आपने मेरी आंखें खोल दीं। मैं अपनी झोली में धर्मशास्त्र रखे
हुए हूं, मुझे
और अधिक जूते उसमें नहीं डालने। आप अगर मुझ वृद्ध को स्वीकार लें, संन्यास में दीक्षा दें और समाधि का अनुभव कराएं, तो
मैं इस धर्मशास्त्रों से भरी झोली को आज ही फेंक दूं। मैं आपके सत्संग में
स्वाध्याय, संन्यास और मौन की प्रक्रिया सीखना चाहता हूं।
मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि आप मुझे गरीबदास झोलीवाले का पुराना नाम न दें,
मैं अब गरीबी और झोली दोनों से मुक्त होना चाहता हूं।
गरीबदास झोलीवाले,
यह तो तुमने गजब कर दिया! चमत्कार कहो। क्योंकि इस देश में आदमी
आंखें इतनी आसानी से नहीं खोलते। खोलने की कहो तो और भींच कर बंद कर लेते हैं।
तुम ठीक कहते हो कि "मैं अपनी झोली में धर्मशास्त्र रखे
हुए हूं।'
सभी धर्मशास्त्रों को ही ढो रहे हैं। और अच्छा ही है कि झोली
में रखे हो, सो
छुटकारा आसान! लोगों की तो खोपड़ियों में घुस गए हैं। वहां से निकालने में बड़ी
मुसीबत है। बड़ी सर्जरी करनी पड़ती है। पहले तो अपनी खोपड़ी में कोई छेद नहीं करने
देता। किसी तरह अगर खोपड़ी में खिड़की बना भी लो--वही मैं करता हूं, संन्यासियों की खोपड़ी में खिड़की बनाता हूं--फिर उस खिड़की में से धीरे-धीरे
शास्त्र निकालने पड़ते हैं। कठिन काम है, क्योंकि शास्त्र
भीतर जकड़े हुए हैं। उन्होंने बहुत जाला फैला रखा है। तुम सौभाग्यशाली हो कि
तुम्हारे शास्त्र झोली में हैं। झोली तो एक झटके में खतम कर दी जाएगी। शायद इसीलिए
तुम्हारी इतनी जल्दी आंखें भी खुल गईं। सौभाग्यशाली हो तुम।
और तुम कहते हो: "आप अगर मुझ वृद्ध को स्वीकार लें...।'
तुम्हारी यह आकांक्षा,
तुम्हारी यह तैयारी, स्पष्ट कहती है कि तुम
वृद्ध नहीं हो। शरीर से वृद्ध कोई हो...। यह चित्त की युवावस्था है। यह हिम्मत,
यह साहस, बुढ़ापे में भी! भीतर बहती हुई हिम्मत,
यौवन, नये को अंगीकार करने की जोखिम, तुम्हारे वृद्ध होने का प्रमाण नहीं देती। शरीर से बूढ़े होना कोई बात नहीं,
वह तो स्वाभाविक है। लेकिन इस देश का अभागापन ऐसा है कि यहां बच्चे
पैदाइश से ही बूढ़े होते हैं। नहीं होते तो मां-बाप, शिक्षक,
धर्मगुरु, सब मिल-जुल कर उनको बूढ़ा बनाने में
लग जाते हैं। बच्चों से लोग अपेक्षा करते हैं कि बूढ़ों की तरह व्यवहार करें। और जो
बच्चा बूढ़ों की तरह व्यवहार करता है, बड़ी प्रशंसा पाता है कि
बड़ा शिष्टाचारी है।
मुझे यह सौभाग्य बचपन से नहीं मिला। किसी ने कभी मेरी प्रशंसा
नहीं की।
मेरे एक अध्यापक,
हर वर्ष, ब्राह्मण थे तो श्रावण के महीने में
राखी बांधने के समय घर-घर जाकर राखी बांधते थे। वे मुझे भी राखी बांधते थे। जब
मुझे राखी बांधते थे तो मेरे पिता कहते थे कि उनके पैर छुओ और यह रुपया उनको भेंट
करो। एक बार यूं हुआ कि वे आए, मेरे पिता मौजूद न थे।
