगता नहीं है। तुम रुकावट क्या खड़ी करोगे? अक्रोध स्वाभाविक हो जाएगा।

काम केंद्र हैसारी वासना का। मन वासना का फैलाव है।

सहज समाधि भली 

ओशो

नारीवाद


यह ध्यान रहे कि पुरुष के लिए प्रेम 24 घंटे में आधी घड़ी, घड़ी भर की बात है। उसके लिए और बहुत काम हैं। प्रेम भी एक काम है। प्रेम से भी निपटकर दूसरे कामों में वह लग जाता है। स्‍त्री के लिए प्रेम ही एकमात्र काम है। और सारे काम उसी प्रेम से निकलते हैं और पैदा होते हैं।

तो अगर पुरुष को विधुर रखा जाये तो उतना टार्चर नहीं है, जितना स्‍त्री को विधवा रखना अत्याचार है। उसे 24 घंटे प्रेम की जंजीर है। प्रेम गयाउस जंजीर के सिवाय कुछ नहीं रह गया। और दूसरे प्रेम की संभावना समाज छोड़ता नहीं। लेकिन हजारों साल तक हम उसे जलाते रहे और कभी किसी ने न सोचा!

अगर कोई पूछता था कि स्रियों को क्यों जलना चाहिए आग में? तो पुरुष कहते, उसका प्रेम है, वही जी नहीं सकती पुरुष के बिना। लेकिन किसी पुरुष को प्रेम नहीं था इस मुल्क में कि वह किसी स्‍त्री के लिए सती हो जाते? वह सवाल ही नहीं है। वह सवाल ही नहीं उठाना चाहिए। क्योंकि सारे धर्मग्रंथ पुरुष लिखते हैं, अपने हिसाब से लिखते हैं, अपने स्वार्थ से लिखते हैं। स्त्रियों का लिखा हुआ न ग्रंथ है, न स्त्रियों का मनु है, न स्रियों का याज्ञवल्ल है! स्त्रियों का कोई स्मृतिकार नहीं, स्रियों का कोई धर्मग्रंथ नहीं! स्रियों का कोई सूत्र नहीं! उनकी कोई आवाज नहीं! पूरब की स्‍त्री तो एक गुलाम छाया है, जो पति के आगे पीछे घूमती रहती है।

पश्चिम की स्‍त्री ने विद्रोह किया है। और मैं कहता हूं कि अगर छाया की तरह रहना है तो उससे बेहतर है वह विद्रोह। लेकिन वह विद्रोह बिलकुल गलत रास्ते पर चला गया। वह गलत रास्ता यह है कि पश्‍चिम की स्‍त्री ने विद्रोह का मतलब यह लिया है कि ठीक पुरुष जैसी वह भी खड़ी हो जाये! पुरुष जैसी वह हो जाये!

पश्‍चिम की स्‍त्री पुरुष होने की दौड़ में पड़ गयी। वह पुरुष जैसे वस्त्र पहनेगी, पुरुष जैसा बाल कटायेगी, पुरुष जैसा सिगरेट पीना चाहेगी, पुरुष जैसा सड्कों पर चलना चाहेगी, पुरुष जैसा अभद्र शब्दों का उपयोग करना चाहेगी। वह पुरुष के मुकाबले खड़ा हो जाना चाहती है।

एक लिहाज से फिर भी अच्छी बात है। कम से कम बगावत तो है। कम से कम हजारों साल की गुलामी को तोड़ने का तो खयाल है। लेकिन गुलामी ही नहीं तोड़नी है। क्योंकि गुलामी तोड़कर भी कोई कुएं में से खाई में गिर सकता है।

पश्‍चिम की स्‍त्री इसी हालत में खड़ी हो गई। वह जितना अपने को पुरुष जैसा बनाती जा रही है, उतना ही उसका व्यक्तित्व फिर खोता चला जा रहा है। भारत में वह छाया बनकर खतम हो गई। पश्चिम में वह नंबर 2 का पुरुष बनकर खतम होती जा रही है। उनका अपना व्यक्तित्व वहां भी नहीं रह जायेगा!

