भगवान, थोड़े दिन पहले जैन मंदिर की प्रतिमा से पानी टपक रहा था। जैन कहते हैं कि
अमृत झर रहा है, अब आनंद ही आनंद होगा। तथाकथित धर्मस्थानों
में ऐसा चमत्कार होता ही रहता है। यह प्रतिमा मानव जीवन की रुग्णता देखकर आंसू
बहाती है अथवा अमृतवर्षा करती है--यह कैसे पता चले? कृपया,
समझाने की अनुकंपा करें।
न तो अमृत झर रहा है,
न आंसू झर रहे हैं। प्रतिमा तो पत्थर है, रोएगी
भी क्या, करुणा भी क्या करेगी? लेकिन
बड़े चालबाजों के हाथ में धर्म पड़ गया है। ऐसे पत्थर होते हैं जो पानी सोख लेते
हैं। ऐसे पत्थर हैं--अफ्रीका में भी होते हैं, कश्मीर में भी
होते हैं--जो हवा से भाप को सोख लेते हैं। और वही भाप ठंडक पाकर पानी के बूंद बनकर
प्रतिमा पर जम जाती है। और तब बुद्धुओं की जमात एक से एक बातें कहेंगी। ये तरकीबें
पंडित-पुरोहित सदियों से काम में लाते रहे हैं लोगों को अंधा करने के लिए।
मगर कभी तुम यह जो सोचो,
जब खुद महावीर जिंदा थे तब भी आनंद ही आनंद नहीं हुआ, अमृत नहीं बरसा, अब क्या खाक पत्थर की प्रतिमा से
बरसेगा? जब महावीर मौजूद थे स्वयं, तब
कितना आनंद बरसा? कितने जीवन आंदोलित हुए? और तुमने महावीर के साथ क्या किया? कानों में खिले
ठोंके, सताया, मारा, एक गांव से दूसरे गांव भगाया, पागल कुत्ते महावीर के
पीछे छोड़े, खूंख्वार कुत्ते महावीर के पीछे लगाए। क्योंकि
महावीर की नग्नता तुम्हें सालती थी, अखरती थी। महावीर की
नग्नता उनकी सरलता की उदघोषणा थी; जैसे छोटा बच्चा। लेकिन
उनकी नग्नता तुम्हें, अड़चन देती थी। उनकी नग्नता तुम्हें भी
खबर देती थी कि हो तो तुम भी नग्न, वस्त्रों में कितना ही
अपने को छिपाओ, सचाई छिपेगी नहीं छिपाने से, उघड़ो। तुम्हें बेचैनी होती थी, घबड़ाहट होती थी। तुम
समझते थे यह आदमी हमें भ्रष्ट कर रहा है, हमारे बच्चों को
भ्रष्ट कर रहा है। गांव में टिकने नहीं देते थे, महावीर को।
महावीर जब जीवित थे तब आनंद ही आनंद नहीं बरसा, अमृत नहीं बरसा, अब किसी पत्थर की प्रतिमा पर पानी की बूंदें जम जाएंगी और आनंद ही आनंद हो
जाएगा! कुछ तो गणित भी याद करो! ये तो सीधे-से गणित हैं। लोग कहते हैं कि जब धर्म
की हानि होती है तो भगवान का अवतार होता है। कृष्ण के वचन का लोग उद्धरण करते हैं:
"संभवामि युगे युगे', आऊंगा, युग-युग
में आऊंगा; "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत',
जब भी ग्लानि होगी धर्म की, आऊंगा। मगर तब आए
थे, तब कौन-से धर्म की पुनर्स्थापना हो सकी? महाभारत हुआ, धर्म की कोई पुनर्स्थापना तो नहीं हुई।
हिंदुओं का हिसाब से कोई एक अरब आदमी महाभारत के युद्ध में मरे, कटे। धर्म का कोई अवतरण तो नहीं हो गया। सच तो यह है कि महाभारत में भारत
की जो रीढ़ टूटी, वह फिर आज तक ठीक नहीं हुई। महाभारत में जो
भारत की आत्मा मरी, वह अब तक पुनरुज्जीवित नहीं हो सकी।
महाभारत के बाद भारत फिर उठ नहीं पाया, अपने पैरों पर खड़ा
नहीं हो पाया। फिर टूटता ही गया, बिखरता ही गया, खंडित ही होता गया।
ईसाई कहते हैं कि जीसस का अवतरण हुआ था मनुष्य के उद्धार के
लिए। वे आए ही इसलिए थे, परमात्मा ने भेजा ही इसलिए था...एकमात्र बेटे हैं वे परमात्मा के, इकलौते पुत्र! अपने इकलौते बेटे को परमात्मा भेजा कि जाओ, अब मनुष्य का उद्धार करो। ये तो सब बातें ठीक, मगर
मनुष्य का उद्धार कहां हुआ!--यह तो कोई देखता ही नहीं, यह तो
कोई पूछता ही नहीं। मनुष्य का तो उद्धार नहीं हुआ है, जीसस
को सूली लग गयी। यही अगर मनुष्य का उद्धार है तो बात अलग। और ईसाइयत भी फैल गयी
दुनिया में तो कोई मनुष्य का उद्धार हो गया!
