अहंकार सलाह लेने से डरता है। अहंकार अपनी उलझन खुद ही सुलझा लेना
चाहता है। यह भी स्वीकार करने में कि मैं उलझा हूं, अहंकार को चोट लगती है। अहंकार गुरु के पास इसीलिए
नहीं जा सकता है।
और मजा यह है कि तुम्हारी सारी उलझन अहंकार से पैदा होती है और तुम उसी से सुलझाने की कोशिश करते हो। सुलझाने में और उलझ जाते हो। उलझोगे ही, क्योंकि अहंकार उलझाने का सूत्र है, सुलझाने का नहीं।
तुम्हारे जीवन की जैसी दशा है, जैसी विकृती है, जैसी रुग्ण अराजकता है, जिसके कारण पैदा हुई उस बीमारी को ही तुम औषधि बना रहे हो। औषधि तुम्हें और मारे डालती है। बीमारी से शायद तुम बच भी जाते, लेकिन औषधि से बचने का कोई उपाय नहीं। और जिसने बीमारी को ही औषधि समझ रखा हो, उसकी उलझन का तो कोई अंत कभी भी न होगा।
एक बात सबसे पहले समझ लेनी जरूरी है..अपने भीतर सदा खोजना, किसके कारण उलझन है और तब कुछ विपरीत की तरफ जाना, वहां से सुलझाव आ सकेगा।
अहंकार उलझन है, समर्पण सुलझाव होगा। अहंकार ने रोग निर्मित किया है; समर्पण से मिटेगा। इसलिए तो समस्त शास्त्रों ने, समस्त परंपराओं ने समर्पण की महिमा गायी है।
समर्पण का अर्थ हैः मैं नहीं सुलझा पाता हूं अपने को, और उलझाए चला जाता हूं तो अब मैं अपने को छोड़ता हूं और अपने से बाहर, अपने से विपरीत से सलाह मांगता हूं।
गुरु के पास जाना अहंकार को छोड़े बिना नहीं हो सकता। और तुम अगर गुरु के पास भी जाते हो तो भी अहंकार से ही पूछ के जाते हो। जब वह कह देता है, हां ठीक, तभी तुम्हारी गाड़ी आगे बढ़ती है। तब तो तुम्हारा अहंकार तुम्हारे गुरु से भी बड़ा हो गया; तुम्हारे अहंकार की स्वीकृति से ही गुरु निर्मित हुआ। ऐसे गुरु से भी बहुत सहारा न मिलेगा।
अहंकार के कारण ही सारी दुनिया में हमने विशेषज्ञ पैदा किये। वे ऐसे गुरु हैं जिनके चरणों में तुम्हें समर्पण नहीं करना पड़ता; ज्यादा से ज्यादा फीस चुका दी, उसमें कुछ हर्जा नहीं है। तुम विशेषज्ञ के पास जाते हो, क्योंकि विशेषज्ञ तुम्हारा नौकर हो जाता है। वहां तुम्हें समर्पण नहीं करना पड़ता। बिना समर्पण किये विशेषज्ञ तुम्हारे उलझाव को सुल झाने की कोशिश करता है। विशेषज्ञ दुनिया में बढ़ते जाते हैं, लेकिन उलझाव कम नहीं होता।
गूंगे केरी सर्करा
ओशो
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