एक धर्मगुरु ने एक रात एक सपना देखा। सपने में उसने देखा कि वह
स्वर्ग के द्वार पहुँच गया है। जीवनभर उसने स्वर्ग की ही बातें की थी। और जीवनभर
स्वर्ग का रास्ता क्या है, यह लोगों को बताया था उसे निश्चित था कि जब मैं स्वर्ग के द्वार पर
पहुंचूंगा ता स्वयं परमात्मा मेरे स्वागत को तैयार रहेंगे। लेकिन वहां द्वार पर तो
कोई भी नहीं था द्वार खुला भी नहीं था, बन्द था। द्वार इतना
बड़ा था कि उसके ओर-छोर को देख पाना सम्भव नहीं था उस विशाल द्वार के समक्ष खड़े
होकर, वह एक छोटी चींटी जैसा मालूम होने लगा। उसने द्वार को
बहुत खटखटाया, लेकिन उस विशाल द्वार पर, उस छोटे-से आदमी की आवाजें भी पैदा हुई या नहीं, इसका
पता चल पाना कठिन था। वह बहुत डर गया।
निरन्तर उसने यही कहा था कि परमात्मा ने, अपनी ही शक्ल में, आदमी को बनाया और आज इस विराट द्वार के समक्ष, खड़े
होकर वह इतना छोटा मालूम होने लगा। बहुत चिल्लाने, बहुत
द्वार पीटने पर, द्वार से कोई एक छोटी, खिड़की खुली और किसी ने झांका। जिसने झांका था, उसकी
हजार आंखें होंगी और इतनी तेज रोशनी थी उन आंखों की कि वह धर्मगुरु दीवार के एक
छोटे-से कोने में सरक गया। इतना डर गया और चिल्लाया कि आप कृपा कर चेहरा भीतर
रखें।
हे परमात्मा! आप चेहरा भीतर रखें, मैं बहुत डर गया हूं। उस हजार आंखों वाले
व्यक्ति ने कहा मैं परमात्मा नहीं हूं। मैं तो यहां का पहरेदार हूं, द्वारपाल हूं। तुम कहां हो? मुझे दिखाई नहीं पडते,
तुम कितने छोटे हो और कहां छिप गये हो। उस धर्मगुरु ने चिल्लाकर कहा
कि मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूँ और स्वर्ग में प्रवेश करना चाहता हूं। उस
द्वारपाल ने पूछा तुम हो कौन और कहा से आये हो? उसने का क्या
आपको पता नहीं? मैं एक धर्मगुरु हूं और पृथ्वी से आ रहा हूं।
उस हजार आंख वाले आदमी ने कहा पृथ्वी यह कहां है? वह धर्मगुरु
हैरान हुआ, कहा तुम्हें पृथ्वी का भी पता नहीं? उस हजार आंख वाले ने कहा कि किस यूनिवर्स में? तुम
किस विश्व की? पुथ्वी की बात कर रहे हो? करोड़ों यूनिवर्स हैं, करोड़ों विश्व हैं। प्रत्येक
विश्व के करोड़ों सूरज हैं, प्रत्येक सूरज की अपनी पृथ्वियां
हैं। तुम किस पृथ्वी की बात करते हो? क्या नम्बर है तुम्हारी
पृथ्वी का, क्या इण्डेक्स नम्बर है? उसे
तो कुछ पता नहीं था। उसने कहा कि हम तो एक ही विश्व को जानते हैं और एक ही सूरज
को। और हमने इसलिए उनका कोई नाम नहीं रखा, कोई नम्बर नहीं
रखा।
उस पहरेदार ने कहा तब बहुत मुश्किल है पता लगाना कि तुम कहां से
आ रहे हो। पहली बार ही इस द्वार पर पृथ्वी का नाम सुना गया है और
"मनुष्य" शब्द भी पहली बार ही मेरे कानों में पड़ा है।
उस धर्मगुरु के तो प्राण बैठ गये सोचा था, परमात्मा द्वार पर स्वागत
को मिलेंगे। यहां तो इसका भी पता नहीं है कि जिस पृथ्वी से वह आ रहा है वह कहां हैं
फिर भी उस पहरेदार ने कहा तुम निश्चिन्त रहो, मैं अभी पूछताछ करवाता हूं।
थोड़ा समय तो लग जायेगा, उस भवन में खोज करवाता हूँ कि तुम
किस पृथ्वी की बातें करते हो, जहां सारी पृथ्वियों के
सम्बन्ध में, हमारे पास आंकड़े इकट्ठे हैं, नक्शें हैं, लेकिन कुछ महीने लग जायेंगे। इसके पहले
तो पता लगाना कठिन है कि तुम कहां से आते हो, किस जाति के हो
और तुम्हारा यहां आने का क्या प्रयोजन है। उसने कहा कि मैं परमात्मा के दर्शन करना
चाहता हूं। उस पहरेदार ने कहा-अनन्त वर्ष हो गये, मुझे इस
द्वार पर। अभी तो मैं भी परमात्मा के दर्शन नहीं कर पाया। और अब तक मैं ऐसे
व्यक्ति से भी नहीं मिला हूं, इस स्वर्ग के द्वार पर,
जिसने परमात्मा के दर्शन किये हों। परमात्मा की पूरी सृष्टि को ही
जान लेना कठिन हैं परमात्मा का जानना तो और भी कठिन है। वह तो समग्रता का ही नाम
है।
घबराहट में उस धर्मगुरु की नींद टूट गयीं वे पसीने से लथपथ था।
घबरा गया था। फिर रातभर उसे नींद नहीं आ सकी। वह बार-बार यही सोचता रहा कि कहीं
मनुष्य ने, अपने
अहंकार के ही प्रभाव में तो यह सारी बातें नहीं सोच ली है। कि परमात्मा ने आदमी को
अपनी ही शक्ल में बनाया और परमात्मा आदमी से मिलने को उत्सुक है, पुकार रहा है और स्वर्ग के द्वार और मोक्ष यह कहीं मनुष्य ने अपने ही मन
की कल्पनाएं तो नहीं खड़ी कर ली हैं?
इस कहानी से,
इसलिए मैं शुरू करना चाहता हूं, धर्मगुरु के
इस सपने से कि आदमी एक बहुत बड़े भ्रमलोक में जीता है।
वह स्वयं को न जाने
क्या-क्या समझ लेता है, जब कि विराट विश्व के किसी कोने मे,
उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इस विश्व की विराटता का हम अनुभव करें
और फिर उसके सामने अपने को खड़ा करें तो हम कहां रह जाते हैं, हम कहां है? यह पृथ्वी बहुत छोटी है। हमारा सूरज इस
पृथ्वी से साठ हजार गुना बड़ा है। और यह सूरज, जितने सूरज हम
जानते हैं, उनमें सबसे छोटा है। और कोई दो अरब सूरज ही
समाप्ति नही हैं, उनके आगे भी विश्व होगा, उसके आगे भी विस्तार होगा, उसे आगे भी फैलाव होगा।
इतने अनन्त विश्व के एक छोटी-सी पृथ्वी के कोने पर, छोटा-सा
प्राणी है मनुष्य। उसकी भी कोई बहुत बड़ी संख्या नहीं है। कोई साढ़े तीन अरब उसकी
संख्या है। अगर हम और प्राणियों की संख्या के हिसाब से विचार करेंगे तो पायेंगे,
वह कहीं भी नहीं है। और छोटे-छोटे प्राणी हैं, उनकी संख्या अनन्त है। उसमें छोटा-सी संख्या का यह मनुष्य है।
आनंद गंगा
ओशो
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