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Friday, January 8, 2016

उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो

किसी चीज पर एकाग्रता शुरू करो। और जब एकाग्रता समग्र हो तो भीतर की और मुड़ो, स्‍वयं के प्रति जागरूक होओ। और तब संतुलन की चेष्‍टा करो। इसमें समय लगेगा। महीनों लग सकते है। वर्षों भी लग सकते है। यह इस पर निर्भर है कि तुम्‍हारा प्रयत्‍न कितना तीव्र है। क्‍योंकि यह बहुत सूक्ष्‍म संतुलन है। लेकिन यह संतुलन आता है। और जब यह आता है तो तुम अस्‍तित्‍व के केंद्र पर पहुंच गए। उस केंद्र पर तुम आत्‍मस्‍थ हो। अचल हो, शांत हो, आनंदित हो, समाधिस्‍थ हो। वहां द्वैत नहीं रह जाता है। इसे ही हिंदुओं ने समाधि कहा है। इसे ही जीसस ने प्रभु का राज्‍य कहा है। 


इसे सिर्फ शाब्‍दिक रूप से, सिर्फ शब्‍दों के तल पर समझना बहुत काम का नहीं है। लेकिन अगर तुम प्रयोग करते हो तो तुम्‍हें आरंभ से ही अनुभव होने लगेगा कि कुछ घटित हो रहा है। जब तुम गुलाब पर एकाग्रता करोगे तो सारा संसार विलीन हो जाएगा। यह चमत्‍कार है कि सारा संसार विलीन हो जाता है। तब तुम्‍हें बोध होता है कि बुनियादी चीज मेरा ध्‍यान है। तुम जहां भी अपनी दृष्‍टि को ले जाते हो वहीं एक संसार निर्मित हो जाता है। और जहां से तुम अपनी दृष्‍टि हटा लेते हो वह संसार खो जाता है। तो तुम अपनी दृष्‍टि से, अपने ध्‍यान से संसार की रचना कर सकते हो।


इसे इस भांति देखो। तुम यहां बैठे हो। अगर तुम किसी व्‍यक्‍ति के प्रेम में हो तो अचानक इस हॉल में एक ही व्‍यक्‍ति रह जाता है। शेष सब कुछ खो जाता है। मानो यहां और कुछ नहीं है। क्‍या हो जाता है। क्‍यों तुम्‍हारे प्रेम में होने पर एक ही व्‍यक्‍ति रह जाता है। सारा संसार बिलकुल खो जाता है। जैसे कि धूप छाया का खेल हो। सिर्फ एक व्‍यक्‍ति यथार्थ है, सच है। क्‍योंकि तुम्‍हारा मन एक व्‍यक्‍ति पर केंद्रित है, एकाग्र है; तुम्‍हारा मन एक व्‍यक्‍ति पर पूरी तरह तल्‍लीन है। शेष सब कुछ छाया वत हो जाता है। धूप छाया का खेल हो जाता है। तुम्‍हारे लिए यह यर्थाथ न रहा।


जब भी तुम एकाग्र होते हो, यह एकाग्रता तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व के पूरे ढंग ढांचे को बदल देती है। तुम्‍हारे चित की सारी रूपरेखा बदल देती है। इसका प्रयोग करो किसी भी चीज पर प्रयोग करो। बुद्ध की किसी प्रतिमा के साथ प्रयोग करो। या किसी फूल या वृक्ष या किसी भी चीज के साथ प्रयोग करो। या अपनी प्रेमिका या अपने मित्र के चेहरे पर प्रयोग करो चेहरे को सिर्फ देखो।


यह सरल होगा, क्‍योंकि अगर तुम किसी चेहरे को प्रेम करते हो तो उस पर एकाग्र होना सरल होगा। और सच बात तो यह है जिन लोगों ने बुद्ध या जीसस या कृष्‍ण पर एकाग्र होने की कोशिश की, वे प्रेमी थे; बुद्ध को प्रेम करते थे। सारिपुत्र या मौद्गल्‍यायन या अनय शिष्‍यों के लिए बुद्ध के चेहरे पर ध्‍यान करना सरल था। जैसे ही वे बुद्ध के चेहरे को देखते थे, वे सरलता से उसकी तरफ प्रवाहित होने लगते थे। उन्‍हें उनसे प्रेम था; वे उनसे मोहित थे।


