एक नाटक में ऐसा हुआ कि एक आदमी को गोली मारी जानी थी, लेकिन गोली का
घोड़ा अटक गया। मारने वाले ने बहुत घोड़ा खींचा, लेकिन जैसे उसने घोड़ा खींचा
जिसको मरना था, वह धड़ाम से गिरकर मर गया। जब वह मर चुका और चिल्ला चुका कि
हाय, मैं मरा! बाद में घोड़ा छूटा और गोली चली। संबंध टूट गया, कृत्य में और
भाषा में।
आपको पता नहीं, आपके कृत्य और भाषा में संबंध नहीं होता। आपके होंठ
मुस्कराते है। आपकी आंख कुछ और कहती है। आप हाथ से हाथ मिलाते हैं, आपके
हाथ के भीतर की ऊर्जा पीछे हटती है; हाथ आगे बढ़ा है, ऊर्जा पीछे हट रही है,
आप मिलाना नहीं चाहते। हाथ मिलाना नहीं चाहते तो भीतर की ऊर्जा पीछे हट
रही है। और आप मिला रहे हैं हाथ। लेकिन अगर दूसरा आदमी भाषा समझता हो शरीर
की तो फौरन पहचान जायेगा। कि हाथ मिलाया गया और ऊर्जा नहीं मिली। ऊर्जा
भीतर खींच ली। लेकिन हम सभी भाषा भूल गये हैं। इसलिए कोई पता नहीं चलता है।
एक आदमी को गले मिलाते हैं और पीछे हट रहे हैं। आपको खुद पता चल जायगा।
जरा खयाल करना अपने कृत्यों में कि जो आप कर रहे है, अगर वह नहीं करना
चाहते हैं तो भीतर उससे विपरीत हो रहा है। उसी वक्त हो रहा है। वह तो कोई
शरीर की भाषा नहीं जानता। भूल गये हैं हम सब। शायद भूल जाना जरूरी है, नहीं
तो दुनिया में दोस्ती बनाना, प्रेम करना बहुत मुश्किल हो जाये। अगर हमारे
शरीर की भाषा सीधी सीधी समझ में आ जाये तो बड़ा मुश्किल हो जाये। इसलिए हम
सब पर्त बना लिए है। उन शब्दों की पर्त में हम जीते हैं।
जब हम किसी आदमी से कहते हैं, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं तो बस वह इतना
ही सुनता है। न हमारे ओंठ की तरफ देखता कि जब ये शब्द कहे गये, तो ओठों ने
भी कुछ कहां? असली कंटेंट ओठों में है, शब्दों में नहीं। जब ये शब्द कहे
गये तब आंखों ने कुछ कहां? असली विषय वस्तु आंखों में है, शब्दों में नहीं।
जब ये शब्द कहे गये तब इस पूरे आदमी के रोयें रोयें में पुलक क्या थी?
आनंद क्या था? ये कहने से प्राण इसके आनंदित हुए? कि मजबूरी में इसने कहकर
कर्तव्य निभाया!
लेकिन शायद खतरनाक है। जैसा हमारी सभ्यता है, समाज है, धोखे का एक लंबा
आडंबर। इसलिए हम बच्चों को जल्दी ही ठोंक पीटकर उनकी जो समझ है उनके ऊपर
आरोपण करके, उनकी वास्तविक समझ को भुला देते हैं।
गुरु के पास रहकर फिर शब्दों की भाषा भूलनी पड़ती है। फिर शरीर की भाषा
सीखनी पड़ती है। क्योंकि जो गहन है, वह शरीर से कहां जा सकता है। वह जो गहन
है वह भाव—भंगिमा से कहां जा सकता है। इसलिए एक पूरा का पूरा शास्त्र
मुद्राओं का, गेस्चर्स का निर्मित हुआ। अब पश्चिम में उसकी पुन: खोज हो
रही है। जिसको वह शरीर की भाषा कहते है वह हमने मुद्राओं में काफी गहराई तक
खोजी है।
आपने बुद्ध की मूर्तियां देखी होंगी विभिन्न मुद्राओं में। अगर आप किसी
एक खास मुद्रा में बैठ जायें तो आप हैरान होंगे कि आपके भीतर भाव परिवर्तन
हो जाता है। आपकी मुद्रा भीतर भाव परिवर्तन ले आती है। आपका भाव परिवर्तन
हो तो मुद्रा परिवर्तित हो जाती है। जैसे बुद्ध पदमासन में बैठते हैं, हाथ
पर हाथ रखकर, या महावीर बैठते हैं पदमासन में। सिर्फ वैसे ही आप बैठ जायें,
तो आप तत्काल पायेंगे कि जो आपके मन की धारा चल रही थी वह उसमें विघ्न पड़
गया।
बुद्ध ने अनेक मुद्राएं अभय, करुणा, बहुत सी मुद्राओं की बात की है। अगर
उस मुद्रा में आप खड़े हो जायें तो आप तत्काल भीतर पायेंगे कि भाव में अंतर
पड़ गया। अगर आप क्रोध की मुद्रा में खड़े हो जायें तो भीतर क्रोध का आवेश
आना शुरू हो जाता है। शरीर और भीतर जोड़ है। गुरु के भीतर सारे धोखे मिट गये
है। उसके भीतर भाव होता है, उसके शरीर तक वह जाता है।
महावीर वाणी
ओशो
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