कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, फल सदा भविष्य में है। कर्म सदा
अभी है, यहीं। कर्म किया जा सकता है। कर्म वर्तमान है,
फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता है, अधिकार
है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी तय
नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर
से कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम अपेक्षा न रखें, हम फल की प्रतीक्षा न करें,
हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ दें--यही बुद्धिमानी का गहरे से
गहरा सूत्र है।
इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी
ज्यादा फल की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग
जाती है कि कर्म करने योग्य बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ
जाता है, भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि
वर्तमान में होता ही नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता है
कि कर्म विरस हो जाता है, रसहीन हो जाता है।
इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि
जितना फलाकांक्षा से भरा चित्त, उतना ही कर्महीन होता है। और जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना ही पूर्णकर्मी होता है। क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है,
फल तो होता नहीं, जिसमें बंटवारा कर
सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी
शक्ति, सब कुछ इसी क्षण, अभी
कर्म पर लग जाती है।
स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म पर लग जाता है, उसके फल के
आने की संभावना बढ़ जाती है। स्वभावतः, जिसका सब कुछ कर्म
पर नहीं लगता, उसके फल के आने की संभावना कम हो जाती है।
इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो जितनी
फलाकांक्षा से भरा है, उतनी
ही फल के आने की उम्मीद कम है। और जिसने जितनी फल की आकांक्षा छोड़ दी है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद ज्यादा है। यह जगत बहुत उलटा है। और
परमात्मा का गणित साधारण गणित नहीं है, बहुत असाधारण गणित
है।
जीसस का एक वचन है कि जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाएगा। जो दे देगा,
उसे सब कुछ दे दिया जाएगा। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाता है, व्यर्थ ही अपने को खोता
है। क्योंकि उसे परमात्मा के गणित का पता नहीं है। जो अपने को खोता है, वह पूरे परमात्मा को ही पा लेता है।
तो जब कर्म का अधिकार है और फल की आकांक्षा व्यर्थ है, ऐसा कृष्ण कहते हैं, तो यह मत समझ लेना कि फल मिलता नहीं; ऐसा भी
मत समझ लेना कि फल का कोई मार्ग नहीं है। कर्म ही फल का मार्ग है; आकांक्षा, फल की आकांक्षा, फल का मार्ग नहीं है। इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, उससे फल की अधिकतम, आप्टिमम संभावना है मिलने
की। और हम जो करते हैं, उससे फल के खोने की मैक्सिमम,
अधिकतम संभावना है और लघुतम, मिनिमम
मिलने की संभावना है।
जो फल की सारी ही चिंता छोड़ देता है, अगर धर्म की भाषा में कहें,
तो कहना होगा, परमात्मा उसके फल की
चिंता कर लेता है। असल में छोड़ने का भरोसा इतना बड़ा है, छोड़ने
का संकल्प इतना बड़ा है, छोड़ने की श्रद्धा इतनी बड़ी है कि
अगर इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए भी परमात्मा से कोई प्रत्युत्तर नहीं है, तो फिर परमात्मा नहीं हो सकता है। इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए--कि कोई
कर्म करता है और फल की बात ही नहीं करता, कर्म करता है और
सो जाता है और फल का स्वप्न भी नहीं देखता--इतनी बड़ी श्रद्धा से भरे हुए चित्त को
भी अगर फल न मिलता हो, तो फिर परमात्मा के होने का कोई
कारण नहीं है। इतनी श्रद्धा से भरे चित्त के चारों ओर से समस्त शक्तियां दौड़ पड़ती
हैं।
गीता दर्शन