गुरु की धारणा मौलिक रूप से पूर्वीय है। पूर्वीय ही नहीं, भारतीय है।
गुरु जैसा शब्द दुनियां की किसी भाषा में नहीं है। शिक्षक, टीचर, मास्टर ये
शब्द हैं: अध्यापक। लेकिन गुरु जैसा कोई भी शब्द नहीं है। गुरु के साथ
हमारे अभिप्राय ही भिन्न है।
पहली बात: शिक्षक से हमारा संबंध व्यावसायिक है, एक व्यवसाय का संबंध है।
गुरु से हमारा संबंध व्यवसायिक नहीं है। आप किसी के पास कुछ सीखने जाते
है। ठीक है, लेनदेन की बात है। आप उससे कुछ उसे भेंट कर देते है, बात
समाप्त हो जाती है यह व्यवसाय है। एक शिक्षक से आप कुछ सीखते है सीखने के
बदले में उसे कुछ दे देते है, बात समाप्त हो सकती है। गुरु से जो हम सीखते
है उसके बदले में कुछ भी नहीं दिया जा सकता। कोई उपाय देने का नहीं है।
क्योंकि जो गुरु देता है उसका कोई मूल्य नहीं है। जो गुरु देता है, उसे
चुकाने का कोई उपाय नहीं है। उसे वापस करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि
शिक्षक देता है सूचनाएं जानकारियां, इकमेंशन। गुरु देता है अनुभव। यह बड़े
मजे की बात है कि शिक्षक जो जानकारी देता है, जरुरी नहीं कि वह जानकारी
उसका अनुभव हो, आवश्यक नहीं। जो शिक्षक आपको नीति शास्त्र पढ़ाता है और
बताता है कि शुभ क्या है, अशुभ क्या है? नीति क्या है, अनीति क्या है?
जरूरी नहीं कि वह शुभ का आचरण करता हो। वह सिर्फ शिक्षक है, वह सूचना करता
है। गुरु जो कहता है, वह सूचन नहीं है, वह उसके जीवन का आविर्भाव है।
तो हम बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को गुरु कहते है। गुरु का अर्थ यह है
कि वे जो कह रहे है, उन्होंने जीया है, जाना ही नहीं। जानने वाले तो बहुत
गुरु है। वे गांव गांव में है। यूनिवर्सिटीज उनसे भरी हुई पड़ी है। वे
शिक्षक है, गुरु नहीं। जो कुछ जाना गया है, वह उन्होंने संगृहीत किया है,
वे आपको दे रहे है। वे केवल माध्यम हैं। उनके पास अपना कोई उत्स, अपना कोई
स्रोत नहीं है। वे उधार है। वे जो भी दे रहे है उन्होंने कहीं से पाया है।
उन्हें किसी और ने दिया है वे बीच के सेतु है जिनसे जानकारियां यात्राएं
करती है। एक पीढ़ी मरती है तो जो भी वह पीढ़ी जानती है, दूसरी पीढ़ी को दे
जाती है। इस देने के कम में शिक्षक बीच का काम करता है, बीच की क्ली का काम
करता है। अगर बीच में शिक्षक न हो तो पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को सिखा नहीं
सकती कि उसने क्या जाना। पुरानी पीढ़ी ने जो भी अनुभव किया है, जो भी जाना
है, जो भी उघाड़ा है, जो भी ज्ञान अर्जित किया है वह शिक्षक नयी पीढ़ी को
सौंपने का काम करता है।
गुरु, जो पुरानी पीढ़ी ने जाना है उसको सौंपने का काम नहीं करता, जो
स्वयं उसने अनुभव किया है। और यह जो स्वयं अनुभव किया है, इसे सौंपने का
सूचन की तरह कोई उपाय नहीं है। इसे तो जीवन की विधि के रूपांतरण से ही दिया
जा सकता है। एक शिक्षक के पास से हम ज्ञानी होकर लौटते हैं, ज्यादा जानकर
लौटते हैं, लर्नेड़ होकर लौटते है। एक गुरु के पास हम रूपांतरित होकर लौटते
है। पुराना आदमी मर जाता है, नये का जन्म होता है। गुरु के पास जब हम जाते
हैं तब हम वही नहीं लौट सकते, अगर हम गुरु के पास गये हों। गुरु के पास
