यह आकाश किसका है?
चांदत्तारे किसको हैं? ये वृक्ष, ये पक्षी, ये लोग किसके हैं? झुकने
में क्या सीमा लगा रहे हो? जहां खड़े हो वहीं झुको; जहां बैठे हो, वहीं झुको। भूमि का प्रत्येक कण उसका
तीर्थ है। सब पत्थर काबा के पत्थर हैं, और सब घाट काशी के
काट हैं। कैलाश ही कैलाश है। चलने वहीं हो, उठते वहीं हो,
जीते वहीं हो, मरते वहीं हो। सीमाएं तोड़ो!
सुंदरदास ठीक कहते हैं--हिंदू की हद छाड़िकै। हद छोड़ दी हिंदू की, उस दिन जाना। हद छोड़ते ही ज्ञान अवतरित होता है। तजि तुरक की राह। और
मुसलमान की राह भी छोड़ दी। परमात्मा को राह से थोड़ी ही पाना होता है!
राह तो तो बाहर जाने के लिए होता है, भीतर जाने की कोई राह नहीं
होती। मार्ग तो दूर से जोड़ने के लिए होते हैं। जो पास से भी पास है उसे जोड़ने के
लिए किस मार्ग की जरूरत है? चले कि भटके! रुको। सब राह जाने
दो। सारे पंथ जाने दो। तुम तो आंख बंद करो, अपंथी हो जाओ,
अमार्मी हो जाओ। परमात्मा दूर नहीं है कि रास्ता बनाना पड़े।
परमात्मा तुम्हारे अंतस्तल में विराजमान है। कोई रास्ता बनाने की जरूरत नहीं है,
तुम वहां हो ही। सिर्फ आंख खोलनी है। सिर्फ बोध जगाना है। सिर्फ
स्मरण करना है--हरि बोलौ हरि बोल। तुम मतलब समझते हो?
इसका मतलब है कि बस इतने से ही हो जाएगा, स्मरण मात्र से हो जाएगा।
सुरति काफी है। आदमी ने परमात्मा को खोया नहीं है। खो देता तो बड़ी मुश्किल हो
जाती। खो देता तो कहां खोजते? कैसे खोजते इस विराट में,
अगर खो देते?
बामुश्किल चांद तक पहुंच गए हो। अस्तित्व बहुत बड़ा है। पहले तो
पर पहुंचने के लिए कितना समय लगे अगर हमारे पास ऐसे यान हों जो प्रकाश की गति से
चलें? प्रकाश की
गति बहुत है--एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड। उसमें साठ का गुना करना,
तो एक मिनिट में प्रकाश उतना चला है। फिर उसमें चौबीस का गुना करना।
चौबीस घंटे में उतना चलता है। फिर उसमें तीन सौ पैंसठ का गुना करना। तो वह सबसे
छोटा प्रकाश का मापदंड है--एक प्रकाश-वर्ष। प्रकाश को नापने का वह तराजू है। सबसे
छोटा माप, जैसे सोने को रत्ती से नापते हैं ऐसी वह रत्ती है।
एक वर्ष में जितना प्रकाश चलता है, वह सबसे छोटा मापदंड है।
और एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता है। अगर हमारे पास प्रकाश की गति से
चलने यान हों जिसकी अभी कोई संभावना दिखाई नहीं पड़ती, तो
सबसे निकट के तारे में पहुंचने में चालीस वर्ष लगेंगे। और यह निकट का तारा है।
फिर इससे और दूर तारे हैं,
बहुत दूर तारे हैं। ऐसे तारे हैं जिन तक पहुंचने में अरबों-अरबों
लगेंगे। जीएगा कहां आदमी? ऐसे तारे हैं जिनसे रोशनी चली थी
उस दिन जब पृथ्वी बनी; अभी तक पहुंच नहीं। और ऐसे तारे हैं
जिनकी रोशनी तब चली थी, जब पृथ्वी नहीं बनी थी और तब
पहुंचेगी जब पृथ्वी मिट चुकी होगी। उन तारों की रोशनी का मिलना ही नहीं होगा
पृथ्वी से। पृथ्वी को बने करोड़ वर्ष हो गए, और करोड़ों वर्ष
अभी जी सकती है, अगर आदमी पगला न जाए। जिसकी बहुत ज्यादा
संभावना है कि आदमी पागल हो जाएगा और अपने को नष्ट कर लेगा। तो उन तारों की रोशनी
को पता नहीं चलेगा कि पृथ्वी बीच में बनी, गई खो गई; कभी थी या नहीं। उन तक हम कैसे पहुंचेंगे?
उसके पार भी विस्तार है। विस्तार अंतहीन है। अगर परमात्मा खो
जाए तो कहां खोजेंगे, कैसे खोजेंगे, किससे पूछेंगे उसका पता-ठिकाना?
नहीं असंभव हो जाएगी बात फिर। परमात्मा मिल जाता है, क्योंकि खोया नहीं है। मेरी इस बात को सूब गांठ बांधकर रख लेना: परमात्मा
मिलता है, क्योंकि खोया नहीं। मिल ही हुआ है इसलिए मिलता है:
सिर्फ याद खो गई है परमात्मा नहीं खोया है। हीरा खीसों में पड़ा है, तुम भूल गए हो। कभी-कभी हो जाता है न, आदमी चश्मा
आंख पर रखे रहता है और चश्मा ही खोजने लगता है; कमल कान में
खोंस लेता है और कलम खोजने लगता है। ऐसी ही दशा है, विस्मरण
है।
हरि बोलौ हरि बोल में यही तुम्हें याद दिलाया जा रहा है। अगर
तुम पुकार लो मन भर कर, पूरे हृदय से, रोएं-रोएं से, श्वास-श्वास
से तो बस बात हो जाएगी। और कुछ करना नहीं है।
हरि बोलौ हरि बोल
ओशो
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