मैंने सुना है,
एक मुसलमान सम्राट कभी-कभी एक सूफी फकीर को बुलाया करता था। महल में
बुलाता था। उसका सत्संग करता था। एक दिन फकीर ने कहा कि यह नियम के प्रतिकूल है।
मैं आ जाता हूं दया करके । लेकिन कुरान कहती है कि फकीर कभी सम्राट के घर न जाए।
तुम बुलाते हो तो मैं इनकार नहीं कर पाता। लेकिन कुरान कहती है कि जब जाए तो
सम्राट ही फकीर के घर जाए। तो यह आखिरी बार मेरा आना हुआ है। अब तुम इस योग्य भी
हो गए हो कि मेरी बात समझ सकोगे। सत्संग ने तुम्हें इस योग्य बना दिया। पहले दिन
ही मैं तुमसे मना करता तो शायद तुम्हारी अक्ल में भी न आता, तुम
समझते अपमान हो गया। लेकिन अब तुम समझ सकते हो। तुम्हें चाहिए तो तुम आओ, कुएं के पास आओ। तुम प्यासे हो। कुएं को बुलाते हो तो यह बात तो ज़रा ठीक
नहीं। अब जब आना हो तो तुम आ जाना।
राग तो लग गया था सम्राट को इस फकीर का। इस के प्रेम की कुछ
बूंदें उसे मिली थीं। इसके जीवन में कुछ उसने झांका भी था। कुछ लगता था कि जो नहीं
साधारणतः होता, वह
हुआ है। तो वह एक दिन पहुंचा फकीर के झोंपड़े पर। फकीर खेत में काम करने गया था।
उसकी पत्नी ने कहा, आप बैठ जाएं। वह खेत की मेंड़ पर पत्नी
अपने पति की प्रतीक्षा कर रही है, भोजन लेकर आई है। वह कहती
है, आप यहीं बैठ जाएं मेंड़ पर, मैं पति
को बुला लाती हूं, वे दूर काम कर रहे हैं।
सम्राट ने कहा कि मैं टहलूंगा, तू जाकर बुला ला। पत्नी को लगा कि शायद मेंड़ पर
कुछ बिछा नहीं है, इसलिए सम्राट बैठता नहीं। तो वह भागी गई,
अपने झोंपड़े में से एक दरी उठा लाई। गरीब की दरी! थेबड़ों लगी।
जगह-जगह फटी, जरा-जीर्ण। मगर उसने बड़े प्रेम से बिछा दी मेंड़
पर और कहा कि आप बैठ जाएं। सम्राट ने दरी देखी और टहलता ही रहा। उसने कहा, मैं टहलूंगा ही, तू पति को बुला ला। उसने सोचा कि
शायद मेंड़ पर बैठना सम्राट के लिए योग्य नहीं, तो उसने कहा,
आप ऐसा करें, झोंपड़े में भीतर चलें, तो हमारी खाट पर बैठ जाएं। तो वह भीतर ले गई, लेकिन
खाट भी सम्राट को जंची नहीं। खाट ही थी गरीब की। और झोंपड़ा भी. . .।
वह बाहर फिर आ गया।
उसने कहा, मैं टहलूंगा,
तू फिक्र मत कर। तू जा कर फकीर को बुला ला।
पत्नी गई। राह में उसने फकीर से--अपने पति से--कहा कि सम्राट
कुछ अजीब-सा है! मैंने बहुत कहा,
मेंड़ पर बैठ जाओ, नहीं बैठा। दरी बिछाई। नहीं
बैठा। भीतर ले गई, अपनी खाट पर बैठने को कहा, वहां नहीं बैठा। यह बात क्या है, यह बैठता क्यों
नहीं?
फकीर हंसने लगा। उसने कहा,
पागल! सम्राट बैठ कैसे सकता है? हमारी दरी भी
उसके योग्य नहीं, खेत की मेंड़ भी उसके योग्य नहीं, हमारी खाट भी उसके योग्य नहीं।
और फिर फकीर हंसने लगा। उसकी पत्नी ने कहा, आप हंसते क्यों हैं?
उसने कहा, यही तो मनुष्य के सारे जीवन की कथा
है कि हमारा मन कहीं बैठता नहीं, क्योंकि मन है सम्राट। कभी
तुम दुकान पर बिठालना चाहते हो, नहीं बैठता है। कभी तुम किसी
की देह में बिठाना चाहते हो, नहीं बैठता है। यह तो बैठेगा ही
नहीं जब तक परमात्मा न मिले। यह सम्राट है। यह परमात्मा मिले तो ही बैठेगा और
परमात्मा मिल जाता है तो ऐसा बैठ जाता है, हिलता ही नहीं,
डुलता ही नहीं। सब कंपन खो जाते हैं।
परमात्मा के बिना जीवन रस-विहीन है। रसो वै सः! परमात्मा रस-रूप
है। उसे बुलाओगे तो रस-लिप्त हो जाओगे। उसके बिना सूखे-सूखे ही रहोगे। उसके बिना
आंखें गीली न होंगी, न हृदय गीला होगा। उसके बिना गीत नहीं उठेगा। उसके बिना समाधी नहीं उसके
बिना समाधान नहीं है।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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