आदमी के बनाए हुए मंदिर मस्जिदों में धर्म हो कैसे सकता है? धर्म तो
वहां है जहां परमात्मा के हाथ की छाप है। और तुमसे ज्यादा उसके हाथ की छाप
और कहां है? मनुष्य की चेतना इस जगत में सर्वाधिक महिमापूर्ण है। वहीं उसका
मंदिर है; वहीं धर्म है।
धर्म है व्यक्ति और समष्टि के बीच प्रेम की एक प्रतीति ऐसे प्रेम की
जहां बूंद खो देती है अपने को सागर में और सागर हो जाती है; जहां सागर खो
देता है अपने को बूंद में और बूंद हो जाता है; व्यक्ति और समष्टि के बीच
ध्यान का ऐसा क्षण, जब दो नहीं बचते, एक ही शेष रह जाता है; प्रार्थना का
एक ऐसा पल, जहां व्यक्ति तो शून्य हो जाता है; और समष्टि महाव्यक्तित्व की
गरिमा से भर जाती है। इसलिए तो हम उस क्षण को ईश्वर का साक्षात्कार कहते
हैं। व्यक्ति तो मिट जाता है, समष्टि में व्यक्तित्व छा जाता है; सारी
समष्टि एक महाव्यक्तित्व का रूप ले लेती है।
धर्म व्यक्ति और समष्टि के बीच घटी एक अनूठी घटना है; लेकिन ध्यान
रहे सदा व्यक्ति और समष्टि के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच नहीं। और जिनको
तुम धर्म कहते हो, वे सभी व्यक्ति और समाज के संबंध हैं।
अच्छा हो, तुम
उन्हें संप्रदाय कहो, धर्म नहीं। और संप्रदाय से धर्म का उतना ही संबंध है
जितना जीवन का मुर्दा लाश से। कल तक कोई मित्र जीवित था, चलता था, उठता था,
हंसता था, प्रफुल्लित होता था; आज प्राणपखेरू उड़ गए, लाश पड़ी रह गई, उस
व्यक्ति की हंसी से, मुस्कराहट से, गीत से, उस व्यक्ति के मनोभाव से, उस
व्यक्ति के उठने, बैठने, चलने से, उस व्यक्ति के चैतन्य से, इस लाश का क्या
संबंध है? पक्षी उड़ गया, पिंजरा पड़ा रह गया वह जो आज आकाश में उड़ रहा है
पक्षी, उससे इस लोहे के पिंजरे का क्या संबंध है? उतना ही संबंध है धर्म और
संप्रदाय का।
धर्म जब मर जाता है, तब संप्रदाय पैदा होता है। और जो संप्रदाय में बंधे
रह जाते हैं, वे कभी धर्म को उपलब्ध नहीं हो पाते। धर्म को उपलब्ध होना हो
तो संप्रदाय की लाश से मुक्त होना अत्यंत अनिवार्य है। अगर तुम समझदार
होते तो तुम संप्रदाय के साथ भी वही करते, जो घर में कोई मर जाता है तो
उसकी लाश के साथ करते हो। तुम मरघट ले जाते, दफना आते, आग लगा देते। लाश को
कोई सम्हालकर रखता है? लेकिन तुम समझदार नहीं हो और लाश को सदियों से
सम्हालकर रखे हो लाश सड़ती जाती है, उससे सिर्फ दुर्गंध आती है। उससे पृथ्वी
पर कोई प्रेम का राज्य निर्मित नहीं होता, सिर्फ घृणा फैलती है, जहर फैलता
है।
धर्म तो एक है, लाशें अनेक हैं; क्योंकि धर्म बहुत बार अवतरित होता है
और बहुत बार तिरोहित होता है हर बार लाश छूट जाती है। तीन सौ संप्रदाय हैं
पृथ्वी पर, और सब आपस में कलह से भरे हुए हैं। सब एक दूसरे की निंदा और
एक दूसरे को गलत सिद्ध करने की चेष्टा में संलग्न हैं, जैसे घृणा ही उनका
धंधा है।
तुम्हारे मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों से अब प्रेम के स्वर नहीं
उठते, प्रार्थना की बांसुरी नहीं बजती, सिर्फ घृणा का धुआं उठता है। यह हो
सकता है कि तुम घृणा के धुएं के इतने आदी हो गए हो कि तुम्हें पता ही नहीं
चलता; या तुम्हारी आंखें उस धुएं से इतनी भर गई हैं कि अब और आंखों से आंसू
नहीं गिरते; या तुम इतने अंधे हो गए हो कि आंख ही तुम्हारे पास नहीं कि
जिससे आंसू गिर सकें।
सुनो भई साधो
ओशो
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