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Saturday, May 23, 2020

एक दिन बुद्ध से एक शिष्य ने पूछा कि आप कहते हैं कि मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ समझते हो—इसके लिए कोई उदाहरण दें।

बुद्ध ने कहा अच्छा, आज ही उदाहरण दूंगा।


उस रात जब बुद्ध बोले, तो वे नियम से, हर प्रवचन के बाद, रात में कहते थे अब जाओ; रात्रि का अपना अंतिम कार्य पूरा करो, और फिर विश्राम में जाओ।


उस रात एक चोर भी आया था सभा में, और एक वेश्या भी आयी थी। जब बुद्ध ने यह कहा कि भिक्षुओ! अब जाओ। अंतिम कार्य करके सो जाओ। चोर ने समझा कि ठीक! बुद्ध को भी खूब पता चल गया कि मैं भी चोर हूं यहां मौजूद। मुझसे कह रहे हैं कि जाओ; अब अपनी चोरी वगैरह करो। अब रात बहुत हो गयी! और —वेश्या भी चौंकी। उसने कहा हद्द हो गयी! कि बुद्ध को मेरा पता चल गया इतनी भीड़ में! और उन्होंने मुझसे भी कह दिया कि अब जाओ। अपना रात का अंतिम कार्य करो!


दूसरे दिन सुबह जब बुद्ध ने समझाया, तो उन्होंने कहा रात एक चोर भी था। और वह यहां से उठकर सीधा चोरी करने गया। और एक वेश्या थी, यहां से जाकर उसने अपनी दुकान खोली।


भिक्षु ध्यान करने चले गए। चोर चोरी करने चले गए। वेश्याओं ने दुकानें खोल लीं। और बुद्ध ने एक ही वचन कहा था कि अब जाओ; रात्रि का अंतिम कृत्य पूरा करके सो जाओ। इतना ही भेद हो जाता है!


जितने सुनने वाले, उतने अर्थ हो जाते हैं। उन अर्थों पर धर्म बनते हैं। धर्म यानी संप्रदाय। ये धर्म तो जराजीर्ण होते हैं। ये तो सड़ जाते हैं। इनसे बड़ी दुर्गंध उठती है। यह पृथ्वी इन्हीं की दुर्गंध से भरी है।



हिंदू मुसलमान से लड़ रहे हैं, ईसाई हिंदुओं से लड़ रहे हैं, जैन बौद्धों से लड रहे हैं। सब तरफ संघर्ष है। धर्म में कहां संघर्ष हो सकता है?


धर्म दो नहीं हैं, धर्म एक है। जिसको बुद्ध ने कहा है—एस धम्मो सनंतनो—वे किसी धर्म को सनातन नहीं कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, धर्म सनातन है।


और सारे धर्म जो धर्म के नाम पर खड़े हो जाते हैं, वे सिर्फ अभिव्यक्तियां हैं, और अभिव्यक्तियां भी विकृत हो गयी हैं, रुग्ण हो गयी हैं। समय की धार ने उन्हें खराब कर दिया है, खूब धूल जम गयी है। इसीलिए तो जिसे सच में ही धर्म की तलाश करनी हो, उसे बुद्धपुरुष को खोजना चाहिए, शास्त्र नहीं। उसे सदगुरु खोजना चाहिए, शास्त्र नहीं। कहीं कोई जीवंत मिल जाए, जहां अवतरण हो रहा हो धर्म का अभी; जहां गंगा अभी उतर रही हो, कहीं कोई भगीरथ मिल जाए, जहां गंगा अभी उतर रही हो—तो ही तुम्हें आशा रखनी चाहिए कि तुम्हें थोड़ा—बहुत जल मिल जाएगा, जो तुम्हारी प्यास को सदा के लिए तृप्त कर दे

एस धम्मो सनंतनो

ओशो

नियम और तरकीबें

बुद्ध ने कहा है कि कोई किसी पशु को भोजन के लिए न मारे। सोचा भी नहीं होगा कि आदमी कितना होशियार है। बुद्ध का वचन है कि कोई किसी पशु को भोजन के लिए न मारे। उनको पता नहीं था कि इसका मतलब यह भी हो सकता है कि अगर पशु अपने आप मर जाए, तो फिर उसका भोजन किया जा सकता है! मारा नहीं। तो जो पशु अपने आप मर जाएं, उनका बौद्ध भिक्षु भोजन करने लगे। क्योंकि बुद्ध ने कहा है मारे न कोई भोजन के लिए। मगर अपने से जो मर गया हो!


