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Thursday, February 28, 2019

गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु को उपलब्ध है, अथवा नहीं? और यदि शिष्य को कभी ऐसा महसूस होने लगे कि चुनाव में बाजी हार गया है, तो क्या वह दूसरे गुरु के पास जा सकता है? कृपया अपनी मान्यता स्पष्ट करें।

श्रीराम शर्मा! गुरु चुना नहीं जाता। और जो चुनेगा, वह चुनने में ही चूक गया। तुम गुरु चुनोगे, तुम चुनोगे न! तुम गलत हो, तुम्हारा चुनाव भी गलत होगा। तुम कहां से आंखें लाओगे देखने वाली? तुम्हारे पास कसौटी क्या है? तुम्हारी बुद्धि जो भी सोच सकती है, विचार कर सकती है, वह तुमसे पार का नहीं होगा। तुमसे ऊंचा नहीं होगा। तुम्हारे हाथ तुम्हारे ही हाथ हैं। इसलिए तुम जो भी पकड़ोगे, जो भी चुनोगे, वह तुम्हारी बुद्धि की सीमा के भीतर होगा। और जो तुम्हारी बुद्धि की सीमा के भीतर है, उसमें तुम बुद्धि के पार न जा सकोगे। तुम्हारे चुनाव में तुमने स्वयं को ही फिर चुन लिया। तुमने चुना, वहीं भूल हो गई तुम सोचते हो कि भूल बाद में पता चलेगी, भूल प्रथम ही हो जाती है। पहले कदम पर ही असली सवाल है। गुरु चुना नहीं जाता।

गुरु का चुनाव चुनाव नहीं है, प्रेम जैसी घटना है--हो जाता है। और अकसर तो तुम्हारी बुद्धि के बावजूद होता है। तुम्हारी बुद्धि कहती रहती हैः नहीं, नहीं; इनकार करती रहती है और तुम्हारा हृदय कदम बढ़ा लेता है और छलांग लगा लेता है। गुरु का संबंध हृदय का संबंध है, बुद्धि और विचार का नहीं। तर्क का नहीं, भाव का। तुम्हारा प्रश्न तो विचार का है।

तुम पूछते होः गुरु तो सदैव मुमुक्षु की आध्यात्मिक स्थिति जान सकते हैं, परंतु मुमुक्षु कैसे जाने कि गुरु सत्य को उपलब्ध हुआ है या नहीं?’

कोई उपाय ही नहीं है जानने का। न कभी था, न कभी होगा। अंधा कैसे जानेगा कि दूसरा आदमी जो सामने खड़ा है, उसके पास आंख है या नहीं? सोया आदमी कैसे जानेगा कि जो पास बैठा है, वह जागा है या नहीं? कोई उपाय नहीं है! लेकिन, बुद्धि के बावजूद कभी-कभी भाव की तरंग पकड़ लेती है और तुम्हें बहा ले जाती है। गुरु से संबंध एक तरह का पागल संबंध है। विचार का नहीं, हिसाब का नहीं, गणित का नहीं।

इसलिए जो गुरु को पकड़ लेते हैं, लोग उन्हें दीवाना ही समझते हैं, सदा से दीवाना समझते हैं। वे दीवाने हैं। यह वैसा ही संबंध है जैसा प्रेम का। एक स्त्री को तुमने देखा, या एक पुरुष को देखा और तुम्हें प्रेम हो गया। तुम कैसे जानोगे, क्या उपाय है बुद्धि के पास कि जिससे तुम्हारा प्रेम हुआ है, यही वास्तविक प्रेम का पात्र है? जिस स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए हो, यह तुम्हारी ठीक-ठीक पत्नी सिद्ध हो सकेगी? तुम्हारे बच्चों की ठीक-ठीक मां बन सकेगी? सम्यक गृहिणी हो सकेगी, तुम्हारा घर सम्हाल सकेगी? तुम्हें सुख-दुख में साथ दे सकेगी? क्या उपाय है जानने का? लेकिन प्रेम जानना ही नहीं चाहता। प्रेम कहता हैः न हो सकेगी ठीक पत्नी तो भी ठीक, न हो सकेगी बच्चों की मां ठीक तो भी ठीक, न सम्हाल सकेगी घर-गृहस्थी तो भी ठीक। प्रेम अंधा है--बुद्धि के हिसाब से। क्योंकि जो आंखें बुद्धि की हैं, वे आंखें हृदय की नहीं; हृदय के पास और ही आंखें हैं। हृदय के पास अपने ढंग हैं। तर्कसरणी से हृदय नहीं चलता है। हृदय छलांग भरता है, गणित नहीं बिठाता है। एक अनुभूति होती है, एक स्फुरणा होती है।
ऐसा ही गुरु का संबंध है।

