मूलतः तो धर्म के लिए ही उपयोगी है। लेकिन धर्म व्यक्ति की
आत्मा है। और उस आत्मा में परिवर्तन हो,
तो व्यवहार अपने आप बदलता ही है। भीतर बदले, तो
बाहर बदलाहट आती है। वह बदलाहट लेकिन छाया की भांति है, परिणाम
की भांति है। वह पीछे चलती है। जैसे हम किसी से पूछें कि कोई आदमी दौड़े, तो आदमी ही दौड़ेगा या उसकी छाया भी दौड़ेगी? ऐसा ही
यह सवाल है। आदमी दौड़ेगा तो छाया तो दौड़ेगी ही। हां, इससे
उलटा नहीं हो सकता कि छाया दौड़े तो आदमी दौड़ेगा क्या? पहली
तो बात छाया दौड़ नहीं सकती। और अगर दौड़े भी, तो भी आदमी के
उसके पीछे दौड़ने का उपाय नहीं है।
तो व्यक्ति का व्यावहारिक जीवन बदल जाए, तब जरूरी नहीं है कि उसका
धार्मिक जीवन बदले। हो सकता है व्यवहार में वह बहुत अच्छा आदमी हो, और अंतस में बिलकुल ही उतना अच्छा आदमी न हो। दूसरों के साथ बहुत अच्छा हो
और अपने साथ बहुत बुरा हो। जो उससे प्रकट होता है वह बहुत अच्छा हो और जो अप्रकट
भीतर दबा रह जाता हो वह बहुत बुरा हो। लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता। अगर उसका
भीतर बदल जाए, तो ऐसा नहीं हो सकता कि वह भीतर अच्छा हो जाए
और बाहर बुरा हो। यह असंभव है। क्योंकि बाहर जो भी है व्यक्तित्व, वह शैडो-पर्सनैलिटी है, वह छाया-व्यक्तित्व है। भीतर
आत्मा है।
तो ध्यान का मौलिक परिणाम तो आत्मा पर होगा, लेकिन गौण परिणाम समस्त
जीवन पर हो जाएगा। और ऐसे व्यक्ति की भीतरी समृद्धि तो बढ़ेगी ही, ऐसे व्यक्ति की बाह्य समृद्धि के बढ़ने के भी मार्ग बड़े खुल जाएंगे।
क्योंकि जैसे ही व्यक्ति भीतर समृद्ध होता है, वैसे ही उसमें
हीनता का भाव चला जाता है। तो जिन-जिन बाहर के कामों में उसकी हीनता की वजह से
बाधा पड?ती थी, अब नहीं पड़ेगी। जैसे ही
भीतर समृद्ध होता है, वैसे ही अपने प्रति बड़ा आश्वस्त हो
जाता है। जिसको हम कहें, अपने पर ऐसा भरोसा आ जाता है जैसा
उसे कभी भी न था। तो स्वयं पर गैर-भरोसे के कारण जीवन में जितने नुकसान उसने उठाए,
वे अब नहीं उठाने पड़ेंगे। भीतर समृद्धि हो, तो
जीवन ऐसा रससिक्त, भरा-पूरा, फुलफिल्ड
होता है कि उस जीवन से क्रोध और वैमनस्य, और उस जीवन से
क्षुद्रता उठनी बंद हो जाती है। तो क्षुद्रताओं औरर् ईष्याओं से जितनी बाधाएं उसने
अपने ही हाथ से अपने बाहर के जगत में खड़ी कर ली थीं, वे
तत्काल सब गिर जाती हैं।
भीतर से जीवन समृद्ध हो,
तो अपने आप वैसा व्यक्ति आस्तिक हो जाता है। आस्तिकता का और कोई
मतलब ही नहीं है। असल में भीतर इतना मिल गया है कि जो परमात्मा ज्ञात भी नहीं है
उसे भी धन्यवाद देना पड़ेगा। भीतर इतना मिल गया है जिसके लिए हमने कुछ भी तो प्रयास