तो कोई चेहरा खोज लो और जिस चेहरे से भी तुम्‍हें प्रेम हो वह काम देगा बस आंखों में झांको चेहरे पर एकाग्र होओ। और अचानक तुम पाओगे कि सारा संसार विलीन हो गया है। और एक नया ही आयाम खुल गया है। तब तुम्‍हारा चित किसी एक चीज पर एकाग्र होता है तब वह व्‍यक्‍ति या वह चीज तुम्‍हारे लिए सारा संसार बन जाती है।


मेरे कहने का मतलब यह है कि जब तुम्‍हारा ध्‍यान किसी चीज पर समग्र होता है, तब वह चीज ही सारा संसार हो जाती है। तुम अपने ध्‍यान के द्वारा अपना संसार निर्मित करते हो। तुम अपना संसार अपने ध्‍यान से बनाते हो। और जब तुम पूरी तरह तल्‍लीन हो, तुम्‍हारी चेतना जैसे नदी की धार की तरह विषय की तरफ बह रही है। तो अचानक तुम उस मूल स्‍त्रोत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ जहां से ध्‍यान प्रवाहित हो रहा है। नदी बह रही है। तुम उसके उद्गम के प्रति मूल स्‍त्रोत के प्रति होश पूर्ण हो जाओ।


आरंभ में तुम बार-बार होश खो दोगे; तुम यहां से वहां डोलते रहोगे। अगर तुम उद्गम की तरफ ध्‍यान दोगे तो तुम नदी को भूल जाओगे। और उस विषय को, सागर को भूल जाओगे। जिसकी और नदी प्रवाहित हो रही है। यह फिर बदलेगा यदि तुम लक्ष्‍य पर ध्‍यान दोगे तो मूल स्‍त्रोत भूल जाएगा। यह स्‍वभाविक है; क्‍योंकि मन का बंधा-बंधाया ढंग है यह ऑब्‍जेक्ट को देखता है या सब्जैक्ट को।


यही कारण है कि बहुत से लोग एकांत में चले जाते है। ये संसार को छोड़ ही देते है। संसार को छोड़ने का बुनियादी कारण है कि वे विषय को छोड़ रहे है। ताकि वे अपने आप पर एकाग्र हो सके। यह सरल है। अगर तुम संसार छोड़ दो और आँख बंद कर लो, इंद्रियों को बंद कर लो, तो तुम आसानी से स्‍वयं के प्रति बोधपूर्ण हो सकते हो।


लेकिन यह बोध भी झूठा है। क्‍योंकि तुमने द्वैत का एक बिंदू ही चुना है। यह उसी रोग की दूसरी अति है। पहले तुम विषय के प्रति सजग थे, ज्ञेय के प्रति सजग थे और तुम स्‍वयं का, ज्ञाता का बोध नहीं था। और अब तुम ज्ञाता से बंधे हो और ज्ञेय को भूल गए हो। लेकिन तुम द्वैत में ही हो। और फिर यह पुराना ही मन है जा नए रूप में प्रकट हो रहा है। कुछ भी नहीं बदला है।


यही करण है कि मैं इस बात पर जोर देता हूं कि आब्जेक्ट्स के संसार को नहीं छोड़ना है। आब्‍जेक्‍ट्स के जगत से मत भागों; बल्‍कि ऑब्जेक्ट और सब्जैक्ट दोनों के प्रति साथ-साथ बोधपूर्ण होने की कोशिश करो, बाह्म और आंतरिक दोनों के प्रति साथ-साथ सजग बनो। अगर दोनों मौजूद है तो ही तुम दोनों के बीच संतुलित हो सकते हो। अगर एक ही है तो तुम उससे ग्रस्‍त हो जाओगे।

