मैं
दूसरों की दृष्टि में क्या हूं यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि मैं अपनी स्वयं की दृष्टि में क्या हूं! पर हम दूसरों की दृष्टि से ही स्वयं को भी देखने के आदी हो जाते हैं, और भूल जाते हैं कि स्वयं को सीधा, डायरेक्ट और प्रत्यक्ष, इमिजिएट देखने का भी एक रास्ता है और वही रास्ता वास्तविक भी है, क्योंकि वह परोक्ष नहीं है। पहले तो हम स्वयं ही दूसरों को दिखाने के लिए अपना एक रूप, एक आवरण बना लेते हैं और फिर दूसरों को जैसे दिखते हैं, उस पर ही स्वयं के संबंध में भी धारणा कर लेते हैं।
ऐसी आत्म प्रवंचना, सेल्फ डिसेप्श्न मनुष्य जीवन भर करता रहता है। धार्मिक जीवन के प्रारंभ के लिए इस आत्म प्रवंचना पर ही सबसे पहले आघात करना होता है।
मैं जैसा हूं और जो हूं उसे सारी आत्म प्रवचनाओ को तोड़ कर, पूरी नग्नता, नेकेडनेस में जानना आवश्यक है, क्योंकि उसके बाद ही जीवन साधना की किसी वास्तविक दिशा में चरण उठाए जा सकते हैं। स्वयं के संबंध में असत्य धारणाओं के रहते स्वयं के अभिनय , व्यक्तित्व को वास्तविक समझने की भ्रांति के रहते मनुष्य सत्य के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता है।
इसके पूर्व कि हम परमात्मा को जानें या कि स्वसत्ता को या कि सत्य को, हमें उस काल्पनिक व्यक्ति को अग्निसात कर ही देना होगा जो कि हमने स्वयं अपने ऊपर ओढ़ लिया है। यह धोखे की खाल हमें नाटकीय जीवन के ऊपर जो वास्तविक जीवन है, उस तक नहीं उठने देती है। सत्य में चलना है, तो इस नाटक से जागना आवश्यक है।
साधनापथ
ओशो
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