प्यास को कोई जगा भी नहीं सकता। जल तो खोजा जा सकता है, प्यास को जगाने का कोई उपाय
नहीं है। प्यास हो तो हो, न हो तो प्रतीक्षा करनी पड़े।
जबरदस्ती प्यास को पैदा करने की कोई भी संभावना नहीं है। और जरूरत भी नहीं है। जब
समय होगा, प्राण पके होंगे, प्यास
जगेगी। और अच्छा है कि समय के पहले कुछ भी न हो।
मन तुम्हारा लोभी है।
जैसे छोटा बच्चा है,
प्रेम की बात सुने, संभोगी चर्चा सुने कि
वात्स्यायन का कामसूत्र उसके हाथ में लग जाए और सोचने लगे कि ऐसी कामवासना मुझे
कैसे जगे, लोभ पैदा हो जाए। लेकिन छोटे बच्चे में कामवासना
पैदा हो नहीं सकती। प्रतीक्षा करनी होगी। पकेगी वीर्य-ऊर्जा, तभी कामवासना उठेगी। और जैसे कामवासना पकती है, ऐसे
ही प्रभु-वासना भी पकती है। कोई उपाय नहीं है। जल्दी जगाने की आवश्यकता भी नहीं
है। लेकिन सुन कर बातें लोभ पैदा होता है; मन में लगता है,
कब ईश्वर से मिलन हो जाए। देखा कि दया ईश्वर का गुणगान गा रही है,
मस्ती में डोलते देखा मीरा को--तुम्हारे भीतर भी लोभ सुगबुगाया।
तुम्हारे भीतर भी लगा, ऐसी मस्ती हमारी भी हो। तुम्हें ईश्वर
का प्रयोजन नहीं है। तुम्हें यह जो मस्ती दिखाई पड़ रही है, यह
मस्ती तुम्हें आकर्षित कर रही है। मस्ती के तुम खोजी हो। शराबी को राह पर देख लिया
डोलते डांवाडोल होते, तो तुम्हारे मन में भी आकांक्षा होती
है, ऐसी भावविभोर दशा हमारी भी हो। शराब से तुम्हें मतलब
नहीं है। शराब का शायद तुम्हें पता भी नहीं है, लेकिन इस
आदमी की मस्ती तुम्हारे मन में ईष्या जगाती है।
खयाल रखना; संतों के पास जा कर ईष्या भी जग सकती है, प्रार्थना
भी जग सकती है। ईष्या जगी तो अड़चन आएगी। तब तुम्हारे भीतर एक बड़ी बेचैनी पैदा
होगी कि प्यास तो है नहीं। और प्यास न हो तो जलधार बहती रहे, करोगे क्या? कंठ ही सूखा न हो तो जलधार का करोगे
क्या? और बिना प्यास के जल पी भी लो तो तृप्ति न होगी,
क्योंकि तृप्ति तो अतृप्ति हो, तभी होती है।
तो पानी पी कर शायद वमन करने का मन होने लगे।
नहीं, जल्दी करना ही न। धैर्य रखना, भरोसा रखना। जब समय
होगा, जब तुम राजी हो जाओगे, पकोगे। और
पकने का अर्थ समझ लेना। पकने का अर्थ है: जब तुम्हें संसार के सारे रस व्यर्थ
मालूम होने लगेंगे, तब रस जगेगा प्रभु का। तुमने अभी संसार के रसों की व्यर्थता नहीं जानी। मैंने कह दिया व्यर्थ
हैं, इससे थोड़े ही व्यर्थ हो जाएंगे। मेरे कहने से तुम्हारे
लिए कैसे व्यर्थ होंगे? बूढ़े तो समझाए जाते हैं बच्चों को कि
खिलौने व्यर्थ हैं। क्या बैठे फिजूल के खिलौनों के साथ समय खराब कर रहे हो! इनमें
कुछ सार नहीं है। लेकिन बच्चों को तो खिलौनों में सार दिखाई पड़ता है।
जगत तरैया भोर की
ओशो
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