फिर अब चीन में, और जापान में, और थाईलैंड में—जहां बौद्धों की बड़ी संख्या है—होटलों में तुम इस तरह की तख्तियां लगी देखोगे कि यहां मारे हुए जानवर का मांस नहीं बिकता, यहां अपने से मरे जानवर का मांस बिकता है।
अब अपने से कितने जानवर मर रहे हैं? अब भिक्षु को या बौद्ध को कोई चिंता नहीं है। वह कहता है. हम क्या करें! दुकान पर साफ लिखा है कि यहां तो अपने आप मरे जानवरों का मांस मिलता है।


इतने जानवर अपने आप रोज नहीं मरते कि हर होटल में मांस मिल सके, और हर गांव में मास बिक सके। लेकिन अब बौद्ध मुल्कों में सब मांस इसी तरह बिकता है। तो बूचड़खाने क्यों हैं वहा? लाखों जानवर रोज काटे जाते हैं। लेकिन बौद्ध कहता है : यह उसका पाप है। अगर दुकानदार ने धोखा दिया है, तो हम क्या करें! जैसे अपने यहां लिखा रहता है कि यहां शुद्ध घी बिकता है। अब इसमें हम क्या करें! अगर दुकानदार ने कुछ मिला दिया, तो अब हमारी तो जिम्मेवारी नहीं है। हमने तो भरोसा कर लिया! ऐसा होशियार है आदमी। अपने को ही नष्ट करने में बड़ा कुशल है। और तरकीबें सदा निकाल लेता है।


एक नियम बनाओ, उसमें से दस तरकीबें निकाल लेता है। और जितने ज्यादा नियम बनाओ, उतनी ज्यादा बात उलझती जाती है, सुलझती नहीं। इस तरह से जो धर्म निर्मित होते हैं, उनका धर्म के मूलस्रोतों से कोई संबंध नहीं। बिलकुल असंबंधित हैं।


एस धम्मो सनंतनो

ओशो

Thursday, May 21, 2020

एक मित्र ने पूछा है कि अगर हम बच्चों को कोई भी शिक्षा न दें, तब तो बच्चे बिगड़ जाएंगे। अगर हम उनको आदर्श न सिखाएं, अगर हम उनको सिद्धांत न सिखाएं, तो वे बिगड़ जाएंगे।



बड़े मजे की बात है कि आप तीन हजार साल से सिखा रहे हैं, फिर भी वे बिगड़ क्यों गए हैं? आदर्श भी सिखा रहे हैं, शिक्षा भी दे रहे हैं, सिद्धांत भी, गीता भी पिला रहे हैं, रामायण, कुरान, बाइबिल भी पिला रहे हैं और फिर भी वे बिगड़ गए? तीन हजार साल से आप क्या कर रहे हैं और?


तो मैं यह नहीं कहता हूं कि कुछ भी न सिखाएं। मैं यह कहता हूं कि उनके ऊपर थोपें नहीं, उनके भीतर जो छिपा है, उसके सहारे बनें, उसे विकसित करें।


दो बातें हैं। एक बच्चे पर हम थोप दें कोई बात, तो बच्चे की आत्मा हमेशा के लिए परतंत्र हो जाती है। और बच्चे के भीतर जो छिपी हुई शक्तियां हैं, उनको सहारा दें, उनको विकसित होने का मौका दें, समझें उस बच्चे को और उन-उन ताकतों को जो उसके भीतर सोई हैं, जगाएं, तो बच्चा विकसित होगा। बच्चे के ऊपर ढांचे नहीं देने होते, उसकी चेतना को दिशा देनी होती है। और हम ढांचे देते रहे हैं।


हम छोटे-छोटे बच्चों को क्या कहते हैं? हम उनसे कहते हैंः महावीर जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो, गांधी जैसे बनो। यह बात एकदम गलत है। कोई बच्चा क्यों महावीर जैसा बने? वह खुद बनने को पैदा हुआ है। कोई महावीर की ट्रू कॉपी बनने को पैदा हुआ है? उसकी जिंदगी अपनी है, वह अपनी आत्मा लेकर आया है, क्यों बने महावीर जैसा? क्यों बुद्ध जैसा बने? क्यों गांधी जैसा बने? वह खुद अपने जैसा बनेगा। लेकिन हम उसे सिखा रहे हैं कि फलां जैसे बनो, उस जैसे बनो। और इस सिखाने का परिणाम यह होगा कि अगर बच्चा बुद्ध, महावीर और राम जैसा बनने की कोशिश में पड़ गया, तो एक बात तय है, वह जो होने को पैदा हुआ था, वह नहीं बन पाएगा। और वही होता उसका विकास, वही होती उसकी आत्मा, वह नहीं हो पाएगा। और जब उसका विकास नहीं हो पाएगा, उसकी आत्मा पूर्णता को नहीं पा पाएगी, तो वह होगा दुखी, पीड़ित, परेशान, चिंतित, हैरान। उसकी समझ में नहीं आएगा कि यह क्या हो रहा है?


