नैतिक व्यक्ति का आचरण हमें समझ में आता है। हमें पता है, क्या बुरा है
और क्या भला है। जो भला करता है, वह हमें समझ में आता है। जो बुरा करता है,
वह भी समझ में आता है। लेकिन संत भले और बुरे करने के दोनों के पार हो
जाता है। उसका आचरण स्पाटेनियस, सहज हो जाता है। उसके भीतर से जो उठता है
वह करता है। न वह भले का चिंतन करता है, न बुरे का चिंतन करता है।
तो कई बार ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम भला कहते थे, वह संत न करे। कई
बार ऐसा भी हो सकता है कि जो समाज की धारणा में बुरा था, वह संत करे। जैसे
जीसस, या कबीर, या बुद्ध, या महावीर समाज की धारणाओं से बहुत अतिक्रमण कर
जाते हैं।
महावीर नग्न खड़े हो गए! समाज की धारणा में नग्न खड़े हो जाना अशिष्टता
है, अनैतिकता है। समाज नग्न लोगों को बर्दाश्त नहीं करेगा। उसके कारण हैं।
क्योंकि समाज ने शरीर को ही नहीं ढाका है, शरीर के साथ उसने कामवासना को भी
ढाका है। कामवासना से इतना भय है कि उसे छिपाकर रखना पड़ता है। नग्न आदमी
की कामवासना प्रगट हो जाती है। नग्न आदमी का शरीर कामवासना की दृष्टि से
ढंका हुआ नहीं है। तो समाज नग्नता को पसंद नहीं करेगा। वह मानेगा कि उसमें
अनीति है।
महावीर नग्न खड़े हो गए। बड़ी अड़चन हो गई। गांव गांव से महावीर को हटाया
गया। जगह जगह उन पर पत्थर फेंके गए। जगह जगह उनकी निंदा की गई। और महावीर
मौन भी थे। नग्न भी थे, मौन भी थे, बोलते भी नहीं थे। जवाब भी नहीं देते थे
कि क्यों नग्न हैं न: क्यों खड़े हैं यहां? क्या प्रयोजन है? तो और भी बेक
हो गए थे।
लेकिन महावीर की नग्नता अनैतिक नहीं है। महावीर की नग्नता को नैतिक कहना
भी मुश्किल है। महावीर की नग्नता बड़ी साहजिक है, छोटे बच्चे की भांति
निर्दोष है। वहां नीति और अनीति दोनों नहीं हैं। महावीर वैसे सरल हो गए
हैं, जहां ढांकने को कुछ भी नहीं बचा है। जिसके पास ढांकने को कुछ बचा है,
वह जटिल है। जो चाहता है कुछ छिपाए उसमें थोड़ीसी जटिलता है। महावीर सरल हो
गए हैं। उस सरलता में इतनी सीमा आ गई है, जहां वस्त्रों को ढोने का उन्हें
कोई आकर्षण नहीं रहा है। लेकिन महावीर की नग्नता को सामान्य समाज अनैतिक
समझेगा। महावीर के संतत्व को समझने में बड़ी जटिलता है।
जीसस एक गांव से गुजरे और एक वेश्या ने आकर उनके पैरों पर सिर रख दिया
और उसके आंसू बहने लगे। उसने अपने आंसुओ से उनके पैर भिगो दिए। गांव के जो
नैतिक पुरुष थे, उन्होंने कहा कि वेश्या द्वारा अपने को छूने देना उचित
नहीं है। उन्होंने जीसस से कहा कि इस वेश्या को कहो कि तुम्हें न छुए। संत
को तो साधारण स्त्री का स्पर्श भी वर्जित है, तो यह तो वेश्या है। जीसस ने
कहा कि मेरे चरण अब तक जितने लोगों ने छुए हैं, इतनी पवित्रता से किसी ने
कभी नहीं छुए। लोगों ने जल से मेरे पैर धोए हैं, इस स्त्री ने मेरे पैरों
को अपने प्राणों के आंसुओ से धोया है।
जीसस पर जो जुर्म थे, जिनकी वजह से उन्हें सूली लगी, उसमें एक जुर्म यह
भी था। साधारण उनके समाज की जो नीति की धारणा थी, उसके विपरीत थी यह बात।
एक स्त्री को जीसस के पास लोग लाए, क्योंकि वह व्यभिचारिणी थी, और यहूदी
कानून था कि जो स्त्री व्यभिचार करे, उसे पत्थरों से मारकर मार डालना
न्यायसंगत है। तो जीसस गांव के बाहर ठहरे थे। लोगों ने उनसे आकर कहा कि यह
स्त्री व्यभिचारिणी है। और इसके पक्के प्रमाण मिल गए हैं। न केवल प्रमाण,
बल्कि इस स्त्री ने भी स्वीकार कर लिया है। इसलिए अब कोई सवाल नहीं है। और
पुरानी किताब कहती है कि इस स्त्री को पत्थरों से मारकर मार डालना उचित है,
न्यायसंगत है। आप क्या कहते है?
