तथ्य हैं जगत में, फिक्शंस वहां नहीं हैं,
फैक्ट्स हैं। कल्पनाएं मनुष्य डालता है। सुंदर है--यात्रा शुरू हुई।
सुंदर है, तो चाह है। चाह है, तो
भोग है। अब चिंतन शुरू हुआ। अब वासना चिंतन बनेगी। चिंतन को कहें, काल्पनिक संग पैदा हुआ। जब काल्पनिक संग पैदा होगा, तो क्रिया भी आएगी, काम भी आएगा। और कृष्ण कहते
हैं, काम आएगा, तो क्रोध भी आएगा।
क्यों? काम आएगा, तो क्रोध क्यों
आ जाएगा?
असल में जो कामी नहीं है, वह क्रोधी नहीं हो सकता।
क्रोध काम का ही एक और ऊपर गया चरण है। क्रोध क्यों आता है? क्रोध का क्या गहरा रूप है? क्रोध आता ही तब है,
जब काम में बाधा पड़ती है, अन्यथा क्रोध नहीं
आता। जब भी आपकी चाह में कोई बाधा डालता है--जो आप चाहते हैं, उसमें बाधा डालता है--तभी क्रोध आता है। जो आप चाहते हैं, अगर वह होता चला जाए, तो क्रोध कभी नहीं आएगा।
समझें आप कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हैं, तो कल्पवृक्ष के नीचे क्रोध
नहीं आ सकता, अगर कल्पवृक्ष नकली न हो। कल्पवृक्ष असली है,
तो क्रोध नहीं आ सकता। क्योंकि क्रोध का उपाय नहीं है। आपने चाहा
कि यह सुंदर स्त्री मिले; मिल गई। आपने चाहा, यह मकान मिले; मिल गया। आपने चाहा, यह धन मिले; मिल गया। आपने चाहा, सिंहासन मिले; मिल गया। आपने चाहा नहीं कि मिला
नहीं, तो क्रोध के लिए जगह कहां है!
क्रोध आता है, चाहा और नहीं मिले के बीच में जो गैप है,
उस गैप का नाम, उस अंतराल का नाम क्रोध है।
चाहा और नहीं मिला, अटक गई चाह, रुक
गई चाह, हिन्डर्ड डिजायर, चाह के
बीच में अड़ गया पत्थर, चाह के बीच में पड़ गई बाधा,
क्रोध के वर्तुल को पैदा कर जाती है।
नदी भाग रही है सागर की तरफ, आ गया एक पत्थर बीच में,
तो सब खड़बड़ हो जाता है। आवाज हो जाती है। पत्थर न हो तो नदी में आवाज
नहीं होती। नदी आवाज नहीं करती, पत्थर के साथ टकराकर आवाज
हो जाती है।
अगर काम की नदी बहती रहे और कोई बाधा न हो, तो क्रोध कभी पैदा न होगा।
लेकिन काम की नदी बहती है और बाधाओं के पत्थर चारों ओर खड़े हैं। वे खड़े ही हैं। कोई
आपके काम को रोकने के लिए नहीं खड़े हैं वे, वे खड़े ही थे।
आपके काम ने वहां से बहना शुरू किया।
अब एक स्त्री सुंदर मुझे दिखाई पड़ी; मैंने उसे चाहना शुरू किया।
अब हजार पत्थर हैं। उस स्त्री का पति भी है, वह भी पत्थर है।
उस स्त्री का पिता भी है, वह भी पत्थर है। उस स्त्री का भाई
भी है, वह भी पत्थर है। कानून भी है, अदालत भी है, पुलिस भी है--वे भी पत्थर हैं। और
ये कोई भी न हों, तो कम से कम वह स्त्री भी तो है। मैंने चाहा
इसलिए वह चाहे, यह तो जरूरी नहीं है। मेरी चाह कोई उसके लिए
नियम और कानून तो नहीं है। वह स्त्री तो है ही; इस जगत में
हम सारे पत्थर हटा दें, तो भी वह स्त्री तो है ही। और फिर
अगर वह स्त्री भी राजी हो, तो भी पत्थर नहीं रहेंगे,
ऐसा नहीं है।
यहां थोड़े और गहरे उतरना पड़ेगा।
अगर ऐसा भी हम कर लें जैसा कि समाजशास्त्री सोचते
हैं, जैसा कि
समाजवादी सोचते हैं कि सारे पत्थर अलग कर दें; जैसा कि हिप्पी
और बीटनिक और प्रवोस सोचते हैं कि सारे पत्थर अलग कर दो--कानून अलग करो, पुलिस अलग करो--जहां-जहां पत्थर है, वह अलग कर
दो, क्योंकि व्यर्थ ही उनसे क्रोध पैदा होता है और मनुष्य
दुखी होता है। सब पत्थर अलग कर दो। तो भी एक स्त्री को पचीस पुरुष नहीं चाह लेंगे,
एक पुरुष को पचीस स्त्रियां नहीं चाह लेंगी, इसका क्या उपाय है?