और क्या आपको पता है, आज तक जमीन पर कोई एक आदमी दूसरे आदमी जैसा हुआ है? बुद्ध को हुए ढाई हजार साल हो गए, फिर दूसरा बुद्ध क्यों नहीं पैदा हुआ अब तक? ढाई हजार साल कोई कम वक्त है? राम को हुए और भी वक्त हो गया, अब तक दूसरा राम क्यों पैदा नहीं हुआ? कोई कम समय मिला है राम को होने में फिर दुबारा? लेकिन सच्चाई यह है... और हमारी आंखें इतनी अंधी हैं कि हम देखते नहीं, फिर भी हम दोहराए चले जा रहे हैं--राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो, क्राइस्ट जैसे बनो। सच्चाई यह है कि कोई आदमी कभी किसी दूसरे जैसा न बन सकता है, न बनने की जरूरत है। हर आदमी यूनीक है, हर आदमी बेजोड़ है, हर आदमी अद्वितीय है। परमात्मा अदभुत कलाकार मालूम होता है, वह एक ही चीज को दुबारा पैदा ही नहीं करता। इतना इनवेंटिव मालूम होता है, इतना आविष्कारक। उसकी आविष्कार की बुद्धि चुकती ही नहीं है। वह एक ढांचे को बनाता है और तोड़ देता है, फिर नये आदमी बनाता है। वह कोई फैक्ट्री नहीं खोली हुई है उसने कि जहां ढांचे लगे हुए हैं, सांचे लगे हुए हैं, एक सी मॉडल की फोर्ड गाड़ियां निकलती जा रही हैं हजारों। एक-एक आदमी अद्वितीय और बेजोड़ है। सृष्टि की अदभुत से अदभुत लीलाओं में यह एक लीला है कि हर आदमी बेजोड़ और अलग है। हर आदमी अपने जैसा है, और किसी जैसा भी नहीं है।


लेकिन हम बच्चों को सिखाते हैंः दूसरों जैसे हो जाओ। यह शिक्षा बुनियादी रूप से गलत है। इसका फल क्या होगा? उस बच्चे का व्यक्तित्व मर जाएगा। उधार होगा उसका व्यक्तित्व। और अगर वह बन भी गया किसी जैसा, तो वह नकल होगी, सच्चाई नहीं। राम तो नहीं बन पाएगा, रामलीला का राम जरूर बन सकता है। और रामलीला के राम की कोई भी जरूरत दुनिया में नहीं है। क्योंकि रामलीला का राम एकदम झूठा आदमी है, एकदम झूठा, उसमें कोई भी मतलब नहीं है। पाखंड इसी से पैदा हुआ दुनिया में, दूसरे जैसे बनने की कोशिश से।


अपने माहीं टटोल

ओशो


अतियों पर क्रांति होती है

चित्त जिसका परतंत्रता में है, वह सत्य को कैसे जानेगा? यह मैंने पहले चरण में विस्तार से बात की। दूसरे चरण में मैंने कहा कि चित्त सरल हो। और सरलता का मैंने अर्थ नहीं किया कि आप कम कपड़े पहनें या कम भोजन करें तो आप सरल हो जाएंगे। या कि आप घर-द्वार छोड़ दें तो आप सरल हो जाएंगे। सरलता बहुत गहरी बात है। इन छोटी सी बातों से सरलता का कोई विशेष संबंध नहीं है। और यह भी हो सकता है कि बहुत जटिल लोग, जिनका चित्त बहुत जटिल, बहुत कठिन है, जिनका चित्त बहुत कठोर और पत्थर की तरह ग्रंथियों से भरा है, वे लोग भी इस तरह के वेशभूषा के परिवर्तन को कर लें। वे लोग भी कम खाएं, कम कपड़े पहनें, घर-द्वार छोड़ दें। कोई जटिल मनुष्य भी इस भांति की सरलता को थोप सकता है। इस सरलता का कोई मूल्य नहीं है।


सरलता का मैंने अर्थ किया: चित्त द्वंद्व-शून्य हो जाए और चित्त के खंड-खंड हिस्से विलीन हो जाएं और चित्त अखंड हो जाए, इंटीग्रेटेड हो जाए, समग्र हो जाए। मेरे भीतर बहुत से व्यक्ति न रहें, एक व्यक्ति का जन्म हो जाए। मैं इंडिविजुअल हो जाऊं। मेरे भीतर एक स्वर रह जाए। मेरे भीतर प्रेम हो तो घृणा न रहे। घृणा और प्रेम जिसके साथ-साथ हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। जिस आदमी के भीतर शांति और अशांति दोनों हैं, उस आदमी का चित्त सरल नहीं हो सकता। दोनों में से एक रह जाए तो चित्त सरल हो सकता है। अगर मात्र अशांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा या मात्र शांति रह जाए तो भी चित्त सरल हो जाएगा।


