मैं निश्चित ही संयम का विरोधी हूं, उस संयम का जो आदमी जबरदस्ती अपने ऊपर थोप लेता है। मैं संयम का बहुत पक्षपाती हूं, लेकिन उस संयम का जो समझ के परिणामस्वरूप मनुष्य को सहज उपलब्ध होता है। इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। एक तो ऐसा संयम है, जो आदमी जबरदस्ती अपने ऊपर थोपता है। भीतर कुछ होता है, ऊपर से कुछ और हो जाता है। और अधिकतर संयमी इसी तरह के लोग होते हैं। भीतर हिंसा होती है, ऊपर से आदमी अहिंसक हो जाता है--पानी छान कर पीता है, रात खाना नहीं खाता है! ये सारे इंतजाम कर लेता है। और सोचता है कि मैं अहिंसक हो गया! भीतर हिंसा की लपटें, भीतर हिंसा की आग जलती रहती है, भीतर वासना सुलगती रहती है--ऊपर ब्रह्मचर्य और संयम के पाठ लेकर बैठ जाता है! भीतर क्रोध जलता है, ऊपर मुस्कुराहटें सीख लेता है! भीतर कुछ होता है, ऊपर बिल्कुल उलटा हो जाता है। ऐसा संयम बहुत खतरनाक है। और ऐसा संयम अपने आपको ज्वालामुखी पर बिठाने के समान है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक बहुत क्रोधी आदमी था। वह इतना क्रोधी था कि उसने अंततः अपने क्रोध में अपनी पत्नी को धक्का दे दिया एक कुएं में। उसकी पत्नी गिर गई और मर गई! तब उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ।
सभी क्रोधियों को पश्चात्ताप होता है। लेकिन पश्चात्ताप से क्रोधियों को कोई अंतर नहीं पड़ता। वे फिर तय कर लेते हैं कि अब ऐसा नहीं करेंगे। और कल फिर वही करते हैं, जो उन्होंने तय किया था कि नहीं करेंगे!
पश्चात्ताप में वह बहुत दुखी हो उठा। गांव में एक संन्यासी, एक मुनि आए थे। मित्रों ने उसे सलाह दी कि तुम इस तरह नहीं बदलोगे। वह मुनि आए हैं, उनके पास जाओ। शायद वह कोई रास्ता बता सकें। वह क्रोधी आदमी पश्चात्ताप के क्षणों में मुनि के पास जाकर, हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मैं क्रोध से जल रहा हूं। मैंने अपनी पत्नी को धक्का दे दिया। अब मैं बहुत घबरा गया हूं। मैं कैसे अपने क्रोध पर विजय पा सकता हूं?
मुनि ने कहाः साधारण गृहस्थ रहते हुए क्रोध को जीतना मुश्किल है! इसके लिए संयम की साधना करनी पड़ेगी, संन्यास लेना पड़ेगा। अगर तुम दीक्षा ले लो तो कुछ हो सकता है। वे मुनि नग्न थे।
उस आदमी ने फिर आव देखा न ताव, वस्त्र फेंक कर नग्न खड़ा हो गया! उसने कहा कि दीक्षा दें, इसी वक्त दीक्षा दें!
मुनि बहुत चकित हुए! मुनि ने कहाः बहुत लोग मैंने देखे हैं, इतना संकल्पवान आदमी, इतना विल पावर का आदमी मैंने नहीं देखा! संकल्प कुछ भी न था। वह आदमी क्रोधी था। जैसे एक क्षण में उसने धक्का देकर पत्नी को कुएं में गिरा दिया था, उसी तरह एक धक्का देकर अपने को दीक्षा में गिरा दिया। वही क्रोध था, कोई फर्क न था दोनों बातों में। लेकिन मुनि समझे कि बहुत संकल्पवान है!
क्रोधी लोग अक्सर तपस्वी हो जाते हैं, क्योंकि क्रोध बड़ी तपश्चर्या करवा सकता है। क्रोध बड़ी खतरनाक ताकत है। क्रोध दूसरे को भी सता सकता है, क्रोध खुद को भी सता सकता है। क्रोध को मजा सताने में आता है। सौ में से अट्ठानबे प्रतिशत तपस्वी और संन्यासी लोग क्रोधी लोग होते हैं। और जो क्रोध दूसरों को कष्ट देता है, उस क्रोध को अपनी तरफ मोड़ लेते हैं और खुद को कष्ट देना शुरू कर लेते हैं!
दुनिया में दो तरह के सताने वाले लोग होते हैं। दो तरह की वायलेंस होती है, हिंसा होती है। एक हिंसा होती है दूसरे के प्रति, जिसको अंग्रेजी में सैडिज्म कहते हैं--पर-पीड़न! और एक हिंसा होती है, जिसे अंग्रेजी में मैसोचिज्म कहते हैं--आत्मपीड़न! खुद को सताने में भी उतना ही मजा आने लगता है!
उस आदमी ने वस्त्र फेंक दिए और खड़े होकर कहाः मैं दीक्षा लेने को तैयार हूं। मुनि ने कहाः तू बड़ा धन्यभागी है। तूने इतना महान कार्य किया कि एक क्षण में तूने संकल्प ले लिया!