असल में कानून और व्यवस्था इसीलिए बनानी पड़ी
कि अव्यवस्था इससे भी बदतर हो जाएगी। यह बदतर है काफी, लेकिन अव्यवस्था इससे भी
बदतर हो जाएगी। यह चुनाव रिलेटिव है। यह बदतर है काफी कि हर जगह चाह के बीच में उपद्रव
खड़ा है, लेकिन अगर सारे उपद्रव हटा लो, तो महाउपद्रव खड़ा हो जाएगा। अभी एक ही पति है उसका खड़ा। पति की व्यवस्था
को हटा दो, तो हजार पति नहीं खड़े हो जाएंगे, इसका क्या उपाय है रोकने का? अभी एक ही पत्नी उस
पति के ऊपर पहरा दे रही है। हटा दो उसे, तो हजार पत्नियां
नहीं पहरा देंगी, इसकी क्या गारंटी है?
फिर हम कल्पना भी कर लें कि सब हटा दिया जाए
और ऐसा भी कुछ हो जाए कि बाहर से कोई बाधा नहीं आती, तो भीतरी बाधाएं हैं, जो और भी बड़ी बाधाएं हैं। क्योंकि जिस स्त्री को आप चाहते हैं, जो स्त्री आपको चाहती है, बीच में और कोई बाधा
नहीं है, तो भी आप दो हैं और दो होना भी काफी बड़ी बाधा है।
और क्रोध रोज-रोज जन्मेगा; जरा-जरा सी बात में जन्मेगा।
आप सुबह पांच बजे उठना चाहते हैं और आपकी स्त्री
सुबह छः बजे उठना चाहती है। बस,
इतना भी काफी है। कोई पुलिस, अदालत,
कानून और राज्य की जरूरत नहीं है क्रोध के लिए, इतनी ही बाधा काफी है। छोटी-छोटी अड़चनें चाह में खड़ी होती हैं और बाधा खड़ी
हो जाती है। वह दूसरा व्यक्ति भी व्यक्ति है, मशीन नहीं है।
उसकी भी अपनी चिंतना है, अपना सोचना है, अपना ढंग है। और दो चिंतन एकदम पैरेलल नहीं हो पाते; हो नहीं सकते। सिर्फ दो मशीनें समानांतर हो सकती हैं, दो व्यक्ति कभी समानांतर नहीं हो सकते।
असल में दो व्यक्तियों का साथ रहना उपद्रव है।
न रहना भी उपद्रव है, क्योंकि चाह है। साथ न रहें, तो पूरी नहीं हो सकती।
साथ रहें, तो भी पूरी नहीं हो पाती है।
तो वे जितनी अड़चनें हैं, वे सब काम में अड़चनें,
पत्थर बन जाती हैं और क्रोध को जन्माती हैं। कामी क्रोधी हो जाता
है।
अगर कृष्ण ने कहा है कि स्थितप्रज्ञ को क्रोध
नहीं होता, तो
उसका कारण यही है कि स्थितप्रज्ञ को काम नहीं होता; वह निष्काम
है। ये नेसेसरी स्टेप्स हैं, ये अनिवार्य सीढ़ियां हैं,
जो एक के पीछे चली आती हैं। और एक को लाएं, तो दूसरे को लाना पड़ता है। वह दूसरा उससे इतना बंधा है कि वह एक को लाते
वक्त ही उसके साथ छाया की तरह भीतर प्रवेश कर जाता है। आपको मैंने निमंत्रण दिया,
आपकी छाया भी मेरे घर में आ जाती है। आपकी छाया को मैंने कभी निमंत्रण
नहीं दिया था, पर वह आपके साथ ही है, वह भीतर चली आती है।
काम के पीछे आता है क्रोध। अगर चित्त में क्रोध
हो, तो जरा भीतर
खोजने से पता चलेगा, कहीं काम है। अटका हुआ काम क्रोध है।
रुका हुआ काम क्रोध है। बाधा डाला गया काम क्रोध है। क्रोध का सांप फुफकारता तभी है,
तभी वह फन फैलाता है, जब मार्ग में कोई अड़चन
आ जाती है और द्वार नहीं मिलता है। जब कोई रोकता है, कोई अटकाता
है...।
फिर हम अकेले नहीं हैं इस जगत में। विराट यह
जगत है। सभी की कामनाएं एक-दूसरे की कामनाओं को क्रिस-क्रास कर जाती हैं; तो सब जगह अटकाव हो जाता
है। मैं कुछ चाहता हूं, लेकिन साढ़े तीन अरब लोग और हैं पृथ्वी
पर, वे कुछ चाहते हैं। फिर अदृश्य परमात्मा है, फिर अदृश्य जीव-जंतु हैं, फिर अदृश्य देवी-देवता
हैं, फिर अदृश्य वृक्ष, पशु-पक्षी
सब हैं, उन सब की चाहें हैं। अगर हम अपने ऊपर देख सकें,
तो हमें पता चले कि पूरा आकाश, पूरा व्योम
अनंत चाहों से क्रिस-क्रास है। अनंत चाहें एक-दूसरे को काट रही हैं। एक-एक चाह पर करोड़-करोड़
चाहों का कटाव है। वह कटाव क्रोध पैदा करता है; करेगा ही।
जहां भी वासना कटी कि पीड़ा हुई। जैसे किसी ने रग काट दी हो और खून बहने लगे। वासना
की रग कटती है, तो क्रोध का खून बहता है।
कृष्ण कहते हैं, काम से क्रोध पैदा होता है।
गीता दर्शन
ओशो
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