सम्भोग से समाधि की ओर 

ओशो

 

Wednesday, April 3, 2019

बुद्धत्‍व का क्‍या अर्थ है?



बुद्धत्‍व का अर्थ तो साधासाधा है। बुद्धत्व का अर्थ होता है, जागा हुआ चित्त। बुद्धत्व का अर्थ होता है, होश। बुद्धत्व का अर्थ होता है, जो उठ खड़ा हुआ। जो अब सोया नहीं है, जिसकी मूर्च्छा टूट गयी।
जैसे एक आदमी शराब पीकर रात गिर गया हो रास्ते पर और नाली में पड़ा रहा हो और रातभर वहीं सपने देखता रहा हो, और सुबह आंख खुले और उठकर खड़ा हो जाए और घर की तरफ चलने लगे। ऐसा अर्थ है बुद्धत्व का। जन्मोंजन्मों से हम न मालूम कितनी तरह की शराबें पीकरधन की, पद की, प्रतिष्ठा की, अहंकार कीपड़े हैं मूर्च्छित। गंदी नालियों में पड़े हैं। सपने देख .रहे हैं। जिस दिन हम जाग जाते हैं, उठकर खड़े हो जोते हैं, याद आती है कि हम कहा पड़े है और हम घर की तरफ चलने लगते हैंबुद्धत्व। बुद्धत्व का अर्थ है, जो जागा, जो उठा, जो अपने घर की तरफ चला।

बुद्धत्व का गौतम बुद्ध से कुछ लेनादेना नहीं है, वह उनका नाम नहीं है। जीसस उतने ही बुद्ध हैं, जितने बुद्ध। मोहम्मद उतने ही बुद्ध हैं, जितने बुद्ध। कबीर और नानक उतने ही बुद्ध हैं, जितने बुद्ध। मीरा, सहजो और दया उतनी ही बुद्ध हैं जितने कि बुद्ध। बुद्धत्व का कोई संबंध किसी व्यक्ति से नहीं है, यह तो चैतन्य की प्रकाशमान दशा का नाम है।

इस छोटी सी कहानी को समझो

एक बार ब्राह्मण द्रोण भगवान बुद्ध के पास आया और उसने तथागत से पूछा, क्या आप देव हैं? भगवान ने कहा, नहीं, मैं देव नहीं। तो उसने पूछा, क्या आप गंधर्व हैं? तो भगवान ने कहा, नहीं, गंधर्व मैं नहीं। तो उसने पूछा, आप यक्ष हैं? तो भगवान ने कहा, नहीं, न ही मैं यक्ष ही हूं। तब क्या आप आदमी ही हैं? और बुद्ध ने कहा, नहीं, मैं मनुष्य भी नहीं हूं। ब्राह्मण तो हैरान हुआ। उसने पूछा, गुस्ताखी माफ हो, तो क्या आप पशपक्षी हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं। तो उसने कहा, आप मुझे मजबूर किए दे रहे हैं यह पूछने को  तो क्या आप पत्थरपहाड़ हैं? पौधावनएकति हैं? बुद्ध ने कहा, नहीं। तो उसने कहा, फिर आप ही बतलाए, आप कौन हैं? क्या हैं?

उत्तर में तथागत ने कहा, वे वासनाएं, वे इच्छाएं, वे दुष्कर्म, वे सत्कर्म जिनका अस्तित्व मुझे देव, गंधर्व, यक्ष, आदमी, वनएकति या पत्थर बना सकता था, समाप्त हो गयी हैं। वे वासनाएं तिरोहित हो गयी हैं, जिनके कारण मैं किसी रूप में ढलता था, किसी आकार में जकड़ जाता था। इसलिए ब्राह्मण, जानो कि मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूं मैं जाग गया हूं मैं बुद्ध हूं।