आप जानते हैं, अगर कोई आदमी इतना अशांत हो जाए कि उसके भीतर शांति का कण भी न रहे, तो भी क्रांति हो जाएगी। उतनी अशांति में भी क्रांति हो जाएगी। उस क्लाइमेक्स पर भी, उस चरम बिंदु पर भी अशांति की अंतिम सीमा पर पहुंच कर एकदम से सब विलीन हो जाएगा और वह चित्त एकदम शांत हो जाएगा। जैसे कोई तीर को चलाता है तो प्रत्यंचा को पीछे खींचता है। तीर को फेंकना तो आगे है, खींचते पीछे हैं। उलटा दिखेगा। कोई आदमी कहेगा, तीर को फेंकना तो आगे है और खींचते पीछे हैं! आगे फेंकना है तो आगे फेंकें, पीछे क्यों खींचते हैं? उलटा क्यों कर रहे हैं? लेकिन अपनी प्रत्यंचा को धनुर्धारी खींचता चला जाता है। एक सीमा आती है अंतिम कि और आगे नहीं खींचा जा सकता। खींचने का अंतिम बिंदु आता है और प्रत्यंचा छूट जाती है, और तीर जो कि पीछे गया था, वह विपरीत दिशा में गति कर जाता है। ठीक वैसे ही अगर चित्त पूरा अशांत हो, तो अशांति के अंतिम बिंदु पर पहुंच कर तीर छूट जाता है और शांति की दिशा में गति हो जाती है।


धन्य हैं वे जो पूरे अशांत हैं, क्योंकि शांति उनका भाग्य होगी। लेकिन हम बहुत अधूरे लोग हैं। हम अशांत पूरे नहीं हैं। हम काफी संतुष्ट हैं और काफी शांत हैं। यह जो बीच का मन है, यह कठिन मन है, यह जटिल मन है। इसमें दोनों हैं। इसमें शांति भी, अशांति भी; प्रेम भी, घृणा भी; और सारी बातें। यह जो द्वंद्व है, यह द्वंद्व सत्य तक नहीं जाने देता। या चित्त पूरा शांत हो जाए, तो जीवन में सत्य का अनुभव हो सकता है। अतियों पर क्रांति होती है, एक्सट्रीम पर क्रांति होती है। बीच में कोई क्रांति नहीं होती। इसलिए जो मध्य में है, वह हमेशा सत्य से दूर बना रहता है। अति पर क्रांति होती है। दुख का अति मनुष्य को दुख के बाहर फेंक देता है। लेकिन हम कभी अति तक दुखी नहीं होते। हम हर दुख को भुला लेते हैं और हर दुख को समझाने का कोई मार्ग निकाल लेते हैं।


अमृत की दिशा

ओशो



अंतर्यात्रा कैसे शुरू होती है?

संसार में हार जाना; वासना में हार जाना; तृष्णा की असफलता परमात्मा में ले जाती है, अंतर्गमन में ले जाती है। जीवन जैसा तुम जी रहे हो, व्यर्थ है, इसकी प्रगाढ़ चोट जगा जाती है। फिर बाहर के जीवन में उत्सुकता नहीं रह जाती।





इसे थोड़ा समझो। क्योंकि मैं देखता हूं बहुत से लोग अंतर्जीवन में उत्सुक होते हैं, लेकिन चोट नहीं पड़ी है। बाहर का जीवन असफल नहीं हुआ है। और भीतर के जीवन में उत्सुक हो रहे हैं। तो उनका भीतर का जीवन भी बाहर के जीवन का ही एक हिस्सा होता है; भीतर का जीवन नहीं होता। उनका मंदिर भी दुकान का ही एक कोना होता है। उनकी प्रार्थना भी उनके बही—खातों का प्रारंभ होती है—श्री गणेशाय नम:। बही—खाते का प्रारंभ भगवान से। ठीक से चले दुकान तो परमात्मा का स्मरण कर लेते हैं। परमात्मा का स्मरण करके नर्क की व्यवस्था करते हैं।




जहां तक मुझे पता है, इन दुकानदारों ने नर्क के दरवाजे पर भी लिख दिया होगा—श्री गणेशाय नम:। उनकी यात्रा.. तुमने चोरों को देखा? चोर भी जाते हैं चोरी को तो भगवान का नाम लेकर जाते हैं। मेरे पास आ जाते हैं ऐसे कुछ लोग। वे कहते हैं, आशीर्वाद दे दें, इच्छा पूरी हो जाए।



तुम इच्छा तो बताओ!



अब आप तो सब जानते ही हैं।



किसी को मुकदमा जीतना है.. तुम्हारी इच्छाएं व्यर्थ नहीं हो गई हैं जब तक, तब तक अंतर्यात्रा शुरू न होगी। तुम मंदिर में फूल चढ़ा आओगे, वह भी तरकीब होगी संसार में सफल हो जाने की। भगवान को भी राजी कर लो, कौन जाने कोई बीच में अड़ंगा डाल दे!