 
जो लोग हिमालय चले जाते है और अपने को बंद कर लेते है, वे तुम्‍हारे ही जैसे लोग है सिर्फ शीर्षासन में खड़े है। तुम आब्जेक्ट्स से बंधे हो; वे सब्जैक्ट से बंध गए है। तुम बाहर अटके हो; वे भीतर अटक गए है। ने तुम मुक्‍त हो, न वे मुक्‍त है। क्‍योंकि एक के साथ तुम मुक्‍त नहीं हो सकते; एक के साथ तुम तादात्‍म्‍य कर लेते हो।
मुक्‍त तो तुम तभी हो सकते हो जब तुम दोनों के प्रति सजग होते हो, दोनों को जानते हो। तब तुम तीसरे हो जाते हो। और यह तीसरा ही मुक्‍ति का बिंदू है। एक के साथ तुम तादात्‍म्‍य कर लेते हो। दो के साथ गति संभव है, बदलाहट संभव है, संतुलन संभव है और तुम मध्‍य बिंदु पर ठीक मध्‍य बिंदु पर पहुंच सकते हो।


बुद्ध कहते थे कि मेरा मार्ग मज्झम निकाय है। मध्‍य मार्ग है। यह बात ठीक से नहीं समझी गई कि क्‍यों वे इसे मध्‍यमार्ग कहने पर इतना जोर देते थे। कारण यह है; उनकी पूरी प्रक्रिया सजगता की है। सम्‍यक स्‍मृति की है यह मध्‍य मार्ग है। बुद्ध कहते है: इस संसार को मत छोड़ो और परलोक से मत बंधो; मध्‍य में रहो। एक अति को छोड़कर दूसरी अति पर मत सरक जाओ। ठीक मध्‍य में रहो। क्‍योंकि मध्‍य में लोक और परलोक दोनों नहीं है। ठीक मध्‍य में तुम मुक्‍त हो। ठीक मध्‍य में द्वैत नही है। तुम अद्वैत को उपलब्‍ध हो गए और द्वैत तुम्‍हारा विस्‍तार भर है जैसे दो पंख हो।


बुद्ध का मज्झम निकाय इसी विधि पर आधारित है। यह बहुत सुंदर विधि है। अनेक कारणों से यह सुंदर है। एक कि यह बहुत वैज्ञानिक है; क्‍योंकि तुम केवल दो के बीच संतुलन को उपलब्‍ध हो सकते हो। अगर एक ही बिंदु हो तो असंतुलन अनिवार्यतः: अनिवार्यतः: रहेगा। इसलिए बुद्ध कहते है। कि जो संसारी है तो असंतुलित और जो त्‍यागी है वे भी दूसरी अति पर असंतुलित है। संतुलित आदमी वह है जो न इस अति पर है और न उस अति पर; जो ठीक मध्‍य में है। तुम उसे संसारी नहीं कह सकते; तुम उसे गैर संसारी भी नहीं कह सकते। वह गति करने के लिए स्‍वतंत्र है; वह किसी से भी आसक्‍त नहीं है, बंधा नहीं है। वह मध्‍य बिंदू पर स्‍वर्णिम मध्‍य पर पहुंच गया है।


दूसरी बात: दूसरी अति पर चला जाना बहुत आसान है बहुत ही आसान। अगर तुम बहुत भोजन लेते हो तो तुम उपवास आसानी से कर सकते हो; लेकिन सम्‍यक भोजन लेना कठिन है। अगर तुम बहुत बातचीत करते हो तो तुम मौन में आसानी से उतर सकत हो। लेकिन तुम मितभाषी नहीं हो सकते। अगर तुम बहुत खाते हो तो बिलकुल न खाना बहुत आसान है यह दूसरी अति है। लेकिन सम्‍यक भोजन लेना, मध्‍य बिंदु पर रूक जाना बहुत मुश्‍किल है। किसी को प्रेम करना सरल है, किसी को धृणा करना भी सरल है; लेकिन उदासीन रहना बहुत मुश्‍किल है। तुम एक अति से दूसरी अति पर जा सकत हो। लेकिन मध्‍य में ठहरना बहुत कठिन है। क्‍यों?


