रामकृष्ण के साथ ऐसी एक घटना है कि विवेकानंद के घर पर बहुत
तकलीफ थी, पिता मर
गए तो बहुत कर्ज छोड़ कर मर गए थे। और घर में ऐसी हालत थी कि एक ही बार का खाना
होता, और वह भी इतना होता कि या तो मां खा ले या विवेकानंद
खा ले। तो मां को वे यह कह कर गांव में चले जाते कि किसी मित्र ने आज निमंत्रण भेजा
है, तो मैं वहां खाना खाने जा रहा हूं। सड़कों के चक्कर लगा
कर लौट आते; न तो कोई निमंत्रण था, न
किसी मित्र ने बुलाया था। लेकिन मां भोजन कर ले, अन्यथा वह
उनको खिला देती और खुद भूखी रह जाती।
रामकृष्ण को पता लगा कि वे कई दिन से भूखे हैं, तो उन्होंने कहाः तू कैसा पागल! तू जाकर मंदिर में परमात्मा से क्यों नहीं मांग लेता। तू भीतर जा, मैं बाहर बैठा हूं। उन्हें जबरदस्ती भीतर भेज दिया। घंटे भर बाद वे लौटे, बड़े आनंद से भरे हुए थे। तो रामकृष्ण ने कहा कि मांग लिया? मिल गया?
तो विवेकानंद ने कहाः कौन सी चीज?
तो रामकृष्ण ने कहाः मैंने तुझे भेजा था कि अपनी मुसीबत के लिए प्रार्थना कर लेना।
तो विवेकानंद ने कहाः मैं तो भूल गया। परमात्मा के सान्निध्य में पेट कोई याद रख पाता, तो परमात्मा से सान्निध्य नहीं बन सकता। मैं तो भूल गया। यह दो-चार दिन हुआ। फिर तो रामकृष्ण बहुत नाराज हुए और उन्होंने कहाः तू आदमी पागल तो नहीं है!
पर विवेकानंद ने कहा कि जैसे ही मैं मंदिर के भीतर जाता हूं, जैसे ही उनका सान्निध्य मुझे मिलता है, वैसे ही न मैं रह जाता, न मेरा पेट रह जाता, न मेरी भूख रह जाती, न मेरी कोई मांग रह जाती। तो मैं देकर लौट आता हूं, मांग नहीं पाता। विवेकानंद ने कहा कि मैं अपने को देकर लौट आता हूं, मांग नहीं पाता हूं।
साधु सत्संग अकारण है। वह ऐसे ही जैसे आप एक फूल के सौंदर्य को देखने के लिए रुक गए, नहीं कुछ मिलेगा। ऐसे ही है जैसे चांद-तारे रात को निकलें और आपने आंख उठा कर देख लिया, नहीं कुछ मिलेगा। ऐसे ही मनुष्य के भीतर भी जो फूल खिलते उनका नाम साधु है। इनके पास आप अगर कारण से गए, अगर फूल के पास कोई कारण से गया कि बाजार में बेच लूंगा या भगवान को चढ़ा दूंगा, तो भी फूल का जो सौंदर्य-संबंध है, फूल से जो संबंध है वह पैदा होने वाला नहीं। क्योंकि वह तो निपट काव्य का संबंध है, जहां कोई लाभ नहीं है, कोई लोभ नहीं है।
तो वह तो आप ठीक ही कहते हैं कि अगर कोई बीमारी ठीक करवाने जा रहा हो, कोई धन पाने जा रहा हो, कोई चुनाव जीतने जा रहा हो, ये सारे कारणों से जा रहा है तो वह तो पागल है ही, वह गलत जगह तो जा ही रहा है। न, मैं तो यह कह रहा हूं कि अगर वह किसी भी कारण से जा रहा, मोक्ष पाने भी जा रहा है, परमात्मा को भी पाने जा रहा है, तो भी गलत जा रहा है। क्योंकि कारण से गया हुआ आदमी साधु के पास नहीं पहुंचता। साधु की जगह वैसी जगह है जहां हम अकारण जाते हैं।
उपासना के क्षण
ओशो
No comments:
Post a Comment