जीसस ने कहा, पुरानी किताब ठीक कहती है। लेकिन वे ही लोग पत्थर मारने के
अधिकारी हैं, जिन्होंने व्यभिचार न तो किया हो और न सोचा हो। तुम पत्थर
उठाओ। तो व्यभिचार, कौन है जिसने नहीं किया, या नहीं सोचा : वे जो समाज के
बड़े पंडित और मुखिया थे, पंच थे, वे चुपचाप भीड़ में पीछे हटने लगे।
धीरे धीरे लोग जो पत्थर लेकर आए थे, वे पत्थर छोड्कर गांव की तरफ भाग गए।
जीसस पर यह भी एक जुर्म था कि उन्होंने एक व्यभिचारिणी स्त्री को बचा लिया।
जीसस का व्यवहार नीति के सामान्य दायरे में नहीं बंधता है। साहजिक है।
जो सहज उनकी चेतना में उठ रहा है, वह कर रहे हैं। वे न तो सोचेंगे कि समाज
की धारणा से मेल खाता है कि नहीं मेल खाता। वह विचार नैतिक व्यक्ति करता
है।
धार्मिक व्यक्ति बड़ी अनूठी घटना है। इसका यह मतलब नहीं है कि धार्मिक
व्यक्ति अनिवार्य रूप से अनैतिक हो जाता है। उसका आचरण नीति और अनीति से
मुक्त होता है। कभी नीति से मेल भी खा जाता है, कभी मेल नहीं भी खाता।
लेकिन यह उसके मन में अभिप्राय नहीं है कि मेल खाए या मेल न खाए। क्योंकि
जब तक हम सोचते हैं : किसी धारणा से मेरा आचरण मेल खाए तब तक हमारा आचरण
असत्य होगा; तब तक हमारा आचरण पाखंड होगा; तब तक आचरण भीतर से नहीं आ रहा
है, बाहर के मापदंडों से तौला जा रहा है। तब तक आचरण आत्मा की अभिव्यक्ति
नहीं है। तब तक आचरण समाज का अनुसरण है।
नैतिक व्यक्ति समाज का अनुसरण करता है। इसलिए जिनको आप साधु कहते हैं,
आमतौर से नैतिक होते हैं, धार्मिक नहीं। और जब भी कोई व्यक्ति धार्मिक हो
जाता है, तब आपको अड़चन शुरू हो जाती है। क्योंकि तत्क्षण उसके आचरण को आप
अपने ढांचों में नहीं बिठा पाते। आपके जो पैटर्न हैं, सोचने के जो ढाचे
हैं, वह उनसे ज्यादा बड़ा है। सब ढांचे टूट जाते हैं।
शुद्ध मन उपनिषद कहता है उस मन को, जहां नीति और अनीति की सारी तरंगें
खो गई हैं; जहां मन बिलकुल सूना हो गया, शून्य हो गया; जहा कोई विजातीय
तत्व न रहा। विचार विजातीय तत्व है।
पानी में कोई दूध मिला देता है, तो हम कहते हैं, दूध शुद्ध नहीं है।
लेकिन बड़े मजे की बात है, अगर शुद्ध पानी मिलाया हो तो? तो दूध शुद्ध है या
नहीं? तो भी दूध अशुद्ध है। बिलकुल शुद्ध दूध और शुद्ध पानी मिलाया हो, तो
दो शुद्धताएं मिलकर भी दूध अशुद्ध होगा।
अशुद्धि का संबंध इससे नहीं है कि जो मिलाया आपने वह शुद्ध था या नहीं।
अशुद्धि का संबंध इससे है कि जो मिलाया वह विजातीय है, फारेन एलीमेंट है।
वह दूध नहीं है, जो मिलाया आपने; वह पानी है। वह शुद्ध होगा। विजातीय तत्व
का प्रवेश अशुद्धि है।
मन में मन के बाहर से कुछ भी आ जाए तो अशुद्धि है। वह शुद्ध विचार आया,
अशुद्ध विचार आया, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाहर से कुछ भी मन में आया,
अशुद्धि हो गई। मन में बाहर से कुछ भी न आए, मन अकेला हो, अपने में हो, तो
शुद्ध है। शुद्धि की यह बात ठीक से खयाल में ले लेनी जरूरी है।
कठोपनिषद
ओशो
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