मनुष्य एक अद्वितीय स्थिति है। और ध्यान रखना शब्द--स्थिति। एक
जगत है मनुष्यों के नीचे पशुओं का। वे पूरे ही पैदा होते हैं; उन्हें जो होना है, वैसे ही पैदा होते हैं। और एक जगत है मनुष्य के ऊपर बुद्धों का। उन्हें
जैसा होना है वे हो गए हैं, अब कुछ होने को नहीं बचा। और
दोनों के मध्य में मनुष्य की चिंता का लोक है। उसे जो होना है अभी हुआ नहीं;
जो नहीं होना है वह अभी है। इसलिए तनाव है, खिंचाव
है।
पीछे की तरफ खींचता है पशुओं का लोक, पक्षियों का लोक, वृक्षों का लोक, नदी-पहाड़ों का लोक। आगे की तरफ
खींचता है बुद्धों का लोक, जिनों का लोक, तीर्थंकरों का लोक, अवतारों का लोक। दोनों आकर्षण
प्रबल हैं। पीछे के आकर्षण का बल यह है कि वह हमारा अनुभव है--अचेतन में दबा हुआ।
उन सारी योनियों से हम यात्रा करके आए हैं, वे जानी-मानी हैं,
परिचित हैं; उनमें लौट जाना आसान मालूम होता
है।
इसीलिए शराब और शराब जैसे मादक द्रव्यों का इतना प्रभाव है।
शराब की खूबी यही है कि थोड़ी देर को तुम्हें तुम्हारी आदमियत से नीचे गिरा देती है; तुम्हें फिर वापस पशुओं के
जगत का हिस्सा बना देती है--वही शांति, वही सन्नाटा, वही निश्चिंत भाव। सुखद मालूम होता है। लेकिन वापस तो लौटना ही होगा।
थोड़ी-बहुत देर नशे में डूब कर फिर वहीं लौट आओगे जहां थे--और भी ज्यादा चिंताओं
में। क्योंकि जितनी देर तुम बेहोश रहे, चिंताएं बढ़ती रहीं।
चिंताएं तुम्हारी बेहोशी की फिक्र नहीं करतीं। फिर रोज-रोज ज्यादा शराब, ज्यादा मादक द्रव्य लेने होंगे, क्योंकि तुम उनके
अभ्यस्त होने लगोगे। लोग इतने अभ्यस्त हो सकते हैं कि तुम्हें पता ही न चले कि वे
पीए हुए हैं।
मेरे एक मित्र हैं। पुराने पियक्कड़ हैं, गहरे पियक्कड़ हैं। उनकी
शादी हुई। पांच साल बाद उनकी पत्नी को पता चला कि वे शराब पीते हैं, क्योंकि एक दिन घर वे बिना पीए आ गए। जिस दिन बिना पीए आए उस दिन पता चला।
रोज पीकर आते थे तो बिलकुल स्वाभाविक मालूम होते थे। बिना पीए आए तो थोड़े डगमगाते
थे, थोड़े अस्तव्यस्त थे, थोड़े बेचैन
थे। जिस दिन बिना पीए आए उस दिन पत्नी को शक हुआ कि कुछ गड़बड़ है।
मैं उनसे वर्षों से परिचित हूं। कितना ही उन्हें पिला दो, तुम ऊपर से जांच करके बता
नहीं सकते कि वे पीए हुए हैं, अभ्यस्त हो गए। शरीर ने इस नए
रसायन को सीख लिया।
और फिर, लाख भूल जाओ, भूलने से चिंता मिटती नहीं। चिंता तो
अपनी जगह खड़ी है। और चिंता मनुष्य की दुश्मन भी नहीं है, उसकी
मित्र है। चिंता का कांटा ही तो उसे आगे बढ़ाता है। वही तो उसकी चुनौती है। ऋग्वेद
के सोमरस से लेकर आल्डुअस हक्सले के एल. एस.डी. तक आदमी ने निरंतर इस बात की खोज
की है कि मैं वापस कैसे लौट जाऊं।
कवियों के मन में बहुत आकर्षण होता है पक्षियों
जैसे आकाश में उड़ने का--मुक्त गगन! फूलों जैसे सूरज में खिलने का! वृक्षों की
हरियाली, नदियों का कल-कल नाद! सागर में उठते तूफान और
आंधियां! आकाश में गरजते बादल और कड़कती बिजलियां! और कवि आतुर हो आता है--लौट चले
पीछे को! यह आकस्मिक नहीं है कि कवि, चित्रकार, संगीतज्ञ आमतौर से मादक द्रव्यों में उत्सुक हो जाते हैं। इसके पीछे कारण
है। वे पीछे लौटना चाहते हैं। और पीछे लौटने का एक ही उपाय है: हम कैसे भूल जाएं
उस जगह को जहां कि हम हैं! मगर समय में पीछे लौटा ही नहीं जा सकता।
साँच साँच सो साँच
ओशो
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