मन शब्दों का संग्रह मात्र है। और प्रत्येक
व्यक्ति शब्दों से ग्रस्त है, शब्दों से दबा है। यही कारण है कि आत्म—ज्ञान ज्यादा से ज्यादा असंभव
हो रहा है। आत्मा तो शब्दों के पार है, या शब्दों के पीछे
है, या उनके नीचे या ऊपर है। लेकिन वह शब्दों में कभी
नहीं है। तुम्हारा होना मन में नहीं है, वरन मन के ठीक
पीछे या ऊपर है मन में कभी नहीं। तुम मन से बंधे जरूर हो; लेकिन वहा हो नहीं। बाहर रहकर तुम मन में केंद्रित हो। और इस सतत
केंद्रित होने के कारण मन के साथ तुम्हारा तादात्म्य हो गया है। तुम सोचते हो कि
मैं मन हूं।
यही एकमात्र समस्या है, बुनियादी समस्या है। और
जब तक तुम्हें यह बोध नहीं होता कि मैं मन नहीं हूं तब तक कुछ अर्थपूर्ण घटित नहीं
होगा। तब तक तुम दुख में रहोगे। यह तादात्म ही दुख है। यह मानो अपनी छाया के साथ
तादात्म्य है। तब सारा जीवन झूठ हो जाता है।
तुम्हारा सारा जीवन झूठ है। और बुनियादी भूल
यह है कि तुमने मन के साथ तादात्म्य कर लिया है। तुम सोचते हो कि मैं मन हूं।
यही अज्ञान है। तुम मन को विकसित भी कर सकते हो; लेकिन उससे अज्ञान का विसर्जन नहीं होगा।
तुम बहुत बुद्धिमान हो जा सकते हो; तुम बहुत मेधावी हो
सकते हो, तुम जीनियस, अति—प्रतिभावान
भी हो सकते हो। लेकिन अगर मन के साथ तादात्म बना रहता है तो तुम मीडियाकर ही,
औसत आदमी ही बने रहते हो। क्योंकि तुम्हारा झूठी छाया के साथ
तादात्म्य है।
यह कैसे होता है? जब तक तुम इस प्रक्रिया
को नहीं समझते कि यह कैसे होता है,’' तब तक तुम मन के पार
नहीं जा सकते। और ध्यान की सभी विधियां पार जाने की, मन
के पार जाने की प्रक्रियाएं हैं; इसके अतिरिक्त वे और कुछ
नहीं हैं। ध्यान की विधियां संसार के विरोध में नहीं है;
वे मन के विरोध में है। सच तो यह है कि वे विधियां मन के भी विरोध में नहीं हैं;
वे असल में तादात्म्य के विरोध में हैं। तुम मन के साथ तादात्म्य
कैसे कर लेते हो? तादात्म्य की प्रक्रिया क्या है?
मन एक जरूरत है—बडी जरूरत है। विशेषकर
मनुष्य जाति के लिए मन बहुत जरूरी है। मनुष्य और पशु में यही बुनियादी फर्क है।
मनुष्य विचार करता है। और उसने अपने जीवन संघर्ष में विचार को एक अस्त्र की भांति
उपयोग किया है। वह बच सका; क्योंकि वह विचार कर सकता है। अन्यथा वह किसी भी पशु से ज्यादा कमजोर
है, ज्यादा असहाय है। शारीरिक रूप से उसका बचना असंभव था।
वह बच सका, क्योंकि वह सोच—विचार कर सकता है। और विचार के
कारण ही वह दुनिया का मालिक बन गया है।
जब विचार इतना सहयोगी रहा है तो यह समझना
आसान है कि आदमी ने मन के साथ तादात्म्य क्यों कर लिया। तुम्हारे शरीर के साथ
तुम्हारा वैसा तादात्म्य नहीं है जैसा मन के साथ है। निश्चित ही, धर्म कहे जाते हैं कि
शरीर के साथ तादात्म्य मत करो; लेकिन कोई भी शरीर के साथ
तादात्म्य नहीं करता है। कोई भी नहीं करता। तुम्हारा तादात्म्य मन के साथ है,
शरीर के साथ नहीं। और शरीर के साथ तादात्म्य उतना घातक नहीं है
जितना मन के साथ तादात्म्य घातक है। क्योंकि शरीर ज्यादा यथार्थ है। शरीर है;
वह अस्तित्व के साथ ज्यादा गहराई में जुड़ा है। और मन मात्र छाया
है। शरीर के तादात्म्य से मन का तादात्म ज्यादा सूक्ष्म है।
लेकिन हमने मन के साथ तादात्म्य किया है, क्योंकि जीवन—संघर्ष में
मन ने बड़ी मदद की है। मन न सिर्फ जानवरों के विरुद्ध, न
सिर्फ प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष में सहयोग करता है, बल्कि
अन्य मनुष्यों के विरुद्ध संघर्ष में भी वह सहयोग करता है। अगर तुम्हें तीक्ष्ण
बुद्धि है तो तुम दूसरे मनुष्यों से भी जीत जाओगे। तुम सफल होओगे, तुम धनवान होओगे; क्योंकि तुम ज्यादा हिसाबी
हो, तुम ज्यादा चालाक हो। अन्य मनुष्यों के विरुद्ध भी मन
अस्त्र का काम करता है। यही कारण है कि मन के साथ हमारा तादात्म्य इतना है यह
स्मरण रहे।
तंत्रसूत्र
ओशो
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