बाइबिल में घटना है। एक पिता को आज्ञा हुई कि वह जाकर अपने बेटे को
फलां फलां वृक्ष के नीचे काट कर और बलिदान कर दे। उसने अपने बेटे को उठाया,
फरसा लिया और जंगल की तरफ चल पड़ा। सोरेन कीर्कगार्ड ने इस घटना पर बड़े
महत्वपूर्ण काम किये हैं, बड़े गहरे काम किये हैं। यह बात बिलकुल फिजूल है,
क्योंकि सोरेन कीर्कगार्ड कहता है उस पिता को, यह तो सोचना ही चाहिए था,
कहीं यह आज्ञा मजाक तो नहीं है। यह तो सोचना ही चाहिए था कि यह आज्ञा अनैतिक
कृत्य है कि पिता बेटे की हत्या कर दे! कुछ तो विचारना था! लेकिन उसने कुछ
भी न विचारा। फरसा उठाया और बेटे को लेकर चल पड़ा।
यह हमें भी लगेगी, जरूरत से ज्यादा बात है। और यह तो अंधापन है, और यह
तो मूढ़ता है। लेकिन कीर्कगार्ड भी कहता है कि यह सारा परीक्षण पहले कर लेना
चाहिए। लेकिन एक बार परीक्षण पूरा हो गया हो तो फिर छोड़ देना चाहिए सारी
बात। अगर परीक्षण सदा ही जारी रखना है तो गुरु और शिष्य का संबंध कभी भी
निर्मित नहीं हो सकता। महत्वपूर्ण वह संबंध निर्मित होना है।
वक्त पर खबर आ गयी कि हत्या नहीं करना है फरसा उठ गया था और गला काटने
के करीब था। लेकिन यह गौण बात है। वापस लौट आया है पिता अपने बेटे को लेकर,
लेकिन अपनी तरफ से हत्या करने की आखिरी सीमा तक पहुंच गया था। फरसा उठ गया
था और गला काटने के करीब था।
यह घटना तो सूचक है। शायद ही कोई गुरु आपको कहे कि जाकर बेटे की हत्या
कर आयें। लेकिन, घटना में मूल्य सिर्फ इतना है कि अगर ऐसा भी हो, तो
आज्ञापालन ही शिष्य का लक्षण है। क्योंकि आशा को इतना मूल्यवान—पहले ही
सूत्र के हिस्से में आशा को इतना मूल्यवान महावीर क्यों कह रहे हैं?
आपकी बुद्धि जो जो समझ सकती है इस जगत में, वह जैसे जैसे आप भीतर प्रवेश
करेंगे, उसकी समझ क्षीण होने लगेगी कि वहां काम नहीं पड़ेगी। और अगर आप यही
भरोसा मान कर चलते हैं कि मैं अपनी बुद्धि से ही चलूंगा तो बाहर की दुनिया
तो ठीक, भीतर की दुनिया में प्रवेश नहीं हो सकेगा। भीतर तो घड़ी घड़ी ऐसे
मौके आयेंगे जब गुरु कहेगा कि करो। और तब आपकी बुद्धि बिलकुल इनकार करेगी
कि मत करो। क्योंकि अगर ध्यान की थोड़ी सी गहराई बढ़ेगी तो लगेगा कि मौत घट
जायेगी। अब आपका कोई अनुभव नहीं है। जब भी ध्यान गहरा होगा तो मौत का अनुभव
होगा। ऐसा लगेगा, मरे।
गुरु कहेगा, मरो, बढ़ो, मरोगे ही न! मर जाना। तब आपकी बुद्धि कहेगी, अभी यह क्या हो रहा है, अब आगे कदम नहीं बढ़ाया जाता।
बेटे की हत्या करना भी इतना कठिन नहीं है, अगर खुद के मरने की भीतर घड़ी
आये, तब। बेटा फिर भी दूर है और बेटे की हत्या करने वाले बाप मिल जायेंगे।
ऐसे तो सभी बाप थोड़ी बहुत हत्या करते है लेकिन वह अलग बात है। बाप की हत्या
करने वाले बेटे मिल जायेंगे। एक सीमा पर सभी बेटे बाप से छुटकारा चाहते
है, लेकिन वह अलग बात है।
लेकिन, आदमी जब अपने की ही हत्या पर उतरने की स्थिति आ जाती है, और जब
