एक दृष्टि है हिंदू उपनिषदों, वेदों, गीता की। उस दृष्टि के अनुसार वह
परम तत्व एक ही है, शेष सब उसी की अभिव्यक्तियां हैं। आत्माएं नहीं हैं,
परमात्मा है। व्यक्ति नहीं है, समष्टि है। दूसरी दृष्टि है जैनों की। वह
परम तत्व एक नहीं है, असंख्य है, अनेक है। परमात्मा नहीं है, आत्माएं हैं।
समष्टि नहीं है, व्यक्ति है। तीसरी दृष्टि है बौद्धों की। बौद्धों के
अनुसार न तो परमात्मा है और न आत्मा है। न तो समष्टि है और न व्यक्ति है।
परम शून्य है।
ये तीनों बड़ी विपरीत दृष्टियां हैं। और हजारों वर्ष तक इन तीनों
दृष्टियों के बीच विवाद चलता रहा है। कोई निष्पत्ति, कोई निष्कर्ष भी नहीं
निकलता। इन तीनों दृष्टियों को प्रस्तावित करने वाले लोग परमज्ञानी हैं। इन
तीनों दृष्टियों का समर्थन अनुभवियो के द्वारा हुआ है, जिन्होंने जाना है।
इसलिए बड़ी कठिनाई है कि इतना बड़ा भेद क्यों? पंडितो में विवाद हो, समझ में
आ जाता है। क्योंकि अनुभव तो वहा नहीं है, शब्दों का जाल है, सिद्धातो की
तार्किक व्याख्या और व्यवस्था है, भीतर का कोई अनुभव नहीं है।
लेकिन महावीर, बुद्ध या शंकर ; वे पंडित नहीं हैं। वे जो कह रहे हैं, वह
किसी विचार का प्रतिपादन नहीं है। वह कोई फलसफा नहीं है। वे अपने अनुभव को
ही कह रहे हैं। उन्होंने जो जाना है, वही कह रहे हैं। और उनके जानने में
रत्तीभर भूल नहीं है। फिर इतना बड़ा विवाद क्यों?
इस कारण भारत की पूरी जीवनधारा तीन हिस्सों में बंट गई। हिंदुओं की,
जैनों की, बौद्धों की तीन चितनाएं भारत के मन पर हावी रही हैं। और निर्णय न
हो सकने से भारत का मन भी दुविधाग्रस्त हो गया है। इसे थोड़े गहन और
सूक्ष्म से समझना जरूरी है।
मेरे देखे इन तीनों में रत्तीभर भी भेद नहीं है। वक्तव्य बिलकुल भिन्न
है, सार जरा भी भिन्न नहीं है। और वक्तव्य केवल भिन्न नहीं हैं, बिलकुल
स्पष्ट रूप से विपरीत हैं लेकिन प्रयोजन और अभिप्राय एक है। जो उस एक
अभिप्राय को नहीं देख पाता, वह समस्त धर्मों के बीच एकता को भी कभी नहीं
देख पाएगा। फिर भी इन तीन जीवनधाराओं ने अलग अलग प्रतिपादन किए, उसके
कारण हैं।
वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, गीताए घोषणा करती रही हैं कि वह एक है। इस
एक का अज्ञानियों ने जो अर्थ लिया, वह भयंकर हो गया। इस एक का यह अर्थ हुआ
कि तब करने योग्य कुछ भी नहीं है। सभी रूप उसके हैं पाप में भी वही है,
पुण्य में भी वही है। साधु में भी वही है, चोर में भी वही है। संसार में भी
वही है, मोक्ष में भी वही है। यहां भी वही है, वहां भी वही है। सब जगह वही
है। बुरे में भी वही है। तो करने योग्य क्या है? कर्तव्य जैसी कोई चीज
बचती नहीं।
अगर एक ही तत्व का सारा विस्तार है, तो जीवन में करने का कोई उपाय नहीं
बचता। तब शुभ और अशुभ में भेद क्या है? तब धर्म और अधर्म में भेद क्या है?
तब माया और ब्रह्म में भेद क्या है? अगर एक ही है, सच में अगर एक ही है तो
कुछ करने को शेष नहीं रह जाता। क्या पाना है! क्या छोड़ना है! इस एक ब्रह्म
की अनूठी धारणा का परिणाम एक गहन आलस्य हुआ। एक गहरा प्रमाद छा गया।
तो लोग वेद पढ़ते रहे, उपनिषद पढ़ते रहे, गीताएं कंठस्थ करते रहे, और करने
योग्य कुछ भी शेष न बचा। जीवन रूपांतरित नहीं हुआ। जिन्होंने यह प्रतिपादन
किया था, उनका इरादा यह नहीं था। लेकिन ज्ञानियों के इरादे और अज्ञानियों
के मंतव्य कहीं मेल नहीं खाते। खा भी नहीं सकते। जिन्होंने कहा था, एक है,
उनका प्रयोजन यह था कि तुम अपने को छोड़ दो। तुम नहीं हो, वही है। तुम्हारी
अस्मिता, तुम्हारा अहंकार झूठा है। तुम यह समझते हो कि मैं हूं, यही
तुम्हारी भ्रांति और यही तुम्हारे जीवन की बाधा है। यही तुम्हारा दुख, यही
तुम्हारा बंधन है।
उस विराट में तुम अपनी सरिता को खो दो। तुम अपने को अलग बचाने की कोशिश
मत करो। जीवन की सारी चिंता-मैं अलग हूं, इससे ही पैदा होती है। अगर मैं
अलग हूं तो मुझे मेरी सुरक्षा करनी पड़ेगी। अगर मैं अलग हूं तो सबसे मैं लड़
रहा हूं। जीवन के संघर्ष में कोई मेरा साथी नहीं है, सब वस्तुत: मेरे
प्रतियोगी हैं। तो जीवन एक कलह हो जाती है। उस कलह में चिंता का जन्म होता
है।
और अगर मैं अलग हूं, तो मृत्यु का भय समा जाता है। क्योंकि फिर मुझे
मरना पड़ेगा। व्यक्ति को तो हम रोज मरते देखते हैं, समष्टि कभी नहीं मरती।
व्यक्ति तो मरते जाते हैं, विराट सदा जीता है। जीवन नष्ट नहीं होता, लेकिन
जीवन अलग- अलग घेरों में बंद तो हमें रोज नष्ट होते दिखता है। दीए तो रोज
बुझते हैं, अग्नि सदा है। तो फिर मृत्यु का भय समाता है। अगर मैं अलग हूं
तो मौत होगी, और अगर मैं इस विराट से जुड़ा हूं और एक हूं तो मृत्यु का कोई
आधार नहीं है, फिर जीवन अमृत है।
कठोपनिषद
www.oshosatsang.org
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