यह
सुबह, यह वृक्षों में शांति,
पक्षियों की चहचहाहट... या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना,
पहाड़ों का सन्नाटा... या कि नदियां का पहाड़ों से उतरना... या सागरों में लहरों
की हलचल, नाद... या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट—यह सभी ओमकार
है।
ओमकार का अर्थ है : सार—ध्वनि; समस्त ध्वनियों का सार। ओमकार कोई मंत्र नहीं, सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है। जहां भी गीत है, वहां
ओमकार है। जहां भी वाणी है,
वहां ओमकार है। जहां भी ध्वनि है, वहां
ओमकार है।
और
यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है। इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है। इस जगत का जीवन ध्वनि में है; और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है।
ओम
से सब पैदा हुआ, ओम में सब जीता,
ओम में सब एक दिन लीन हो जाता है। जो प्रारंभ है, वही अंत है। और जो प्रारंभ है और अंत है,
वही मध्य भी है। मध्य अन्यथा कैसे होगा!
इंजील
कहती है : प्रारंभ में ईश्वर था और ईश्वर शब्द के साथ था,
और ईश्वर शब्द था,
और फिर उसी
शब्द से सब निष्पन्न हुआ। वह ओमकार की ही चर्चा है।
मैं
बोलूं तो ओमकार है। तुम सुनो तो ओमकार
है। हम मौन बैठें तो ओमकार
है। जंहा लयबद्धता
है, वहीं ओमकार है। सन्नाटे में भी—स्मरण रखना—जंहा कोई नाद नहीं पैदा होता, वहा भी छुपा हुआ नाद है। मौन का संगीत का संगीत शून्य का संगीत। जब तुम चुप हो,
तब भी तो एक गीत झर—झर
बहता है। जब वाणी निर्मित नहीं होती,
तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है। अप्रकट है, अव्यक्त
है; पर है तो सही। तो शून्य में भी और शब्द में भी ओमकार निमज्जित है।
ओमकार ऐसा है जैसे सागर।
हम ऐसे हैं जैसे सागर की मछली।
इस
ओमकार को समझना। इस ओमकार को ठीक से समझा नहीं गया है। लोग तो समझे कि एक मंत्र है, दोहरा
लिया। यह दोहराने की बात
नहीं है। यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो,
तभी तुम समझोगे ओमकार क्या है। हिंदू होने से नहीं समझोगे। वेदपाठी होने से नहीं समझोगे।
पूजा का थाल सजाकर ओमकार की रटन करने से नहीं समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में
उत्सव होगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में गान फूटेगा,
तब समझोगे। जब तुम्हारे भीतर झरने बहेगे, तब समझोगे।
अथातो भक्ति जिज्ञासा
ओशो
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