वे सब सोए होने की अवस्थाएं थीं। कोई सोया है वनएकति की तरहदेखते हैँ, ये जो अशोक के वृक्ष खड़े हैं, ये अशोक के वृक्ष की तरह सोए हैं। बस इतना ही फर्क है तुममें और इनमें, तुम आदमी की तरह सोए हो, ये अशोक के वृक्षों की तरह सोए हैं। कोई पहाड़पत्थर की तरह सोया है। कोई स्त्री की तरह सोया है, कोई पुरुष की तरह सोया है। ये सब सोने की ही दशाएं हैं। सब दशाएं सोने की दशाएं हैं। सब स्थितियां निद्रा की स्थितियां हैं। बुद्धत्व कोई स्थिति नहीं है, सारी स्थितियों से जाग जाने का नाम है। जो जाग गया और जिसने जान लिया कि मैं अरूप, निराकार, जिसने जान लिया कि न मेरा कोई रूप, न मेरा कोई आकार, न मेरी कोई देह।

बुद्ध ने ठीक ही कहा कि न मैं देव हूं न मैं गंधर्व हूं न मैं यक्ष हूं न मैं मनुष्य हूं न मैं पशु, न मैं पौधा, न मैं पत्थरमैं बुद्ध हूं।

बुद्धत्व सबकी संभावना है, क्योंकि जो सोया है, वह जाग सकता है। सोने में ही यह बात छिपी है। तुम सोए हो, इसमें ही यह संभावना छिपी है कि तुम चाहो तो जाग भी सकते हो। जो सो सकता है, वह जाग क्यों नहीं सकता? जरा प्रयास की जरूरत होगी। जरा चेष्टा करनी होगी।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो

चिंता का अर्थ क्या है?

चिंता का अर्थ ही यह है कि बोझ मुझ पर है। पूरा कर पाऊंगा? नहीं; तुम साक्षी हो जाओ।

कृष्ण ने गीता में यही बात अर्जुन से कही है कि तू कर्ता मत हो। तू निमित्त-मात्र है; वही करने वाला है। जिसे उसे मारना है, मार लेगा। जिसे नहीं मारना है, नहीं मारेगा। तू बीच में मत आ। तू साक्षी भाव से जो आज्ञा दे, उसे पूरी कर दे।

परमात्मा कर्ता है--और हम साक्षी। फिर अहंकार विदा हो गया। न हार अपनी है, न जीत अपनी है। हारे तो वह, जीते तो वह। न पुण्य अपना है, न पाप अपना है। पुण्य भी उसका, पाप भी उसका। सब उस पर छोड़ दिया। निर्भार हो गए। यह निर्भार दशा संन्यास की दशा है।

 
जा घट चिंता नागिनी, ता मुख जप नहिं होय।और जब तक चिंता है, तब तक जप नहीं होगा। तब तक कैसे करोगे ध्यान? कैसे करोगे हरि-स्मरण? चिंता बीच-बीच में आ जाएगी। तुम किसी तरह हरि की तरफ मन ले जाओगे, चिंता खींच-खींच संसार में ले आएगी।

तुमने देखा न कि जब कोई चिंता तुम्हारे मन में होती है, तब बिल्कुल प्रार्थना नहीं कर पाते। बैठते हो, ओठ से राम-राम जपते हो और भीतर चिंता का पाठ चलता है।
 
चिंता और प्रभु-चिंतन साथ-साथ नहीं हो सकते। चिंता यानी संसार का चिंतन।

 
व्यर्थ का कूड़ा-कचरा तुम्हारे मन को घेरे रहता है। तो उस कूड़े-कचरे में तुम परमात्मा को बुला भी न सकोगे। उसके आने के लिए तो शांत और शून्य होना जरूरी है। और शांत और शून्य वही हो जाता है, जिसने कर्ता का भाव छोड़ दिया।

जा घट चिंता नागिनी ता मुख जप नहिं होय।

जो टुक आवै याद भी, उन्हीं जाय फिर खोय।।

और कभी क्षणभर को--टुक--जरा सी याद भी परमात्मा की आती है खिसक-खिसक जाती है। फिर मन संसार में चला जाता हैै। फिर सोचने लगता है कि ऐसा करूं, वैसा करूं? क्या करूं, क्या न करूं? ऐसा होगा--नहीं होगा?

इतना ही नहीं, मन इतना पागल है कि अतीत के संबंध में भी सोचता है कि ऐसा क्यों न किया? ऐसा क्यों कर लिया?