लेकिन लोग इसी तरह की व्यर्थ की बातें फैलाते फिरते हैं। और
आश्चर्य तो यह है कि हम सदियों-सदियों से इन्हीं घनचक्करों के चक्कर में पड़े रहते
हैं। हमें होश भी नहीं आता। हम फिर-फिर उन्हीं मूढ़ताओं में पड़ जाते हैं।
न तो कोई चमत्कार है इसमें, न कुछ विशेषता है। जरा उस पत्थर की परीक्षा
करवा लेना पत्थर के विशेषज्ञों से और तुम्हें पता चल जाएगा। कि वह पोरस पत्थर है।
उसमें छोटे-छोटे छेद हैं, जिन छेदों से वाष्प भीतर प्रवेश कर
जाती है। और जब भी ठंडक मिलती है, तो स्वभावतः वाष्प पानी
में बदल जाती है। पानी में बदली तो छिद्रों के बाहर आकर बहने लगती है। अब तुम्हारी
जो मर्जी हो आरोपित करने की, गरीब पत्थर पर आरोपित कर दो। और
अगर अमृत है यह, तो चाट क्यों नहीं जाते? तो कम-से-कम जैन ही अमर हो जाएं। और ज्यादा जैन भी नहीं हैं, कोई पैंतीस लाख हैं ही, मुल्क में इतनी मूर्तियां
हैं, चाट जाओ सारी मूर्तियों को! कम-से-कम तुम्हीं अमर हो
जाओ। जब अमृत ही मिल रहा है तो क्यों चूक रहे हो?
और ये तो हर साल घटनाएं घटती हैं। और आनंद तो कहीं दिखायी पड़ता
नहीं, बस सपने
ही सपने हैं। इन सपनों में ही अपने को भुलाए रखोगे तो आज नहीं कल रोओगे, जार-जार रोओगे। फिर आंसू बहेंगे।
इसमें कसूर किसका है,
दीपक शर्मा!
कल तक इन सूनी आंखों में शबनम थी चांद-सितारे थे
सब झूठे! अगर सच्चे होते तो आज भी होते। कल ही क्यों? झूठ होते हैं तो कल होते
हैं तो आज नहीं होते, आज होते हैं तो कल नहीं होते। इस जगत
में जो झूठ है, वह बदलता रहता है; सत्य
है, वह शाश्वत है। लेकिन हम झूठ में खूब उलझ जाते हैं। हम
झूठ से बहुत प्रभावित होते हैं। सच तो यह है, हम बदलाहट से
ही आकर्षित होते हैं।
देखा तुमने किसी कुत्ते को बैठे हुए? बैठा है चुपचाप। कोई चीज
हिलती-डुलती नहीं, तो चुपचाप बैठ रहेगा। फिर जरा-सा कोई चीज
को हिला-डुला दो, एक पत्थर में धागा बांधकर उसे जरा खींच दो
दूर बैठकर और कुत्ता एकदम चौंककर खड़ा हो जाएगा। जब तक पत्थर जगह पर पड़ा था एक,
कुत्ता निश्चिंत था। पत्थर हिला कि कुत्ता जागा। कि भौंका। कि
आकर्षित हुआ कि मामला क्या है?
यह कुत्ते का ही नहीं लक्षण है, यह सारे मन का लक्षण है। इसलिए जो चीज बदलती
नहीं, वह दिखायी नहीं पड़ती। तुम अपनी पत्नी का देखते हो?
वह तुम्हें दिखायी नहीं पड़ती। वह बदलती ही नहीं। वह वही की वही
पत्नी--कल भी थी और आज भी है, कल भी होगी। लेकिन पड़ोसी की
पत्नी, पड़ोसी की पत्नियां, उन्हें तुम
टकटकी लगाकर देखते हो। तुम्हें अपना घर दिखायी पड़ता है? कुछ
दिखाई नहीं पड़ता। तुम परिचित हो। सब चीजें अपनी जगह होती हैं तो कुछ दिखायी नहीं
पड़ता। हां,कोई अदल-बदल हो जाए, रात कोई
चोर घर में घुस जाए, सामान इधर का उधर कर दे; कुर्सी सरकी मिले, दरवाजा खुला मिले, ताला टूटा मिले, तो तुम चौंकते हो। परिवर्तन आकर्षित
करता है। अगर चीजें थिर हों, तो आकर्षित नहीं करतीं।
साहिब मिले साहिब भये
ओशो
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