गणेश का नाम इसीलिए शुरू में लिखा जाता है। कहते हैं, गणेश उपद्रवी थे। जो प्रारंभिक कथा है, वह बड़ी मजेदार है। गणेश उपद्रवी थे और दूसरों के कार्यों में विग्‍न—बाधा डालते थे। इसलिए उनका नाम लोग शुरू में ही लेने लगे कि उनको पहले ही राजी कर लो। फिर तो धीरे—धीरे लोग भूल ही गए कि असली बात क्या थी! असली बात सिर्फ यही थी कि उनके उपद्रव के डर से लोग कुछ भी काम करते—शादी—विवाह करते, दुकान खोलते, मकान बनाते—उनका नाम पहले ले लेते कि तुम राजी रहना। हम तुम्हारे ही हैं, हमारी तरफ खयाल रखना। धीरे—धीरे बात बदल गई। अब तो गणेश जो हैं, वे मंगल के देवता हो गए हैं। धीरे—धीरे लोग भूल ही गए कि उनकी याद करते थे, उनके विध्‍न—उपद्रव की प्रवृत्ति के कारण। शब्द ने एक करवट ले ली, नया अर्थ ले लिया।





लोग मंदिर में फूल चढ़ा आते हैं, मजार पर हो आते हैं फकीर की, ताबीज बांध लेते हैं धर्म का, लेकिन संसार के लिए।



पूछा है, 'आप कहते हैं, कामना बहिर्गामी है।’




समस्त कामनाएं बहिर्गामी हैं; कामना मात्र बहिर्गामी है। भीतर ले जाने वाली कोई भी कामना नहीं है। कामना ले ही जाती बाहर है। तो स्वभावत: प्रश्न उठता है, फिर हम भीतर कैसे जाएं? क्योंकि जब कोई कामना ही भीतर जाने की न होगी तो हम भीतर जाने का प्रयास क्यों करेंगे!




वासना की असफलता, कामना की विफलता, संसार की पराजय। भीतर जाने की कोई वासना नहीं है, जब सभी वासनाएं हार जाती हैं, तुम अचानक भीतर सरकने लगते हो। जब सभी वासनाएं हार जाती हैं, तुम बाहर नहीं जाते; बाहर जाना व्यर्थ हो गया। और तब अचानक तुम भीतर खींचे जाते हो।


इस फर्क को समझ लेना : भीतर कोई नहीं जाता। तुम बाहर जाते हो, बाहर जा सकते हो, भीतर खींचे जाते हो; इसलिए भीतर पहुंचना प्रसादरूप हैं। बाहर भर मत जाओ, भीतर खींच लिए जाओगे। तुम बाहर पकड़े हो जोर से किनारों को, इसलिए भीतर की धार तुम्हें खींच नहीं पाती। तुमने नाव को किनारे की खूंटियों से बांध दिया है, अन्यथा नदी समर्थ है इसको ले जाने में बड़ी दूर की यात्रा पर। वासना नहीं है भीतर जाने की कोई। मोक्ष की कामना कोई भी नहीं होती। जब कोई कामना नहीं होती, तब उस दशा का नाम मोक्ष है।

एस धम्मो सनंतनो


ओशो


मन बिना द्वंद्व के ठहर नही सकता



मन जहां तक है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा। मन बिना द्वंद्व के ठहर भी नही सकता; पलभर भी नहीं ठहर सकता। मन के होने का ढंग ही द्वंद्व है। वह उसके होने की बुनियादी शर्त है।



अगर तुम्हारे मन में प्रेम होगा तो साथ ही साथ कदम मिलाती घृणा भी होगी। जिस दिन घृणा विदा हो जाएगी, उसी दिन प्रेम भी विदा हो जाएगा।



इसलिए तो बुद्ध पुरुषों का प्रेम बड़ा शीतल मालूम पड़ता है। वह उष्णता प्रेम की, जो हम सोचते हैं, दिखाई नहीं देती। वैसा प्रेम गया। वह ज्वार, वह ज्वर गया। इसलिए तो बुद्ध पुरुषों के प्रेम को हमने प्रेम भी नहीं कहा, करुणा कहा है, प्रार्थना कहा है। प्रेम कहना ठीक नहीं मालूम पड़ता। प्रेम का पैशन, त्वरा, तूफान, वहां कुछ भी नहीं है।



ऐसा ही समझो कि सागर में लहरें उठी हैं, बड़ी आधी आई, बड़ा तूफान आया है, फिर लहरें शांत हो गईं। तो क्या तुम यह कहोगे—जब सागर में कोई तूफान न होगा—कि अब तूफान है लेकिन शांत है? तूफान बचा ही नहीं। अब यह कहना कि तूफान है और शांत है, व्यर्थ की बात हुई। शांत होने को अर्थ ही है कि तूफान न रहा। और जब सागर में तूफान उठता है तो अकेले सागर से नहीं उठता, हवाओं के थपेड़े भी चाहिए, आंधिया चाहिए। अकेले से कहीं तूफान उठे हैं! दो चाहिए, द्वंद्व चाहिए, संघर्ष चाहिए।



