अजातशत्रु, बुद्ध के समय का एक सम्राट--और जैसे सम्राट होते हैं, सदा भयभीत, डरा हुआ। न मालूम कितने लोगों को मरवा
डाला है उसने; अपने बाप तक को कैद में डाल दिया है; कैसे न डरेगा? कैसे न भयभीत होगा? कब कौन मार दे, कब कौन गोली चला दे, कब कौन छुरा भोंक दे! उसके वजीरों ने उसे कहा, बुद्ध
का आगमन हुआ है, आप भी चलेंगे सत्संग को? उसने पूछा, कितने लोग बुद्ध के साथ आए हैं? पता चला दस हजार भिक्षु आए हैं। कहां ठहरे हैं? सब
उसने पता लिया, ठिकाना लिया; उसने कहा,
अच्छा मैं चलूंगा।
जब वह गया तो पूछता जाता कि अभी तक आया नहीं स्थान? तब उन्होंने कहा कि अब देखें, यह जो दूर अमराई दिखती है आमों की, बस इसी में बुद्ध ठहरे हैं। पास ही थी अमराई, थोड़े ही कदमों का फासला। अजातशत्रु ने अपनी तलवार निकाल ली! वजीरों ने कहा, आप तलवार क्यों निकाल रहे हैं? उसने कहा मुझे शक होता है, मुझे किसी धोखे का शक होता है। अगर दस हजार लोग यहां ठहरे हैं तो बाजार मचा होता! न कोई आवाज है, न कोई शोरगुल है। यहां तो लगता है अमराई खाली पड़ी है। मुझे कोई चहल-पहल नहीं दिखाई पड़ती। तुम मुझे कुछ धोखा तो नहीं दे रहे हो? तुम मुझे किसी शडयंत्र में तो नहीं डाल रहे हो? वे वजीर हंसने लगे, उन्होंने कहा कि आप निश्चिंत होकर तलवार भीतर कर लें, आपको बुद्ध के पास के लोगों का पता नहीं है। वह ऐसे हैं जैसे नहीं हैं। उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है। यही तो रहस्य है। यही तो उनका रस है, यही उनका आनंद है कि वे मिट गए हैं। और मिट कर हो गए हैं। एक और ढंग है उनके होने का। उनकी शैली और है। वे ध्यान को उपलब्ध लोग हैं। आप तो तलवार भीतर कर लें, आप व्यर्थ परेशान न हों, कोई शडयंत्र नहीं है। जरा चार कदम और--और हम पहुंच जाते हैं अमराई में। और अजातशत्रु अमराई में पहुंचा तो चौंक गया। तलवार उसने यद्यपि रख ली म्यान में लेकिन मुट्ठी पर उसका हाथ रहा। जब अमराई में पहुंच गया, तब उसने तलवार से हाथ छोड़ा। निश्चित ही दस हजार लोग थे। सन्नाटा था। बुद्ध के साथ चुपचाप बैठे थे। समय था ध्यान का, सब ध्यान में लीन थे। जैसे वहां एक भी व्यक्ति न हो।
तुम्हें मुझे सुनकर कभी जब सुख की थोड़ी सी झलक मिलती है, तो वह इसलिए मिलती है कि तुम उस घड़ी में अपने को भूल गए होते हो। मिट तो नहीं जाते, तुम होते तो हो ही, मगर यह होने का नया ढंग है, यह नई शैली है। एक होने का ढंग है रुग्ण, विक्षिप्त, ज्वरग्रस्त। और एक होने का ढंग है, स्वस्थ, शांत, निर्मल, ध्यानस्थ।
स्वरूपानंद, तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो, मैं सुख की तलाश करता हूं। जीवन भर सुख की ही खोज करता रहा हूं। सुखी होने की आशा में ही जीता रहा हूं। लेकिन तुमने सुख पाया कहां? जरा इस पर विचार करके देखो। जीवन भर सुख पाने के लिए जिए हो, सुख मिला कहां? अगर जीवन भर कोई सुख पाने की तलाश करे और सुख न मिले, तो विचार तो करना चाहिए--कहीं हमारी खोज में ही बुनियादी भूल तो नहीं है। और तुम्हारी अकेले की ही बात होती तो ठीक था, इस जगत में किसको सुख की खोज करने से सुख मिला है? किसी को भी नहीं। जो सुख की खोज करता है वह तो सुख पाता ही नहीं, जितनी खोज करता है वह उतना सुख दूर होता चला जाता है। क्योंकि जितनी खोज करता है, उतना ही अहंकार। और अहंकार को बचा कर कोई कभी सुखी नहीं हो सकता।
यह तो ऐसा हुआ ही कि सिरदर्द को बचा कर तुम चाहते हो कि सिरदर्द ठीक हो जाए। यह असंभव है। तुम चाहते हो, कांटा तो गड़ा रहे--कांटे से तुम्हें मोह हो गया है। हो सकता है कांटा सोने का हो, हीरे-जवाहरात जड़ा हो--कांटे का तुम्हें मोह हो गया है और तुम चाहते हो, पैर में जो पीड़ा होती है वह भी मिट जाए। तुम असंभव की कामना कर रहे हो। और तुम्हीं नहीं; सारा जगत तुम्हारे जैसे ही लोगों से भरा है, स्वरूपानंद! और यहां तुम दुखी ही दुखी लोग देखते हो। यहां कब तुम्हें सुखी आदमी मिलता है! बड़ी मुश्किल से। और जब भी सुखी आदमी मिलेगा, वह तुमसे यही कहेगा कि मिट जाओ तो सुख हो। सुख होता ही तब है जब तुम नहीं होते। तुम्हारे और सुख के, दोनों के साथ-साथ होने का कोई उपाय नहीं, तुम कांटे हो। लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं, तुम्हारे मिट जाने पर भी तुम्हारा एक और तरह का होना शेष रह जाता है। लेकिन वह होना बड़ा भिन्न है। उस होने का नाम ही आत्मा है।
अरी में तो नाम के रंग छकी
ओशो
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