नहीं किया था, कि उसे प्रसाद मानना ही पड़ेगा। और भीतर जब भी
आनंद होता है, तब "नहीं' चित्त
में नहीं उठता, तब "हां', तब
चीजों के प्रति स्वीकार उठता है। और जिस व्यक्ति के मन में भीतर गहरे में सब तरफ
परमात्मा की स्वीकृति आ जाती है, उसे सारे जगत की सारी
शक्तियां सहयोगी हो जाती हैं। क्योंकि जब तक मैं जगत से लड़ रहा हूं, तब तक जगत मुझसे भी लड़ता रहेगा। जिस दिन मैं ही लड़ना बंद कर देता हूं जगत
से, उस दिन जगत भी मुझसे लड़ना बंद कर देता है। और तब जीत
सुनिश्चित है, सब दिशाओं में, बाहर की
दिशाओं में भी। क्योंकि हार का कोई उपाय नहीं रहा।
तो ध्यान भीतर चित्त को बदलेगा ही, और धार्मिक ही उसकी
प्रक्रिया है। लेकिन तब सारा व्यक्ति बदलेगा, संबंध बदलेंगे।
उस व्यक्ति का बाह्य-आचरण ही नहीं बदलेगा, उस व्यक्ति की
बाह्य-उपलब्धियां भी बदल जाएंगी। वह अच्छा पिता नहीं हो जाएगा सिर्फ, अच्छा पति, अच्छी पत्नी नहीं हो जाएगी, अच्छी मां नहीं हो जाएगी, वह अच्छा दुकानदार भी हो
जाएगा, वह अच्छा व्यापारी भी हो जाएगा। कुशलता उसके जीवन में
बाहर अपने आप व्यापक हो जाएगी। इसीलिए कृष्ण कह सके कि योग जो है, वह कर्म की कुशलता है। वह कर्म की जो कुशलता है, वह
जो एफिशिएंसी इन वर्क है, वही खबर देगी कि अब भीतर भी कोई
बड़ा कुशल हो गया है।
तो बाहर सब बदलेगा। लेकिन बदलाहट की शुरुआत होगी भीतर से। बाहर
होंगे परिणाम। बाहर को बदलने से बाहर कुछ नहीं बदलता, सिर्फ कलह ही पैदा होती है
अपने साथ। भीतर बदलने से भीतर तो बदलता ही है, बाहर भी सब
बदल जाता है।
तो ध्यान के सांसारिक अर्थ भी हैं। और ध्यान के सांसारिक
प्रयोजन और फायदे भी हैं, पर वे गौण हैं। और उनकी बात शुरू नहीं करनी चाहिए। और उनकी तरफ से कोई
ध्यान करने जाएगा, तो ध्यान नहीं कर सकता। कोई सोचता हो कि
धन ज्यादा मिल जाएगा, कोई सोचता हो कि यश ज्यादा मिल जाएगा,
तो ध्यान नहीं कर सकता।
हालांकि ध्यान आ जाने पर धन बहुत बार चला
आया है। और ध्यान आ जाने पर बहुत बार यश चला आया है। पर यश और धन के लिए ध्यान
नहीं किया जा सकता। क्योंकि जो यश और धन के लिए कर रहा है, वह
ध्यान कर ही नहीं सकता, वह बेसिकली अनक्वालिफाइड हो गया। वह
ध्यान का उसका कोई अर्थ ही नहीं रहा। हां, पर ध्यान हो जाने
पर यह सब भी चला आता है। और नहीं भी आता, नहीं भी आए,
तो भेद नहीं पड़ता है। तब दरिद्रता ही बड़ी समृद्ध हो जाती है। और तब
अपयश भी यश मालूम पड़ता है। और तब हार भी जीत होती है। इसलिए आया या नहीं आया,
यह बाहर के लोगों को ही पता चलता है। भीतर जो आदमी खड़ा है, उसे तो आए या न आए, अब पता ही नहीं चलता है।
जो घर बारे अपना
ओशो
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