मन का सारा गुबार, मन की धूल के बवंडर द्वंद्व से उठते हैं। एक तरफ प्रेम—पैर मिलाती चलती घृणा भी साथ है। ही, तुम भूल जाते हो। जब तुम प्रेम से भरते हो, तुम घृणा को भूल जाते हो। जब तुम घृणा से भरते हो, तुम प्रेम को भूल जाते हो। क्योंकि दोनों को एक साथ देखना तुम्हारी सामर्थ्य के बाहर है। जिस दिन दोनों को साथ देख लोगे, दोनों से मुका हो जाओगे।



एक तरफ श्रद्धा करते हो, दूसरी तरफ अश्रद्धा भी पलती है। जिसके भीतर श्रद्धा है, उसी के भीतर अश्रद्धा हो सकती है।



इसे समझने की कोशिश करना। अगर कोई मेरे संबंध में अश्रद्धा से भरा है तो जान लेना कि कहीं पैर मिलाती श्रद्धा भी चलती होगी, उसने अभी देखी नहीं। इसलिए मेरे दुश्मनों को मेरे दुश्मन मत मान लेना, उनमें मेरे मित्र भी छिपे हैं, मौजूद हैं। आज नहीं कल प्रगट हो जाएंगे। जो मेरी निंदा करने का कष्ट उठाता है, उसके भीतर कहीं प्रशंसा छिपी है। अन्यथा निंदा भी व्यर्थ हो जाएगी। कौन निंदा की चिंता करेगा? जरूर कुछ राग है। जरूर मुझसे कुछ जोड़ है, कोई सेतु है।



दुश्मन के भीतर मित्रता छिपी है, मित्र के भीतर दुश्मनी छिपी है। इसलिए तुम किसी को दुश्मन न बना सकोगे अगर तुमने मित्र न बनाया। मित्र बनाकर ही दुश्मन बना सकते हो। मित्रता पहला कदम है।

एस धम्मो सनंतनो

ओशो


Sunday, May 10, 2020

माना कि आत्मज्ञानी के लिए निजी सुख—दुख के अनुभव समाप्त हो जाते हैं, लेकिन वे भी तो दूसरों के सुख—दुख से सुखी—दुखी होते ही होंगे न! कृपा कर प्रकाश डालें।


 

नहीं, जिसके सुखदुख के अनुभव समाप्त हो गए, वह दूसरे के सुखदुख से भी प्रभावित नहीं होता। तुम्हें कठिनाई होगी यह बात सोच कर, क्योंकि तुम सोचते हो कि उसे तो बहुत प्रभावित होना चाहिए तुम्हारे सुखदुख से। नहीं, उसे तो दिखाई पड़ गया कि सुखसुख होते ही नहीं हैं। तो तुम्हारा सुखदुख देख कर तुम पर दया आती है, लेकिन सुखीदुःखी नहीं होता। सिर्फ दया आती है कि तुम अभी भी सपने में पड़े हो!

ऐसा समझो कि दो आदमी सोते हैं, एक ही कमरे में, दोनों दुखस्वप्न में दबे हैं, दोनों बड़ा नारकीय सपना देख रहे हैं। एक जग गया। निश्चित ही जो जग गया अब उसे सपने के सुखदुख व्यर्थ हो गए। क्या तुम सोचते हो दूसरे को पास में बड़बड़ाता देख कर, चिल्लाता देख कर, उसकी बात सुन कर कि वह कह रहा है,’हटो, यह राक्षस मेरी छाती पर बैठा है,' यह दुखीसुखी होगा? यह हंसेगा और दया करेगा। यह कहेगा कि पागल! यह अभी भी सपना देख रहा है। यह इसके राक्षस को हटाने की कोशिश करेगा कि इसकी छाती पर राक्षस न हो? राक्षस तो है ही नहीं, हटाओगे कैसे? हटाने के लिए तो होना चाहिए। यह तो देख रहा है कि सज्जन अपनी ही मुट्ठी बांधे छाती पर, पड़े हैं। और गुनगुना रहे हैं कि राक्षस बैठा है, यह रावण बैठा दस सिर वाला मेरे ऊपर! इसको हटाओ!

यह जो जाग गया है, क्या करेगा? यह इस आदमी को भी जगाने की कोशिश करेगा। इसके दुख को हटाने की नहींइसको जगाने की। फर्क साफ समझ लेना। जब बुद्ध तुम्हें दुखी देखते हैं, तो तुम्हारे दुख को मान नहीं सकते कि है; क्योंकि वे तो जानते हैं दुख हो ही नहीं सकता, भ्रांति है। तुम्हें जगाने की कोशिश करते हैं। तुम्हें भागते देख कर कि तुम रस्सी को सांप समझ कर भाग रहे हो, वे एक दीया ले आते हैं। वे कहते हैं, जरा रुको तो, जरा इस सांप को गौर से तो देखें, है भी? उस प्रकाश में रस्सी तुम्हें भी दिखाई पड़ जाती है, तुम भी हंसने लगते हो।

ज्ञानी पुरुष तुम्हारे सुखदुख से जरा भी प्रभावित नहीं होता। और जो प्रभावित होता हो, वह ज्ञानी नहीं है। यद्यपि तुम्हारे सुखदुख से दया उसे जरूर आती है। कभीकभी हंसता भी हैदेख कर सपने का बल, व्यर्थ का बल; देख कर झूठ का बल!