ध्यान में ऐसी घड़ी आती है कि शरीर छूट तो नहीं जायेगा! सांस बंद तो नहीं हो
जायेगी! तब आपकी बुद्धि कोई भी उपयोग की नहीं, क्योंकि आपका कोई अनुभव काम
नहीं पड़ेगा। वहां गुरु कहता है कि ठीक है, हो जाने दो बंद सांस। उस वक्त
क्या करिएगा? अगर आज्ञा मानने की आदत न बन गयी हो। अगर गुरु के साथ असंगत
में भी उतरने की तैयारी न हो गयी हो, तो आप वापस लौट आयेंगे, आप भाग
जायेंगे। उस वक्त तो मृत्यु को एक किनारे रख कर वह गुरु जो कहता है, वह ठीक
है।
और बड़े मजे की बात है, आप मरेंगे नहीं, बल्कि इस ध्यान में जो मृत्यु
घटेगी, इससे ही आप पहली दफा जीवन का स्वाद, जीवन का अनुभव कर पायेंगे।
लेकिन उसके लिए आपकी बुद्धि तो कोई भी सहारा नहीं दे सकती। बुद्धि तो वही
सहारा दे सकती है जो जानती हो। यह आपने कभी जाना नहीं है। यह तो मामला ठीक
ऐसा ही है कि बेटा हाथ बाप का पकड़ लेता है और फिर फिक्र छोड़ देता है कि
ठीक, बाप साथ है, उसकी चिंता नहीं है कुछ। अब जंगल में शेर भी चारों तरफ
भटक रहे हों तो बेटा गुनगुनाता हुआ, गीत गाता, बाप का हाथ पकड़ कर चलता है।
बाप के हाथ में हाथ है, बात खत्म हो गयी। अगर बाप उससे कह दे कि यह सामने
जो शेर आ रहा है, इससे गले मिल लो, तो बेटा मिल लेगा।
आज्ञा का अर्थ है: असंगत घटनाएं घटेंगी साधना में, जिनके लिए बुद्धि कोई
तर्क नहीं खोज पाती। तब कठिनाइयां शुरू होती है, तब संदेह पकड़ना शुरू होता
है। तब लगता है कि भाग जाओ इस आदमी से, बच जाओ इस आदमी से। तब बुद्धि
बहुत बहुत उपाय करेगी कि यह आदमी बहुत गलत है, इसकी बात मत मानना। तब
बुद्धि ऐसी पच्चीस बातें खोज लेगी, जिनसे यह सिद्ध हो जाये कि यह आदमी गलत
है, इसलिए इसकी यह बात मानना भी उचित नहीं है। छोड़ दो।
इसलिए महावीर कहते हैं, ‘जो मनुष्य गुरु की आज्ञा पालन करता हो, उसके पास रहता हो’।
पास रहना बड़ी कीमती बात थी। पास रहना एक आंतरिक घटना है। शारीरिक रूप से
पास रहना, रहने का उपयोग है लेकिन आत्मिक रूप से, मानसिक रूप से पास रहने
का बहुत उपयोग है। यह जो जीवन की आत्यंतिक कला है, इसे सीखना हो तो गुरु के
इतने पास होना चाहिए, जितने हम अपने भी पास नहीं। जैसे कोई आपकी छाती में
झा भोंक दे तो गुरु का स्मरण पहले आये, बाद में अपना, कि मैं मर रहा हूं।
यह अर्थ हुआ पास रहने का।
पास रहने का मतलब है, एक आंतरिक निकटता सामीप्य। हम अपने से भी ज्यादा
पास है, अपने से भी ज्यादा भरोसा, अपने से भी ज्यादा स्मरण। यह जो घटना है
पास होने की, निकट होने की, यह शारीरिक तल पर भी बड़ी मूल्यवान है। इसलिए
गुरु के पास शारीरिक रूप से रहने का भी बड़ा अर्थ है। अधिकतम गुरु, अगर हम
उपनिषद के गुरुओं में लौट जायें, या महावीर, महावीर के साथ दस हजार
साधु साध्वियों का समूह चलता था। महावीर के पास होना ही मूल्य था उसका।
महावीर वाणी
ओशो
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