क्‍योंकि मध्‍य में तुम्‍हें अपना मन गंवाना पड़ेगा। तुम्‍हारा मन अतियों में जीता है। मन का मतलब अति है। मन सदा अतियों में डोलता रहता है। तुम या तो किसी के पक्ष में होते हो यह विपक्ष में; तुम तटस्‍थ नहीं हो सकते। मन तटस्‍थता में नहीं हो सकता है। वह यहां हो सकता है या वहां हो सकता है। क्‍योंकि मन को विपरीत की जरूरत है; उसे किसी के विरोध में होना जरूरी है। अगर वह किसी के विरोध में नह हो तो वह तिरोहित हो जाता है। तब उसकी कोई प्रयोजन नहीं रहा जाता है।


इसे प्रयोग करो। किसी भी बात में तटस्‍थ हो जाओ, उदासीन हो जाओ, और तुम पाओगे कि अचानक मन को कोई काम न रहा। अगर तुम पक्ष में हो तो तुम सोच-विचार कर सकते हो। अगर तुम विपक्ष में हो तो भी तुम सोच विचार कर सकते हो। लेकिन अगर तुम न पक्ष में हो न विपक्ष में तो सोच विचार के लिए क्‍या रह जाता है।


बुद्ध कहते है कि उपेक्षा मज्झम निकाय का आधार है। उपेक्षा अतियों की उपेक्षा करो। बस इतना ही करो के अतियों के प्रति उदासीन रहो, और संतुलन घटित हो जाएगा।


यह संतुलन तुम्‍हें अनुभव का एक नया आयाम देगा। जहां तुम ज्ञाता और ज्ञेय दोनों हो, लोक और परलोक, यह और वह शरीर और मन दोनों हो; जहां तुम दोनों हो और साथ ही साथ दोनों नहीं हो, दोनों के पार हो, एक त्रिकोण निर्मित हो गया।


तुमने देखा होगा कि अनेक रहस्‍यवादी गुह्म संप्रदायों ने त्रिकोण को अपना प्रतीक चुना है। त्रिकोण गुह्म विद्या का एक अति प्राचीन प्रतीक रहा, उसका यही कारण है। त्रिकोण में तीन कोण है। सामान्‍यत: तुम्‍हारे दो कोण ही है। तीसरा कोण गायब है। तीसरा कोण अभी नहीं है। वह अभी विकसित नहीं हुआ है। तीसरा कोण दोनों के पार है। दोनों कोण इस तीसरे कोण के अंग है। और फिर भी यह कोण उनके पार है और दोनों से ऊँचा है।


अगर तुम यह प्रयोग करो तो तुम्‍हें अपने भीतर त्रिकोण निर्मित करने में सहयोगी होगा। तीसरा कोण धीरे-धीरे ऊपर उठेगा। और जब वह अनुभव में आता है तो तुम दुःख में नहीं रह सकते। एक बार तुम साक्षी हुए कि दुःख नहीं रह सकता है। दुःख का अर्थ है किसी चीज के साथ तादात्‍म्‍य बना लेना।


लेकिन एक सूक्ष्म बात याद रखने जैसी है तब तुम आनंद के साथ भी तादात्‍म्‍य नहीं जोड़ोगे। यही कारण है कि बुद्ध कहते है: ‘मैं इतना ही कहा सकता हूं,कि दुःख नहीं होगा। समाधि में दुःख नहीं होगा। मैं यह नहीं कहा सकता कि आनंद होगा। बुद्ध कहते है: मैं यह बात नहीं कह सकता; मैं यही कह सकता हूं कि दुःख नहीं होगा।’


और बुद्ध ठीक कहते है। क्‍योंकि आनंद का अर्थ है कि किसी भी तरह का तादात्‍म्‍य नहीं रहा, आनंद के साथ भी तादात्‍म्‍य नहीं रहा। यह बहुत बारीक बात है। सूक्ष्‍म बात है। अगर तुम्‍हें ख्‍याल है कि मैं आनंदित हूं तो देर अबेर तुम फिर दुःखी होने की तैयारी कर रहे हो। तुम अब भी किसी मनोदशा से तादात्‍म्‍य कर रहे हो।