अब अतीत तो गया हाथ के बाहर। अब कुछ किया भी नहीं जा सकता। किए को अनकिया नहीं किया जा सकता। अब अतीत में कोई तरमीम, कोई सुधार, कोई संशोधन नहीं हो सकता। मगर मन उसका भी सोचता है कि फलां आदमी ने ऐसी बात कही थी, काश! हमने ऐसा उत्तर दिया होता!
अब तुम क्यों समय गंवा रहे हो? वक्त जा चुका। जो उत्तर दिया--दिया। जो कहना था--हो गया। जो करना था--हो गया। अब तुम क्या कर सकते हो? अतीत को बदला नहींं जा सकता। लेकिन आदमी अतीत की भी चिंता करता है।

बैठे हैं लोग; सोच रहे हैं कि ऐसा किया होता, वैसा किया होता। इस स्त्री से विवाह न किया होता, उस स्त्री से विवाह कर लिया होता। और उस स्त्री से किया होता, तो भी तुम यही सोचते होते। कोई फर्क न पड़ता।

अतीत की चिंता तो बिल्कुल व्यर्थ है। क्योंकि जो हो ही चुका--हो ही चुका। उसकी क्या चिंता? और भविष्य की चिंता भी व्यर्थ है, क्योंकि जो अभी नहीं हुआ--अभी हुआ ही नहीं--उसकी क्या चिंता? उसकी चिंता से क्या होगा?

तुम्हारे हाथ में क्या है? एक श्वास भी तुम्हारे हाथ में नहीं। कल सूरज उगेगा भी कि नहीं उगेगा--इसका भी कुछ पक्का नहीं। कल सुबह होगी भी या नहीं होगी--इसका भी कुछ पक्का नहीं। तुम होओगे कल या नहीं होओगे--कुछ पक्का नहीं। मगर बड़ी योजनाएं, बड़ी चिंताएं, कर्ता के भाव के साथ-साथ चली आती है।

नहीं साँझ नहीं भोर 

ओशो

Tuesday, April 2, 2019

मन चंचल है। और बिना अभ्यास और वैराग्य के वह कैसे स्थिर होगा?




यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है और जिस ध्यान की साधना के लिए हम यहां इकट्ठे हुए हैं, उस साधना को समझने में भी सहयोगी होगा। इसलिए मैं थोड़ी सूक्ष्मता से इस संबंध में बात करना चाहूंगा।

पहली बात तो यह कि हजारों वर्ष से मनुष्य को समझाया गया है कि मन चंचल है और मन की चंचलता बहुत बुरी बात है। मैं आपको निवेदन करना चाहता हूं, मन निश्चित ही चंचल है, लेकिन मन की चंचलता बुरी बात नहीं है। मन की चंचलता उसके जीवंत होने का प्रमाण है। जहां जीवन है वहां गति है, जहां जीवन नहीं है जड़ता है, वहां कोई गति नहीं है। मन की चंचलता आपके जीवित होने का लक्षण है जड़ होने का नहीं। मन की इस चंचलता से बचा जा सकता अगर हम किसी भांति जड़ हो जाएं।

और बहुत रास्ते हैं मन को जड़ कर लेने के। जिन बातों को हम समझते हैं- साधनाएं, उनमे से अधिकांश मन को जड़ करने के उपाय है। जैसे किसी भी एक शब्द की, नाम की, निरंतर पुनरुक्ति, रिपीटीशन, मन को जड़ता की तरफ ले जाता है। निश्चित ही उसकी चंचलता क्षीण हो जाती है, लेकिन चंचलता क्षीण हो जाना ही, न तो कुछ पाने जैसी बात है, न कुछ पहुंचने जैसी स्थिति है। गहरी नींद में भी मन की चंचलता शांत हो जाती है, गहरी मूर्च्छा में भी शांत हो जाती है, बहुत गहरे नशे में भी शांत हो जाती है। और इसीलिए दुनिया के बहुत से साधु और संन्यासियों के संप्रदाय नशा करने लगे हों, तो उसमें कुछ संबंध हैं।

