एक फकीर हुआ--नागार्जुन। बौद्ध फकीर था। इस पृथ्वी पर जो
थोड़े-से अनूठे लोग हुए हैं, उन थोड़े-से लोगों में नागार्जुन भी एक है। उसके पास एक आदमी ने आकर कहा कि
मुझसे संसार नहीं छूटता है, मैं क्या करूं?
नागार्जुन ने उसे गौर से देखा और कहा, तूने भी गजब की बात कही!
मैं पकड़ना चाहता हूं और पकड़ नहीं पाता हूं और तू कहता है कि तू छोड़ना चाहता है और
छूटता नहीं! हम तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए। तूने भी कैसा सवाल उठा दिया! मैं लाख
उपाय किया हूं पकड़ने का और पकड़ में नहीं आता और तू कहता है कि छूटता नहीं है। तू
एक काम कर। यह सामने मेरे गुफा है, तू इसमें भीतर बैठ जा और
तीन दिन तक तू एक ही बात की रट लगा...।
बातचीत में नागार्जुन ने पता लगा लिया था कि वह काम क्या करता
है। अहीर था। भैंसों का दूध बेचता था। तो नागार्जुन ने पूछा था, तुझे सबसे ज्यादा प्रेम
किससे है? पत्नी से है, बच्चे से है?
उसने कहा, मुझे किसी से नहीं है, मुझे अपनी भैंस से प्रेम है।
तो नागार्जुन ने कहा,
तू एक काम कर। यह सामने की गुफा में अंदर चला जा, भीतर बैठ जा, तीन दिन तक खाना-पीना बंद, बस एक ही बात सोच कि मैं भैंस हूं, मैं भैंस हूं।
उसने कहा, इससे क्या होगा?
तीन दिन के बाद तय करेंगे। तीन दिन में तेरा कुछ बिगड़ा नहीं जा
रहा है। जिंदगी यूं ही चली गई,
तीन दिन और समझना मुझे दे दिए।
सीधा-सादा आदमी था। चला गया गुफा में। और सच में ही भैंस से उसे
प्रेम था; वही
उसकी जिंदगी थी, वही उसका संसार, वही
उसकी धन-दौलत, वही उसकी प्रतिष्ठा। यूं भी भैंस से बिछड़ गया
था तो बड़ी तकलीफ हो रही थी। इस बात से बहुत राहत भी मिली कि मैं भैंस हूं। दोहराता
रहा, दोहराता रहा, तीन दिन सतत
दोहराया। सीधा भोला-भाला आदमी।
तीन दिन बाद नागार्जुन उसके द्वार पर गया और कहा कि बाहर आ!
उसने निकलने की कोशिश की, लेकिन निकल न सका। नागार्जुन ने कहा, क्या अड़चन है?
निकलता क्यों नहीं?
उसने कहा, निकलूं कैसे? ये जो मेरे सींग हैं, गुफा का दरवाजा छोटा, सींग अटक-अटक जाते हैं।
न कहीं कोई सींग थे,
न कुछ अटक रहा था। लेकिन वह आदमी अटका हुआ था। नागार्जुन भीतर गया,
उसे खूब हिलाया, झकझोरा, कहा, आंख खोल! तीन दिन तक निरंतर दोहराने से कि मैं
भैंस हूं, भ्रांति खड़ी हो गई। गौर से देख! यह आईना रहा,
इसमें अपनी तस्वीर देख। कहां सींग हैं?
उस आदमी ने आईना देखा--न कोई सींग थे, न कोई भैंस थी। हंसने लगा।
नागार्जुन के चरणों पर गिर पड़ा और कहा कि खतम हुआ। मैं सोचता था, संसार छूटता नहीं। आप ठीक कहते थे, पकड़ना भी चाहो तो
कैसे पकड़ोगे? सींग हैं ही नहीं, सिर्फ
खयाल है, सिर्फ विचार हैं, सिर्फ
कामनाएं हैं, सिर्फ वासनाएं हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं: "ढूंढ कर देख कि इस जहान की ठौर कहां
है, अनहोना नजर
आ रहा है।'
आदमी को सींग ऊग गए हैं--भैंस के सींग! अनहोना नजर आ रहा है।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे।
जरा गौर से तो देख,
इस सारे संसार का स्रोत कहां है? यह है भी या
नहीं? इसकी जड़ें भी हैं कहीं या नहीं? या
सिर्फ एक कल्पना का वृक्ष है, कल्पवृक्ष है, जो होता नहीं, सिर्फ मान लिया जाता है। और मान लो तो
हो जाता है। हम मान्यता से एक संसार खड़ा कर लेते हैं।
साँच साँच सो साँच
ओशो
ओशो
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