तुम सुखी अनुभव करते हो; अब तुम सुख के साथ तादात्‍म्‍य कर रहे हो। और जिस क्षण तुम्‍हारा सुख से तादात्‍म्‍य होता है उसी क्षण दुख शुरू हो जाता है। अब तुम सुख से चिपकोगे; अब तुम उसके विपरीत से, दुःख से भयभीत होगे और चाहोगे कि सुख सदा तुम्‍हारे साथ रहे। अब तुमने वे सब उपाय कर लिए जो दुःख के होने के लिए जरूरी है। और फिर दुःख आएगा। और जब तुम सुख से तादात्‍म्‍य करते हो तो तुम दुःख से भी तादात्‍म्‍य कर लोगे। तादात्‍म्‍य ही रोग है।


इस तीसरे बिंदु पर तुम किसी के साथ भी तादात्‍म्‍य नहीं करते हो। जो भी आता-जाता है, बस आता-जाता है। तुम मात्र साक्षी रहते हो। देखते हो तटस्‍थ, उदासीन और तादात्‍म्‍य रहित। सुबह आती है, सूरज उगता है। और तुम उसे देखते हो, तुम उसके साक्षी रहते हो। तूम यह नहीं कहते कि मैं सुबह हूं। फिर जब दोपहर आती है तो तुम यह नहीं कहते कि मैं दोपहर हूं। और जब सूरज डूबता है, अँधेरा उतरता है और रात आती है, तब तुम यह नहीं कहते कि मैं अँधेरा हूं, कि मैं रात हू। तुम उनके साक्षी रहते हो। तुम कहते हो कि सुबह थी, फिर दोपहर हुई फिर श्‍याम हुई, अब रात है। और फिर सुबह होगी और यह चक्र चलता रहेगा। और मैं केवल द्रष्‍टा हूं। देखनेवाला हूं, मैं देखता रहता हूं।


और अगर यही बात तुम्‍हारी मनोदशा ओर के साथ लागू हो जाए सुबह की मनोदशा, दोपहर की मनोदशा, श्‍याम की, रात की मनोदशा और उनके अपने वर्तुल है, वे घूमते रहते है। तो तुम साक्षी हो जाते हो। तुम कहते हो: अब सूख आया है ठीक सुबह की भांति,और अब रात आयेगी दूःख की रात। मेरे चारों और मन:स्‍थितियां बदलती रहेंगी और मैं स्‍वयं में केंद्रित, स्‍थिर बना रहूंगा। मैं किसी भी मन स्‍थिति में आसक्‍त नही होऊंगा। मैं किसी भी मन: स्‍थिति में चिपकूंगा नहीं, बाधूंगा नहीं। मैं किसी चीज की आशा नहीं करुंगा और न मैं निराशा ही अनुभव करूंगा। मैं केवल साक्षी रहूंगा। जो भी होगा मैं उसका देखूँगा। जब वह आएगा,मैं उसका आना देखूँगा; जब वह जाएगा मैं उसका जाना देखूँगा।


बुद्ध इसका बहुत प्रयोग करते है। वे बार-बार कहते है कि जब कोई विचार उठे तो उसे देखो। दूःख का विचार उठे, सूख का विचार उठे, उसे देखते रहो। जब वह शिखर पर आए तब उसे देखो, उसके साक्षी रहो। और जब वह उतरने लगे तब भी उसके द्रष्‍टा बने रहो। विचार अब पैदा हो रहा है। वह अब है, और अब वह विदा हो रहा है सभी अवस्‍थाओं में तुम उसे देखते रहो। उसके साक्षी बने रहो।


यह तीसरा बिंदु तुम्‍हें साक्षी बना देता है। और साक्षी चैतन्‍य की परम संभावना है।

विज्ञान भैरव तंत्र 

ओशो

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