मन की चंचलता से ऊब कर नशे का प्रयोग शुरू हुआ। हिंदुस्तान में भी साधुओं के बहुत से पंथ; गांजे, अफीम और दूसरे नशों का उपयोग करते हैं। क्योंकि गहरे नशे में मन की चंचलता रुक जाती है, गहरी मूर्च्छा में रुक जाती है, निद्रा में रुक जाती है, चंचलता रोक लेना ही कोई अर्थ की बात नहीं है, चंचलता रुक जाना ही कोई बड़ी गहरी खोज नहीं है और चंचलता को रोकने के जितने अभ्यास है, वे सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता को, उसकी विजडम को, उसकी इंटैलिजेंस को, उसकी समझ, उसकी अंडरटैंडिंग को, सबको क्षीण करते हैं, कम करते हैं। जड़ मस्तिष्क मेधावी नहीं रह जाता। तो क्या मैं यह कहूं कि चंचलता बहुत शुभ है, निश्चित ही चंचलता शुभ है, बहुत शुभ है। लेकिन चंचल तो विक्षिप्त का मन भी होता है, पागल का मन भी होता है। विक्षिप्त चंचलता शुभ नहीं है, पागल चंचलता शुभ नहीं है। चंचलता तो जीवन का लक्षण है, जहां गति है, वहां-वहां चंचलता होगी, लेकिन विक्षिप्त चंचलता।

जैसे एक नदी समुद्र की तरफ जाती है, जीवित नदी समुद्र की तरफ बहेगी, गतिमान होगी। लेकिन कोई नदी अगर पागल हो जाए, अभी तक कोई नदी पागल हुई नहीं। आदमियों को छोड़कर और कोई पागल होता ही नहीं। कोई नदी अगर पागल हो जाए, तो भी गति करेगी, कभी पूरब जाएगी, कभी दक्षिण जाएगी, कभी पश्चिम जाएगी, कभी उत्तर जाएगी और भटकेगी, अपने ही विरोधी रातों पर भटकेगी। सब तरह दौड़ेगी, धूपेगी लेकिन सागर तक नहीं पहुंच पाएगी। तब उस गति को हम पागल गति कहेंगे, गति बुरी नहीं है, पागल गति बुरी है। आप यहां तक आए, बिना गति के आप यहां तक नहीं आते, लेकिन गति अगर आपकी पागल होती, तो आप पहले कहीं जाते थोड़ी दूर, फिर कहीं दूर जाते थोड़ी दूर, फिर लौट आते, फिर इस कोने से उस कोने तक जाते, फिर वापिस हो जाते और भटकते एक पागल की तरह। तब आप कहीं पहुंच नहीं सकते थे, वह मन जो पागल की भांति भटकता है, घातक है, लेकिन स्वयं गति घातक नहीं है, जिस मन में गति ही नहीं है, वह मन तो जड़ हो गया। इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। मैं गति और चंचलता के विरोध में नहीं हूं।

मैं जड़ता के पक्ष में नहीं हूं, और हम दो ही तरह की बातें जानते हैं अभी, या तो विक्षिप्त मन की गति जानते हैं और या फिर राम-राम जपने वाले या माला फेरने वाले आदमी की जड़ता जानते हैं, इन दो के अतिरिक्त हम कोई तीसरी चीज नहीं जानते। चाहिए ऐसा चित्त जो गतिमान हो, लेकिन विक्षिप्त न हो, पागल न हो, ऐसा चित्त कैसे पैदा हो, उसकी मैं बात करूं। उसके पहले यह भी निवेदन करूं, कि मन की चंचलता के प्रति अत्यधिक विरोध का जो भाव है, वह योग्य नहीं है और न अनुग्रहपूर्ण है और न कृतज्ञतापूर्ण है। अगर मन गतिवान न हो और चंचल न हो, तो हम मन को न मालूम किस कूड़े-करकट पर उलझा दें और वही जीवन समाप्त हो जाए। लेकिन मन बड़ा साथी है, वह हर जगह से ऊबा देता है और आगे के लिए गतिवान कर देता है।

चिखलोदरा शिविर 

ओशो

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