मुमुक्षु को स्फुरणा होती है। अचानक हृदय को कोई मथ जाता है। अचानक बुद्धि से गहराई में कहीं कोई किरण प्रविष्ट हो जाती है, रोमांच हो जाता है! तुम चौंकते हो, तुम चुनते नहीं। जब गुरु चुना जाता है, तुम चुनते नहीं, चौंकते हो, यह क्या हो रहा है? तुम विवश हो जाते हो, अवश हो जाते हो। खिंचे चले जाते हो। रोकना चाहो तो रोक नहीं सकते। जाना चाहो तो जाना झूठ होगा। कोई अज्ञात शक्ति तुम्हें चारों तरफ से घेर लेती है।

अगर तुम ठीक से समझना चाहो, तो शिष्य गुरु को नहीं चुनता, गुरु शिष्य को चुनता है। गुरु पहले चुन लेता है, तभी तुम्हारे हृदय में तरंग उठती है, स्फुरणा होती है। गुरु तुम्हें घेर लेता है। तुम्हारे भागने के सब उपाय बंद कर देता है। तुम्हारे सारे सेतु जिनसे तुम होकर आए हो, तोड़ देता है। तुम्हारी सारी सीढ़ियां जिनसे तुम चढ़ कर आए हो, गिरा देता है। तुम्हारे सारे तर्कजाल छिन्न-भिन्न कर देता है। गुरु तुम्हारे भीतर एक शराब उड़ेल देता है। उस शराब के नशे में तुम डूब जाते हो।
 
गुरु को कोई कभी चुनता नहीं। कभी किसी ने चुना नहीं। और जिन्होंने चुना है, उनसे पहले ही चूक हो गई। चुनने में तो सदा ही संदेह रहेगा।


जिस दिन तुमको लगे कि चुनाव में बाजी हार गए हो, उस दिन पहली बात तो यह लगनी चाहिए कि मैंने शिष्यत्व का पूरा गुणधर्म किया? नहीं, वह सवाल ही नहीं उठता। सवाल यह उठता है कि अगर नहीं उपलब्धि हुई तो गुरु गलत है। सवाल यह उठा ही नहीं तुम्हारे मन में कि अगर उपलब्धि नहीं हुई, तो मैंने वह सब पूरा किया है जो गुरु ने कहा है? क्या मैं यह कह सकता हूं कि मैंने समग्रभाव से समर्पण किया है, श्रद्धा की है? क्या मैं कह सकता हूं कि मैंने पूरा श्रम लगा कर साधना की है? जो गुरु ने कहा था, उस पर मैं पूरा-पूरा चला हूं, सौ प्रतिशत? अगर हां, तुम यह कह सको कि मैं सौ प्रतिशत चला हूं जो गुरु ने कहा था, और फिर भी बाजी हार गया हूं, तो निश्चित गुरु बदल लेना। लेकिन, जो सौ प्रतिशत चलता है, उसे बदलने की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि सौ प्रतिशत चलने से मुक्ति है।

तुम मेरी बात को ठीक से समझ लो।

गुरु और न-गुरु का कोई बड़ा सवाल नहीं है। गुरु तो निमित्त मात्र है जिसके सहारे सौ प्रतिशत समर्पण हो जाता है। तुम निमित्त को ज्यादा मूल्य मत दो। गुरु तुम्हें सत्य नहीं दे सकता। नहीं तो एक गुरु ने सारे जगत को सत्य से भर दिया होता। गुरु तुम्हें कुछ भी नहीं दे सकता। सत्य दिया-लिया नहीं जाता। गुरु तो एक निमित्त है, एक प्रकाशवान निमित्त है, जिसके पास बैठ कर तुम्हें पूरे समर्पण की भाव-दशा बनाने में आसानी होती है, बस। बहाना है।

अरी मैं तो नाम के रंग छकी 

ओशो 
 


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