साधारणत: लोग परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का मतलब है, वह
बाहर है। प्रार्थना प्रकाश का काम करेगी, फोकस का, और हम उसको देखेंगे।
पूजा करते हैं, पूजा प्रकाश है। पूजा के प्रकाश में वह प्रगट होगा; हम उसे
देखेंगे। एक मार्ग पूजा और प्रार्थना का है, उपासना का है। उपासना की धारणा
है कि वह बाहर है; वह परमपुरुष कहीं छिपा है बाहर, आकाश में वह प्रगट
होगा। अगर हम तैयार हो गए, तो वह प्रगट होगा।
दूसरा मार्ग ध्यान का है, साधना का है। वह परमपुरुष बाहर नहीं छिपा है,
भीतर मौजूद है। इसलिए किसी पूजापाठ का सवाल नहीं है; मेरे ही निखार का
सवाल है। मैं ही भीतर शुद्ध होता चला जाऊं, जागता चला जाऊं वह प्रगट होगा।
उसके लिए किसी बाह्य साधन, अनुष्ठान, रिचुअल की कोई भी जरूरत नहीं है।
पहला मार्ग बिलकुल गलत है, लेकिन बहुत लोगों को अपील करता है। दूसरा
मार्ग बिलकुल सही है, लेकिन बहुत कम लोगों को आकर्षित करता है। क्यों?
क्योंकि पहला मार्ग सुगम मालूम होता है। हम सत्य से कम, सुगम से ज्यादा
आकर्षित होते हैं। फिर पहले मार्ग में हमें खुद को नहीं बदलना होता है।
पूजा की सामग्री इकट्ठी करने में क्या अड़चन है! दीया जलाने में, धूप दीप
बालने में, घंटा बजाने में क्या अड़चन है! हम तो वही के वही रहते हैं।
आदमी मंदिर चला आता है, वही का वही आदमी जो दुकान पर बैठा था, उसमें
रत्तीभर फर्क नहीं होता। वह जैसे दुकान पर दुकान का काम करता था, ऐसे मंदिर
में आकर मंदिर का, पूजा का क्रियाकाड पूरा कर देता है। मंदिर से वापस चला
जाता है वैसा का वैसा, जैसा आया था। दुकान पर उसमें रत्तीभर फर्क नहीं
पाएंगे। वह वही आदमी होगा। शायद और भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है। क्योंकि घंटाभर जो पूजा में खराब हुआ, इसका बदला भी उसको दुकान में ही निकालना
पड़ेगा। वह ग्राहक को ज्यादा लूटेगा, क्योंकि घंटाभर जो खराब हुआ, वह जो
परमात्मा को दे आया है, ग्राहक की जेब से निकालेगा।
इसलिए धार्मिक दुकानदार अक्सर खतरनाक दुकानदार होते हैं। तो धार्मिक
आदमी से जरा सावधान रहना चाहिए, क्योंकि कुछ समय वह परमात्मा को दे रहा है,
जो उसे लग रहा कि व्यर्थ जा रहा है। उसको कहीं से वह निकालना चाहेगा। उसकी
जिंदगी में कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता। जिंदगीभर मंदिर जाकर, वह वही का वही
बना रहता है।
लेकिन सुगम है मंदिर जाना; मन में जाना कठिन है। इसलिए सुगम को लोग चुन
लेते हैं। पर सुगमता से कोई सत्य का संबंध नहीं है। सुविधा से सत्य का कोई
संबंध नहीं है। इसलिए अधिक लोग पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं। बहुत
थोड़े लोग ध्यान करते हैं। पर जो ध्यान करते हैं, वे ही पहुंचते हैं।
यही नचिकेता के मन में सवाल उठा है कि मैं प्रार्थना करूं? कि ध्यान
करूं? मैं उसे बाहर खोजूं किसी क्रियाकांड से, या भीतर खोजूं स्वयं जागकर?
वह अनुभव में आता है, या प्रकाशित होता है?
नचिकेता के इस आंतरिक भाव को समझकर यमराज ने कहा वहां न तो सूर्य
प्रकाशित होता है न चंद्रमा और तारों का समुदाय ही प्रकाशित होता है और न
ये बिजलियां ही वहां प्रकाशित होती हैं। फिर यह लौकिक अग्नि ये दीए तुम जो
जलाते हो इनसे वह कैसे प्रकाशित हो सकता है क्योकि उसी के प्रकाश से ऊपर
बतलाए हुए सूर्यादि सब प्रकाशित होते हैं। उसी के प्रकाश से यह संपूर्ण जगत
प्रकाशित होता है।
सूरज निकला हो तो हम उसे कैसे जानते हैं?
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह अपने नौकर से कह रहा था, तू जरा बाहर जाकर
देख, सर्दी बहुत है, सूरज निकला कि नहीं? उस आदमी ने लौटकर कहा कि बाहर तो
घुप्प अंधेरा है! तो नसरुद्दीन ने कहा, दीया जलाकर देख, सूरज निकला कि
नहीं?
सूरज को देखने के लिए किसी दीए की कोई जरूरत तो है नहीं। सूरज स्वयं
प्रकाशित है। असल में दूसरी चीजों को हम सूरज के प्रकाश से देखते हैं। सूरज
को किसी प्रकाश से नहीं देखते।
यम कह रहा है कि सूर्य का प्रकाश भी उसके ही प्रकाश से प्रकाशित है।
सूरज के पीछे भी उसी की ऊर्जा छिपी है। सारी अग्नि में वही जल रहा है, सारी
किरणें उसी की हैं। इसलिए तुम उसे किसके प्रकाश में देखोगे? उसे देखने के
लिए किसी प्रकाश की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वह स्वयं ही प्रकाश का मूल
स्रोत और आधार है।
वह अनुभव से देखा जाएगा, प्रकाश से नहीं। मूल स्रोत में सरककर देखा
जाएगा। उसके लिए कोई दीया लेकर खोजने की आवश्यकता नहीं है। उसे खोजने के
लिए कहीं भी नहीं जाना है। अपने ही भीतर, अपने जीवन के मूल स्रोत में सरक
जाना है। वह वहा मौजूद है। उससे ही सब प्रकाशित है। आंखे उसी से देख रही
हैं। चांदतारे उसी से ज्योतिर्मय हैं। सारा अस्तित्व उसकी ही धड़कन है। उसे
जानने के लिए किसी माध्यम की कोई भी जरूरत नहीं है।
कठोपनिषद
ओशो
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