प्रश्न तीन तरह के पूछे जाते हैं।
एक तो, तुम्हारी मूढ़ता से जन्मते हैं।
उनका मैं कभी उत्तर नहीं देता। क्योंकि तुम्हारी मूढ़ता को उतना
सहारा देना भी नुकसान, तुम्हें हानि पहुंचाएगा। तुम्हारी मूढ़ता को उतनी
स्वीकृति भी देना–कि मूढ़ता से उठे प्रश्न का भी कोई अर्थ होता है, घातक है। मूढ़ता से उठे प्रश्न इस भांति पूछे जाते हैं कि जैसे पूछने वाला मुझ पर
कोई पूछ कर एहसान कर रहा हो। उसका स्वर साफ होता है। मूढ़ता से भरे प्रश्न
असंबंधित होते हैं। न कबीर से कोई नाता, न मुझ से कोई नाता, न तुमसे कोई
नाता।
जैसे आज ही एक प्रश्न है, कि यदि कम्यूनिज्म आ जाए, तो आपके संन्यासी तो काम कर लेंगे; आपका क्या होगा? अब इसका न तो कबीर से कुछ लेना-देना है, न तुमसे कुछ लेना-देना है, न
मुझसे कुछ लेना-देना है। “यदि” भी कोई प्रश्न होता है? “यदि” से कहीं कोई
प्रश्न शुरू होता है? फिर मेरी सारी शिक्षा यही है, कि “अभी और यहां” जीयो।
कल क्या होगा? कल तुम रहोगे, कल मैं रहूंगा। कल जो होगा, उसे हम सामना
करेंगे।
मूढ़ता से भरा प्रश्न ऐसा मानकर चलता है कि शायद इसका जवाब दिया नहीं जा
सकता, इसीलिए पूछता है। उन प्रश्नों को मैं छोड़ देता हूं। वे निरर्थक हैं।
वे मेरा और तुम्हारा समय खराब करेंगे। उनमें चुनने जैसा कुछ भी नहीं है।
दूसरा बड़ा वर्ग है, उसके भी मैं उत्तर कभी नहीं देता। वे तुम्हारे पांडित्य से आते हैं। न तो मूढ़ का उत्तर देता हूं, न पंडित का। पांडित्य के प्रश्न इस तरह के होते हैं, कि वेद में ऐसा कहा है, आपने ऐसा क्यों कहा? वेद ने कुछ ठेका लिया है? मेरे ऊपर कोई वेद की जिम्मेवारी है, कि वेद ने
ऐसा क्यों कहा है? तुम वेद के ऋषियों को कब्रों से उखाड़ो, उनसे पूछो। मैं
क्या कह रहा हूं, उससे ज्यादा मेरी किसी के संबंध में कोई जिम्मेवारी नहीं
है। और अगर वेद में कुछ कहा है और मैं उससे भिन्न कह रहा हूं, विपरीत कह
रहा हूं, तो मैं कोई तालमेल बिठाने को नहीं हूं। मैं कोई समझौता करने को
नहीं हूं। तुम अपने वेद को सुधार लो, अगर मेरी बात ठीक लगती हो। अगर मेरी
बात ठीक न लगती हो, मुझे छोड़ दो; वेद को पकड़ लो, लेकिन व्यर्थ के प्रश्न मत
उठाओ।
पांडित्य के प्रश्न ऐसे होते हैं, जैसे कोई मेरी परीक्षा ले रहा हो। मूढ़
ऐसे पूछता है, जैसे इसका जवाब हो ही नहीं सकता। वह मुझ पर एहसान कर रहा
है। पंडित ऐसे पूछता है, जैसे इसका जवाब उसे पहले से मालूम है। वह सिर्फ
मुझे एक परीक्षा का मौका दे रहा है। इन दोनों को मैं छोड़ देता हूं।
तब बच रहते हैं, मुश्किल से दस प्रतिशत प्रश्न, जो जिज्ञासा से जन्मते
हैं, मुमुक्षा से। जो तुम्हारी जीवन की खोज से आविर्भूत होते हैं। जो
तुम्हारी जीवन की समस्या से संबंधित होते हैं। जो प्रामाणिक हैं। जिनको हल
करने पर तुम्हारे जीवन का अर्थ निर्भर होगा। जो हल होंगे तो तुम्हारे जीवन
का ढंग रूपांतरित होगा। जो तुम्हारी प्यास हैं, भूख हैं; बौद्धिक नहीं हैं,
खोपड़ी से नहीं आ रहे हैं। तुम्हारे समग्र अस्तित्व से आविर्भूत हो रहे
हैं। जिनके ऊपर तुम्हारी जिंदगी दांव पर लगी है। उनके हल होने पर बहुत कुछ
निर्भर है। उनके हल होने पर तुम भी हल हो जाओगे। वे प्रश्न नहीं हैं उन
प्रश्नों में तुम खुद हो। वे जीवंत हैं। न तो शास्त्रों से उधार लिए गए
हैं, न अहंकार की जड़ता से पैदा हुए हैं।
जब मैं देखता हूं कि प्रश्न प्रामाणिक हैं–इसे देखने में देर नहीं लगती।
क्योंकि तुम्हारे प्रश्न में तुम्हारे आंसू छिपे होते हैं। तुम्हारे
प्रश्न में तुम्हारी प्यास छिपी होती है। तुम्हारे प्रश्न में तुम्हारे
प्राण धड़कते हैं। तुम्हारे प्रश्न में तुम मेरे पास आते हो। न तो तुम्हारे
पास कोई उत्तर है पांडित्य का; और न तुमने किसी मूढ़तावश पूछ लिया है। तुमने
मुमुक्षा से पूछा है। तुम खोजी हो। तुम यात्रा पर निकले हो। तुम्हारी
यात्रा पर मैं तुम्हें थोड़ा साथ दे सकूं, तुम्हारा थोड़ा बोझ कम कर सकूं,
तुम्हारे भटकाव को थोड़ा कम कर सकूं, तुम्हें मार्ग पर ले आ सकूं, उन्हीं
प्रश्नों के उत्तर देता हूं।
और ये जो प्रश्न हैं, इनके रूप ही भिन्न-भिन्न होते हैं; इनका प्राण एक
ही होता है। अगर बहुत गौर से देखो, तो ये जो तीसरी कोटि के प्रश्न हैं,
जिनके मैं उत्तर देता हूं, ये एक ही प्रश्न के विभिन्न ढंग हैं और इनका एक
ही उत्तर है। जिस दिन तुम जानोगे, जागोगे, उस दिन तुम पाओगे, तुमने
बहुत-बहुत ढंग से एक ही प्रश्न पूछा था; और मैंने बहुत-बहुत ढंग से एक ही
उत्तर दिया था।
जैसे ही मुझे उस एक की प्रतिध्वनि मिलती है किसी प्रश्न में, मैं सदा
तत्पर हूं उत्तर देने को। इसलिए कोई धर्म-संकट खड़ा नहीं होता। मामला बिलकुल
सीधा-साफ है। गणित बिलकुल स्पष्ट है। मुझे जरा भी दुविधा नहीं होती।
तुम्हारे प्रश्न को हाथ में लेते ही, तुम्हारी पंक्तियों को पढ़ते ही
तुम्हारे प्राण वहां उपस्थित हो जाते हैं, कैसे तुमने पूछा है।
कहे कबीर दीवाना
ओशो
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