जाना कठिन मामला है। लेकिन, अगर हम गुरु के पास गये हों तो, जो जाता है, वह
फिर कभी वापस नहीं लौटता। दूसरा आदमी वापस लौटता है।
शिक्षक के पास जब हम जाते हैं और जाना बहुत आसान है तो हम वही लौटते हैं
जो हम गये थे। थोड़े से और समृद्ध होकर लौटते हैं थोड़ा सा और ज्यादा जानकर
लौटते है। हम जो थे, उसी में शिक्षक जोड़ देता है एडीशन। हम जो थे उसी में
थोड़े रंग रूप लगा देता है, वस्त्र ओढ़ा देता है। हम जो थे उसमें और शिक्षक
के द्वारा जो हम निर्मित होते है, दोनों के बीच में कोई डिसकंटीन्यूटी, कोई
गैप, कोई खाली जगह नहीं होती।
गुरु के पास जब हम जाते हैं तो जो हम थे, वह और आदमी था और जो हम लौटते
हैं वह और आदमी है। गुरु हममें जोड़ता नहीं, हमें मिटाता है और नया निर्मित
करता है। गुरु हमको ही संवारता नहीं, हमें मारता है और जिलाता है। गुरु के
पास जाने के बाद हमारे अतीत में और हमारे भविष्य में एक गैप, एक अंतराल हो
जाता है। लौट के आप देखेंगे तो अपनी कथा ऐसी लगेगी, किसी और की कहांनी है।
अगर गुरु के पास गये। अगर शिक्षक के पास गये तो अपनी कथा अपनी ही कथा है।
बीच में कोई खाली जगह नहीं है जहां चीजें टूट गयी हों, जहां आपका पुराना
रूप बिखर गया हो और नये का जन्म हुआ हो।
इसलिए हमने इस मुल्क में एक शब्द खोजा था, वह है द्विज। द्विज का अर्थ
है ट्वाइस बॉर्न, दुबारा जन्मा हुआ वही आदमी है, जिसे गुरु मिल गया। नहीं
तो दुबारा जन्मा हुआ आदमी नहीं है। एक जन्म तो मां बाप देते है, वह शरीर का
जन्म है। एक जन्म गुरु के निकट घटित होता है, वह आत्मा का जन्म है। जब वह
जन्म घटित होता है तो आदमी द्विज होता है। उसके पहले आदमी एक जन्मा है,
उसके बाद दोहरा जन्म हो जाता है, ट्वाइस बॉर्न हो जाता है।
गुरु के लिए हमने जैसी श्रद्धा की धारणा बनायी है, ऐसा पश्चिम के लोग
जब सुनते है तो भरोसा नहीं कर पाते कि ऐसी श्रद्धा की क्या जरूरत है। जब
किसी व्यक्ति से सीखना है तो सीखा जा सकता है। ऐसा उसके चरणो में सिर रखकर
मिट जाने की क्या जरूरत है! और उनका कहना भी ठीक है, सीखना ही है तो चरणों
में सिर रखने की कोई भी जरूरत नहीं है अगर सीखना ही है तो सिर और सिर का
संबंध होगा, चरणों और सिर के संबंध की क्या जरूरत है?
लेकिन, हमारी गुरु की धारणा कुछ और है। यह सिर्फ सीखना नहीं है, यह
सिर्फ बौद्धिक आदान प्रदान नहीं है। यह संवाद बुद्धि का नहीं है, दो सिरों
का नहीं है। क्योंकि जो गहन अनुभव है, बुद्धि तो उनको अभिव्यक्त भी नहीं कर
पाती। जो गहन अनुभव है, उनका संबंध तो हृदय से हो पाता है। बुद्धि से नहीं
हो पाता। जो क्षुद्र बातें है, वे कही जा सकती हैं शब्दों में। जो विराट
से संबंधित है, गहन से, ऊंचाइयों से, अनंत गहराइयों से, वे कही नहीं जा
सकती शब्दों में, लेकिन प्रेम में अभिव्यक्त की जा सकती है। तो गुरु और
शिष्य के बीच जो संबंध है वह गहन प्रेम का है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच
जो संबंध है वह लेनदेन का है, व्यावसायिक है, बौद्धिक है। गुरु और शिष्य
के बीच का जो संबंध है, वह हार्दिक है।
ओशो
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