उन्होंने राखी बांधी, मैं झटके से उठा और उनका हाथ पकड़ कर
अपना पैर छुआ दिया।
वे तो एकदम भनभना गए। एकदम क्रुद्ध हो गए। मैंने कहा, यह भी क्या बात! इतनी दफे
मैंने छुआ, तुमने मजा लिया। एकाध बार मुझको भी मजा लेने दो।
और संयोग की बात है कि आज मेरे पिता हैं नहीं, नहीं तो वे
एकदम मेरे पीछे पड़ जाते हैं कि पैर छुओ। और किसी को पता न चलेगा, क्योंकि कोई है ही नहीं, मैं हूं और आप हैं। नाहक
क्रुद्ध हो रहे हो! अगर क्रुद्ध हुए तो पूरे गांव को खबर कर दूंगा।
बोले कि भई ठीक,
तू भी ठीक कहता है। अब जो हुआ सो हुआ। किसी से कहने की कोई जरूरत
नहीं।
और मैंने कहा,
आप आइंदा खयाल रखना। अब मुझे राखी मत बांधना। क्योंकि मैंने मजा ले
लिया। अब यह मजा मैं नहीं छोड़ सकता।
वे मुझे डर-डर कर देखते थे कक्षा में भी, और मेरी तरफ नजर रखते। मैं
भी आंख से जवाब दे देता कि खयाल रखना। हालांकि मैंने पूरे गांव में खबर धीरे-धीरे
उड़ा दी। वे मुझसे पूछने लगे कि लोगों को कैसे पता चल रहा है? मैंने कहा, अजीब! इस गांव में कई लोग मालूम होता है
विचार पढ़ना जानते हैं। मैं किसी से कह नहीं रहा, आप किसी से
कह नहीं सकते; पता नहीं कैसे लोगों को पता चल रहा है! लोग
मुझसे पूछते हैं तो मजबूरी में मुझे सत्य के लिए हां तो भरना ही पड़ता है कि हां यह
बात हुई है, इस तरह की घटना घटी है।
बच्चों को बचपन से ही आज्ञाकारी बनाने की ऐसी चेष्टा चलती है कि
धीरे-धीरे वे बेचारे आज्ञाकारी गुलाम ही हो जाते हैं। फिर उनकी सामर्थ्य ही टूट
जाती है। वे बूढ़े ही हो जाते हैं--असमय बूढ़े हो जाते हैं।
यह तो सौभाग्य की बात है गरीबदास कि तुम वृद्ध हो, फिर भी मेरी चोटों को सह
सके; न केवल सह सके, बल्कि समझने की भी
तुमने चेष्टा की। और तुम राजी भी हो संन्यास के लिए। लेकिन वहां कुछ बातें तुम्हें
खयाल में रखनी होंगी।
तुम कहते हो: "आप संन्यास में दीक्षा दें और समाधि का
अनुभव कराएं, तो
मैं इन धर्मशास्त्रों को आज ही फेंक दूं।'
समाधि का अनुभव शर्त से नहीं हो सकता। जब तक शर्त है तब तक
समाधि संभव नहीं। संन्यास में दीक्षा देने को मैं राजी हूं। लेकिन इसके पहले कि
तुम शास्त्रों को जलाओ, तुम्हें शर्त को जलाना पड़ेगा। यह शर्त कि आप मुझे समाधि का अनुभव
कराएं...। कोई किसी को समाधि का अनुभव नहीं करा सकता। इशारा कर सकता हूं, संकेत दे सकता हूं। करना तो तुम्हीं को होगा। और अगर शर्त पहले से
तुम्हारे मन में रही तो तुम न कर पाओगे। तुम्हारी शर्त ही बाधा बन जाएगी। समाधि तो
बेशर्त अनुभव है। अगर तुम्हारी यह अपेक्षा रही कि अब समाधि का अनुभव हो, अब समाधि का अनुभव हो, अभी तक नहीं हुआ! तीन दिन हो
गए, तेरह दिन हो गए, तीन साल हो गए,
अभी तक नहीं हुआ! बस वहीं अड़चन हो जाएगी।
राम नाम जान्यो नहीं
ओशो
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