ज्ञान का लक्ष्य मुक्ति है। ध्यान का लक्ष्य मुक्ति है। प्रेम
का लक्ष्य उत्सव है। प्रेम का लक्ष्य आनंद है, यद्यपि मुक्ति और आनंद एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं। जिसको मुक्ति मिली, उसे आनंद भी मिलता है। और जिसे आनंद
मिला, उसे मुक्ति भी मिलती है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं। वे अलग-अलग नहीं हैं। लेकिन चूंकि ज्ञानी ध्यान की ही बात करता है और ध्यान
के रास्ते से चलते-चलते धीरे-धीरे अपने को मुक्त करता है, जब
मोक्ष का क्षण आता है तो वह महिमा मोक्ष की बखानेगा। स्वभावतः, उसके लिए आनंद गौण है, छाया की तरह है।
तुम्हारा मित्र तुम्हारे घर आया, तो तुम मित्र की अगवानी करते हो; उसकी छाया की नहीं। छाया भी आयी; जैसा मित्र आया
वैसे छाया भी आयी, लेकिन तुम छाया की अगवानी नहीं करते। तुम
फूल-हार मित्र को पहनाते हो, छाया को नहीं। तुम मित्र का
स्वागत करते हो, बंदनवार लगाते--छाया के लिए नहीं। यद्यपि
छाया भी साथ रही है।
जिसने ध्यान की खोज की है,
उसने चाहा है मोक्ष आ जाए, मुक्ति आ जाए।
मुक्ति उसकी आकांक्षा है तो जिस पर आकांक्षा लगी है, जिस पर
ध्यान अटका है, जब वह घटना घटेगी तो वह मोक्ष की ही प्रशंसा
के, महिमा के वचन बोलेगा। आनंद उसके पीछे चला आया है--छाया
की तरह। लेकिन आनंद की वह बात न करेगा।
बुद्ध ने "आनंद'
शब्द का भी उपयोग नहीं किया। अगर लोगों ने बहुत आग्रह भी किया,
तो उन्होंने इतना ही कहा कि वहां दुःख-निरोध हो जाता है। दुःख नहीं
होता वहां, इतना ही कहा। इतना नहीं कहा कि आनंद होता है। यह
भाषा ज्ञानी की है। उसके कारण हैं। उसकी भाषा में भी अर्थ है। जब भी कुछ ज्ञानी या
भक्त बोलते हैं तो अकारण तो नहीं बोलते। बुद्ध ने क्यों नहीं कहा कि आनंद है?
क्या उनको पता नहीं चल रहा आनंद? और किसको पता
चलेगा? बुद्ध से ज्यादा आनंदित आदमी और कहां खोजोगे? लेकिन फिर बोलते क्यों हैं वे कि सिर्फ दुःख-निरोध?
लोग कई तरह से प्रश्न पूछे हैं जिंदगीभर बुद्ध को। इधर से
कुरेदा, उधर से
कुरेदा--कहीं से भी आनंद निकाल लें। लेकिन बुद्ध सदा इतना ही कहते हैं: वहां दुःख नहीं है। आनंद के बाबत चुप रह जाते हैं। क्यों? क्योंकि बुद्ध देखते हैं कि लोगों की आकांक्षा बड़ी विकृत है। अगर उनसे
आनंद की बात कहो, तो वे यह तो समझ ही नहीं पाते कि आनंद क्या
है; वे यही समझते हैं कि अपना ही सुख बड़ा होकर होगा। आनंद का
अर्थ समझते हैं: सुख की ही और बड़ी राशि, महासुख। कोई गुणात्मक भेद नहीं समझ पाते; परिमाण का
भेद समझते हैं। तो समझो आनंद अपने पास तिलभर है और वहां आकाशभर--बहुत होगा,
लेकिन यही। तो भ्रांति हो जाएगी।
बुद्ध कहते हैं: तुम्हारा जीवन में जो दुःख है, वह वहां नहीं होगा।
जो वहां होगा उसका तो तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। इसलिए मैं कोई भी शब्द ऐसा उपयोग
न करूंगा, जिससे तुम्हारे जीवन में और अड़चन आ जाए। आनंद तो
तुम जानते नहीं, तो मैं कैसे कहूं? दुःख
तुम जानते हो; इसलिए सुख के बहाने, कहता
हूं कि दुःख वहां नहीं है।
समझो। एक आदमी ने रोशनी नहीं देखी। फिर कोई आदमी रोशनी देखकर
आया। और यह आदमी जो सदा अंधेरे में रहा है जिसने रोशनी नहीं देखी, यह पूछता है: वहां क्या है? तो यह जो रोशनी देखकर आया है,
यह अगर कहे कि वहां रोशनी है, तो बेकार की बात
है। क्योंकि यह आदमी तो कभी रोशनी देखा नहीं है, इसलिए यह
शब्द बेकार है। यह देखकर आनेवाला कहता है: वहां अंधेरा नहीं
है। यह बात सार्थक है। वह अंधेरे में रहनेवाला आदमी कितनी ही जिद्द करे, वह कहे कि यह तो मैं समझ गया कि वहां अंधेरा नहीं है, मगर वहां है क्या? नहीं क्या है, यह तो तुमने बता दिया; मगर है क्या, यह तो बताओ! वह कहेगा: तुम जाओ और देखो: कुछ है, लेकिन वह शब्द के बाहर, अनिर्वचनीय, शब्दातीत, भाषा
में न कहा जा सके, अव्याख्य।
बुद्ध जब किसी गांव में आते थे तो डुंडी पिटवा देते थे कि मुझसे
ग्यारह प्रश्न कोई न पूछे। उन ग्यारह प्रश्नों में उन्होंने वे सब बातें जोड़ दी
थीं, जिनकी
व्याख्या नहीं हो सकती--अनिर्वचनीय। जिनको जानो तो ही जान सकते हो। "दरिया
देखे जानिए।' जिनको देखो तो ही जान सकते हो। जिनको बताने का
कोई उपाय नहीं। और बताने से भूल की पूरी संभावना है। क्योंकि कुछ का कुछ समझ
जाओगे।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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