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Saturday, February 23, 2019

जिंदगी में पाया क्या है? सिर्फ पूछ लेना


..अपने से ही, किसी और से नहीं। क्योंकि इसका उत्तर कोई दूसरा न दे सकेगा। यह अपने से ही कभी-कभी पूछते रहें कि जिंदगी में पाया क्या है?

यह प्रश्न ही धीरे-धीरे इस जिंदगी की व्यर्थता को दिखाने का कारण बन जाता है। और जब तक यह जिंदगी व्यर्थ न हो जाए, तब तक दूसरी सार्थक जिंदगी का द्वार नहीं खुलता है। इस जिंदगी की व्यर्थता का अर्थ है: अब हम इस जिंदगी के पार होने के लिए तैयार हो गए। पहली कक्षा से विद्यार्थी दूसरी कक्षा में जाता है। उसका कुल मतलब इतना है कि अब पहली कक्षा व्यर्थ हो गई, अब उसमें सीखने जैसा कुछ भी बाकी नहीं बचा है। इस जिंदगी से हम तभी ऊपर की जिंदगी में उठ सकते हैं, जब यह जिंदगी व्यर्थ हो जाए। इससे जो सीखा जा सकता...

लेकिन इसके पहले कि पा ली गई चीज व्यर्थ हो, हम दूसरी चीज को पाने में लग जाते हैं। हमारी डिजायर्स ओवर लैपिंग हैं। एक इच्छा पूरी नहीं हो पाती कि हम दूसरी में संलग्न हो जाते हैं। कभी मौका ही नहीं मिलता जिंदगी में कि दो इच्छाओं के बीच में खड़े होकर हम देख लें, एक विचार, पुनर्विचार कर लें, एक रिकंसिड्रेशन कर लें कि हम जो दौड़ रहे हैं, पा रहे हैं, उससे कुछ मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है?

सुना है मैंने कि काशी के एक कुत्ते को दिल्ली की यात्रा की सनक सवार हो गई थी। वह किसी एम.पी. का कुत्ता था, छोटा-मोटा कुत्ता नहीं था। और एम.पी. के घर में, चलो दिल्ली, चलो दिल्ली की बातें सुनते-सुनते उसका दिमाग भी खराब हो गया हो तो कुछ बहुत आश्चर्य नहीं है। आदमियों का हो जाता है, सो वह तो कुत्ता था। एक दिन उसने अपने नेता से पूछ ही लिया कि सारी दुनिया दिल्ली जा रही है, मैं भी दिल्ली जाना चाहता हूं। रास्ता क्या है? कैसे दिल्ली पहुंचूं?

नेता का जो अपना रास्ता था, उसने उस कुत्ते को भी बता दिया। उसने कहा कि गरीब कुत्ते मिल जाएं तो उनसे कहना कि अमीर कुत्ते तुम्हारा शोषण कर रहे हैं। और अमीर कुत्तों से बचाने के लिए सिवाय मेरे और तुम्हारा कोई सेवक नहीं है। और अमीर कुत्ते मिल जाएं तो उनसे कहना कि गरीब कुत्ते मिल कर तुम्हारी हत्या की कोशिश कर रहे हैं और मेरे सिवाय तुम्हें बचाने वाला सेवक और कोई भी नहीं है।
 
लेकिन कुत्ता भी होशियार था, राजनैतिक का कुत्ता था। उसने कहा, अगर दोनों एक साथ मिल जाएं?
तो नेता ने कहा, सर्वोदय की बात करना कि हम सबका उदय चाहते हैं, हम सबके सेवक हैं।

वह कुत्ता बहुत जल्दी नेता हो गया, सीक्रेट कुंजी उसके हाथ में आ गई। और उसने दिल्ली खबर भेज दी कि अब मैं आ रहा हूं। एक महीने का अंदाज था उसे कि काशी से दिल्ली तक आने में एक महीना लग जाएगा, इसलिए एक महीने बाद की उसने खबर की कि फलां तारीख को मैं चलूंगा और एक महीने बाद फलां तारीख को दिल्ली पहुंच जाऊंगा। दिल्ली के कुत्तों को खबर की। वहां सर्किट हाउस वगैरह में इंतजाम कर लेना, उसने सब खबर कर दी।


लेकिन वह कुत्ता सात दिन में ही दिल्ली पहुंच गया! दिल्ली के कुत्ते बड़े हैरान हुए कि इतनी जल्दी यात्रा कैसे की? इतनी जल्दी आ कैसे गए?