और दूसरे दिन से उस आदमी के महान संकल्प के अनेक प्रमाण मिलने शुरू हो गए। वह इतनी कठिन तपश्चर्या में लग गया कि मुनि के सारे शिष्य पीछे पड़ गए। वह सबसे आगे निकल गया, जो सबसे पीछे आया था। उसके गुरु ने उसे मुनि शांतिनाथ का नाम दिया, क्योंकि उसने क्रोध पर विजय करने की साधना शुरू की थी।
वर्ष बीतते-बीतते वह आदमी जगत में ख्याति प्राप्त हो गया। जगह-जगह से उसकी पूजा के समाचार आने लगे। जब दूसरे साधु छाया में बैठते तो वह धूप में खड़ा रहता! जब दूसरे साधु बंधे हुए रास्तों पर चलते तो वह कांटों से भरी पगडंडियों पर चलता! जब दूसरे साधु दिन में एक बार भोजन करते, वह तीन दिन में एक बार भोजन लेता! उसने सारे शरीर को सुखा कर कांटा कर दिया! फिर जितना आदर मिलने लगा, उतना ही वह क्रोधी आदमी अपना दुश्मन होने लगा! उसने हजार-हजार तरकीबें निकाली खुद को सताने की! उसकी ख्याति बढ़ती चली गई।
वह देश की राजधानी में पहुंचा। देश की राजधानी में उसकी ख्याति पहुंच गई थी। उसका एक मित्र राजधानी में रहता था। वह बहुत चकित हुआ यह जान कर कि उसका क्रोधी दोस्त साधु हो गया है, मुनि शांतिनाथ हो गया है! यह कैसे हो गया! यह उसे विश्वास नहीं पड़ा। वह आदमी अपने मित्र को, संन्यासी को देखने आया।
संन्यासी बड़े मंच पर आसीन था। हजारों लोग उसके दर्शन करने को आए थे!
जो आदमी बड़े मंचों पर आसीन हो जाते हैं, वे नीचे बैठने वालों को नहीं पहचानते! वह मंच चाहे मिनिस्टर का हो और चाहे संन्यासी का हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मंच ऊंचा होना चाहिए। फिर कोई किसी नीचे वाले को नहीं पहचानता। इसी मजे के लिए कि किसी को पहचानना न पड़े, आदमी बड़े मंचों की यात्रा करता है! दुनिया उसको पहचाने और वह किसी को न पहचाने, यही तो मजा है अहंकार का।
मित्र को देख तो लिया संन्यासी ने, लेकिन पहचाना नहीं! मित्र को भी समझ में तो आ गया कि वह पहचान गया है, फिर भी पहचानना नहीं चाह रहा है! तभी उसे ख्याल आ गया कि मुश्किल है इस आदमी ने क्रोध जीता हो। क्योंकि क्रोध और अहंकार सगे भाई हैं। अगर एक आता है तो दूसरा अपने आप चला आता है।
वह मित्र पास आकर बैठ गया। और उसने कहा कि महाराज, आपका बड़ा नाम सुना है, आपकी बड़ी कीर्ति सुनी है, लेकिन मुझे पता नहीं कि आपका ठीक-ठीक नाम क्या है। क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपका क्या नाम है? मुनि को तो क्रोध आ गया, क्योंकि वह भलीभांति जानता है, वह मुझे बचपन से जानता है और अब नाम पूछने आया है!
उसने कहाः अखबार नहीं पढ़ते हो? रेडियो नहीं सुनते हो? मेरे नाम की सारे जगत में चर्चा है! मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ, ठीक से सुन लो!
मित्र ने कहाः भगवान, आपने बड़ी कृपा की, जो नाम बता दिया। फिर मुनि कुछ दूसरी बातों में लग गए।
दो मिनट बाद उस मित्र ने कहा कि ठहरिए, ठहरिए मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?
मुनि के भीतर क्रोध जग गया! कहाः आदमी हो या पागल, मेरा नाम मैंने अभी बताया था--मुनि शांतिनाथ।
मित्र ने कहाः धन्यवाद, आपने फिर बता दिया, मैं भूल गया था क्षमा करें। दो मिनट बाद दूसरी बात चली होगी कि उस आदमी ने फिर पैर को हाथ लगाया और कहा मुनि जी मैं भूल गया, नाम क्या है आपका?
मुनि ने अपना डंडा उठा लिया और कहा सिर तोड़ दूंगा! मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ--बुद्धि है तेरे पास या नहीं?
उस मित्र ने कहाः सब अपनी जगह है महाराज। मेरे पास बुद्धि अपनी जगह है और आपका क्रोध अपनी जगह है। मैं सिर्फ यही देखने आया था कि वह क्रोध चला गया या मौजूद है?
यह सारा संयम उस क्रोध को भीतर दबाए हुए बैठा है। हिंसक, अहिंसक बन जाते हैं! क्रोधी क्षमावान दिखाई पड़ने लगते हैं! कभी ब्रह्मचर्य की धारणा कर लेते हैं! यह सब हो सकता है। लोभी त्यागी हो सकते हैं। लेकिन भीतर कोई अंतर नहीं पड़ता। ऊपर से थोपी गई बात, भीतर की आत्मा को रूपांतरित नहीं करती।
कोई भी क्रांति बाहर से भीतर की तरफ नहीं होती। सारी क्रांतियां भीतर से बाहर की तरफ होती हैं। आत्मा बदल जाए तो आचरण बदल जाता है। लेकिन आचरण भर बदलने से आत्मा नहीं बदलती।
सत्य की खोज
ओशो
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