ऐसा ही समझो, एक छोटा बच्चा है, और उसकी गुड़िया की टांग टूट गयी और वह रो रहा है। तुम क्या करते हो? रोते हो उसके पास बैठ कर? तुम भी दुखी होते, आंसू झारते हो? तुम उससे कहते हो कि बेटा, नासमझ, यह गुड़िया ही है! टूटने को ही थी। इसमें कोई प्राण थोड़े ही हैं कि तू परेशान हो रहा है? यह टांग कोई असली टांग थोड़े ही है।हालांकि तुम्हारी समझ की बातें शायद बेटे को समझ न भी आयें। लेकिन तुम भी जानते हो, यह भी बड़ा होगा कल, थोड़ी प्रौढ़ता आयेगी, गुड्डागुड्डी भूल जायेगा। फेंक देगा कहीं फिर, लौट कर देखेगा भी नहीं। अभी बचपना है, तो गुड्डागुड्डियों से खेल रहा है।



अष्टावक्र महागीता 

ओशो





Sunday, May 3, 2020

ब्रह्मचर्य


मोरारजी देसाई ने चार-छह दिन पहले ही एक वक्तव्य में कहा कि जब मैं प्रधान मंत्री था और कैनेडा गया...। तो उनकी उम्र करीब तेरासी वर्ष थी तब। तेरासी वर्ष की उम्र में भी उनको कैनेडा में देखने योग्य चीज क्या अनुभव में आई? वह था नाइट क्लब, जहां कैबरे नृत्य होता है, स्त्रियां अपने वस्त्र उघाड़-उघाड़ कर फेंक देती हैं, धीरे-धीरे नग्न हो जाती हैं।


कारण क्या देते हैं वे? कि मैं जानना चाहता था कि नाइट क्लब में होता क्या है!


मगर जान कर तुम्हें जरूरत क्या? तेरासी वर्ष की उम्र में तुम्हें यह उत्सुकता क्या? कि वहां क्या होता है! होने दो। इतनी बड़ी दुनिया है, इतनी चीजें हो रही हैं! कैनेडा में और कुछ नहीं हो रहा था, सिर्फ नाइट क्लब ही हो रहे थे? कैनेडा में कुछ और देखने योग्य न लगा? नाइट क्लब! और वह भी चोरी से गए! चोरी से भी जाने योग्य लगा! क्योंकि पता चल जाए कि नाइट क्लब में गए हैं, कैबरे नृत्य देखने गए हैं, तो बदनामी होगी। और मोरारजी देसाई तो महात्मा समझो! ऋषि-मुनि हैं!


मगर उन्होंने यह बात अब क्यों कही? अब कही, उसके पीछे और कारण है। गुजरात विद्यापीठ के विद्यार्थियों के सामने वे अपने ब्रह्मचर्य की घोषणा कर रहे थे, उसमें यह बात भी कह गए, कि मेरा ब्रह्मचर्य वहां भी डिगा-मिगा नहीं! तेरासी वर्ष की उम्र में कैबरे नृत्य देखने गए, ब्रह्मचर्य डिगा नहीं उनका! यह तो यूं हुआ कि कब्र में कोई पड़ा हो, और चारों तरफ कैबरे नृत्य होता रहे, और कब्र में पड़ा हुआ महात्मा कहे, अरे नाचते रहो! मैं अपने ब्रह्मचर्य में पक्का, लंगोट का पक्का! ऐसा कस कर लंगोट बांधा है कि क्या तुम मुझे हिलाओगे!


तो उन्होंने बड़ा रस लेकर वर्णन किया है! कि जैसे ही मैं अंदर गया, चार सुंदर स्त्रियां, जो मुझे पहचान गईं, क्योंकि अखबारों में उन्होंने तस्वीर देखी होगी, आकर एकदम मेरे पास नाचने लगीं, हाव-भाव प्रकट करने लगीं। मगर मैं भी बिलकुल संयम साधे, नियंत्रण किए, अडिग खड़ा रहा!


अब यह संयम साधना, और यह अडिग खड़े होना, और यह नियंत्रण को बनाए रखना--यह सब किस बात का सबूत है?