वह कुत्ता थोड़ा ही बता पाया और मर गया। क्योंकि इतनी जल्दी जिसने यात्रा की, वह जीता हुआ मंजिल पर नहीं पहुंचता। लेकिन अपनी बात कह गया। उसने कहा कि यह यात्रा मैंने नहीं की; मैं तो महीने भर में भी शायद ही पहुंच पाता; यह तो बाकी कुत्तों ने मेरी यात्रा करवाई। एक गांव को मैं छोड़ भी न पाता कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते। अपनी जान बचाने को मैं भागता। वे दूसरे गांव के बाहर तक मुझे छोड़ कर लौट भी न पाते कि दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे लग जाते। और मैं जान बचाने को भागता। मैं दिल्ली नहीं आया, मैं जान बचा रहा हूं। इतना ही कहते, सुना है मैंने, वह कुत्ता मर गया था। लेकिन बड़े राज की बात वह कह गया।


आदमी भी अपनी-अपनी दिल्लियों पर पहुंच जाता है, लेकिन एक इच्छाएं दूसरे गांव तक छोड़ भी नहीं पातीं कि दूसरे गांव की इच्छाएं पकड़ लेती हैं। और सिर्फ अपने को बचाने में आदमी दौड़ता रहता है, दौड़ता रहता है। और आखिर में कुछ बचता नहीं और कुछ मिलता नहीं।


इसलिए पहला सूत्र आपसे कहता हूं: अपने से पूछते रहना बार-बार, क्या मिल गया है इस जिंदगी में? और यह भी पूछते रहना कि क्या मिल जाएगा? क्योंकि जो कल चाहा था वही आज भी हम चाह रहे हैं, जो परसों चाहा था वही कल भी चाहा था, जो वर्ष भर पहले चाहा था वही आज भी चाह रहे हैं। जब जिंदगी भर चाहने से कुछ नहीं मिला, तो अब क्या मिल जाएगा? जिस आदमी के सामने यह प्रश्न बहुत गहरा होकर बैठ जाता है, उस आदमी की जिंदगी में बदलाहट तत्काल शुरू हो जाती है। जब ऐसा आदमी क्रोध करेगा तो पूछेगा: क्या मिल जाएगा? और यह पूछते से ही क्रोध करना मुश्किल हो जाएगा।
 
मेरे एक मित्र हैं, बहुत क्रोधी हैं। तो मुझसे वे पूछते थे कि मैं क्रोध से बचने के लिए क्या करूं? बड़े नुस्खे उन्होंने उपयोग कर लिए थे, लेकिन कोई काम आया नहीं था। बड़ा संयम साध चुके थे, लेकिन जितना संयम साधा उतने क्रोधी होते चले गए थे। हां, एक-दो दिन साध लेते थे, तो तीसरे दिन दस गुना होकर प्रकट हो जाता था। तो मैंने उन्हें एक कागज लिख कर दे दिया, और उस कागज में लिख दिया कि इस क्रोध से मुझे क्या मिल जाएगा? मैंने कहा, यह अपने खीसे में रख लो। दबाना मत क्रोध को, जब क्रोध आए तो इस कागज को पढ़ कर और वापस खीसे में रख लेना।

वे पंद्रह दिन बाद मेरे पास आए और उन्होंने कहा, यह तो बड़ा अजीब कागज है! इसमें कुछ रहस्य, कुछ मंत्र, कुछ जादू है?


मैंने कहा, कोई रहस्य नहीं, कोई मंत्र नहीं, कोई जादू नहीं। साधारण कागज है और हाथ की लिखावट है।

 
उन्होंने कहा, नहीं, जरूर कोई बात है। अब तो हालत यह हो गई है कि इसको निकाल कर पढ़ना भी नहीं पड़ता। बस हाथ खीसे की तरफ गया कि मामला एकदम विदा हो जाता है। क्योंकि जैसे ही यह ख्याल आता है..इस क्रोध से क्या मिल जाएगा? तो जिंदगी भर का तो अनुभव है कि कभी कुछ नहीं मिला। सिर्फ खोया जरूर है, मिला कुछ भी नहीं है।


और ध्यान रहे, जिस चीज से कुछ नहीं मिलता, यह मत समझना आप कि सिर्फ कुछ नहीं मिलता। जिससे कुछ नहीं मिलता उसमें कुछ खोता भी जरूर है। इस जिंदगी में या तो माइनस होता है कुछ या प्लस होता है कुछ। या तो कुछ मिलता है या कुछ खोता है, बीच में कभी नहीं होता। इस पूरी जिंदगी में या तो कुछ मिलेगा या कुछ खोएगा। और अगर आपको कुछ न मिला हो तो दूसरी बात मैं आपसे कहता हूं कि आपने कुछ खो दिया है, जिसका आपको पता भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम खड़े रह जाएं। या तो हम आगे जाएंगे, या हम पीछे जाएंगे। अपनी जगह खड़े रहने की कोई गुंजाइश नहीं है।

धर्म साधना 

ओशो

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