अभी भी वही सब रोग भीतर छाए हुए हैं--अभी भी! कहीं कुछ भेद नहीं पड़ा! नहीं तो नियंत्रण की भी क्या जरूरत थी? यह इतना संयम बांधने की भी क्या जरूरत थी? अरे, नाचती थीं, तो नाचने देना था! बैठते और प्रसन्न होते। अगर नाच अच्छा था, तो प्रशंसा करनी थी। या कम से कम कुछ न बनता तो थोड़ा नाचते! मगर बिलकुल खड़े रहे अपने को सम्हाले हुए! कि कहीं पैर फिसल न जाए!


पैर फिसलने का डर? ये विकृतियां हैं। फिर आदमी विकृतियों से निकलता है...।


जैसे ही व्यक्ति दमन करेगा, वैसे ही उसके भीतर जो दमित वेग हैं, वे पीछे के दरवाजों से रास्ते बनाने लगेंगे। उस व्यक्ति के जीवन में दोहरापन पैदा हो जाएगा; या अनेकता पैदा हो जाएगी। उसके बहुत चेहरे हो जाएंगे। वह खंड-खंड हो जाएगा। कहेगा कुछ, करेगा कुछ, सोचेगा कुछ, सपने कुछ देखेगा। उसके जीवन में विकृति ही हो जाएगी। उसके जीवन की एकता खंडित हो जाएगी।


ब्रह्मचर्य का यह अर्थ नहीं है। ब्रह्मचर्य शब्द में ही अर्थ छिपा हुआ है: ब्रह्म जैसी चर्या; ईश्वरीय आचरण; दिव्य आचरण। दमित व्यक्ति का आचरण दिव्य तो हो ही नहीं सकता। अदिव्य हो जाएगा; पाशविक हो जाएगा। पशु से भी नीचे गिर जाएगा।


दिव्य आचरण तो एक ही ढंग से हो सकता है कि तुम्हारे भीतर जो काम की ऊर्जा है, वह ध्यान से जुड़ जाए। ध्यान और काम तुम्हारे भीतर जब जुड़ते हैं तो ब्रह्मचर्य फलित होता है। ब्रह्मचर्य फूल है ध्यान और काम की ऊर्जा के जुड़ जाने का। ध्यान अगर अकेला हो और उसमें काम की ऊर्जा न हो, तो फूल कुम्हलाया हुआ होगा; उसमें शक्ति न होगी। और अगर काम अकेला हो, उसमें ध्यान न हो, तो वह तुम्हें पतन के गर्त में ले जाएगा।


काश! ये दोनों जुड़ जाएं, ध्यान और काम। काम है शरीर की शक्ति और ध्यान है आत्मा की शक्ति। और जहां ध्यान और काम जुड़े, वहां आत्मा और शरीर की शक्ति जुड़ गई। फिर तुम इस महान ऊर्जा के आधार पर उस अंतिम यात्रा पर निकल सकते हो, जो ब्रह्म की यात्रा है। तब तुम्हारे जीवन में ब्रह्मचर्य होगा।

अनहद में बिसराम 

ओशो


व्यक्तित्व - द्रष्टा -


व्यक्तित्व
तुम एक भीड़ हो, बड़ी भीड़। तुम्हें जरा नजदीक से, जरा गहराई से देखना पड़ेगा और तुम स्वयं के भीतर बहुत से लोगों को पाओगे। और वे सारे लोग समय-समय पर नाटक करते हैं तुम होने का। जब तुम क्रोधित होते हो, एक तरह का व्यक्तित्व तुम पर हावी हो जाता है और नाटक करता है कि यह तुम हो। जब तुम प्रेमपूर्ण होते हो, तब एक दूसरा व्यक्तित्व तुम पर हावी होता है और नाटक करता है कि यह तुम हो।
यह बात न केवल तुम्हें विभ्रम में डालने वाली है बल्कि जो भी तुम्हारे संपर्क में आता है उन सबको विभ्रम में डालने वाली है, क्योंकि वे कुछ तय नहीं कर पाते। वे स्वयं ही एक भीड़ हैं।
और हर संबंध में केवल दो व्यक्ति ही विवाहित नहीं हो रहे हैं, बल्कि दो भीड़़ें विवाहित हो रही हैं। अब लगातार घमासान युद्ध होने जा रहा है, क्योंकि मुश्किल से ही ऐसे क्षण आयेंगे- बस भूल चूक से- जब तुम्हारा प्रेमपूर्ण व्यक्ति और दूसरे का प्रेमपूर्ण व्यक्ति प्रभाव में रहेंगे। अन्यथा तो तुम चूकते ही जाते हो। तुम प्रेमपूर्ण हो, लेकिन दूसरा दुःखी, क्रोधित और चिन्तित है। और जब वह प्रेमपूर्ण दशा में है, तब तुम प्रेमपूर्ण नहीं हो। और इन व्यक्तित्वों को अपनी ओर से लाने का कोई उपाय नहीं है; वे अपनी ही मर्जी से चलते हैं।

द्रष्टा


तुम्हारे भीतर एक चक्राकार गति है, और यदि तुम केवल देखते रहो- इन व्यक्तित्वों के साथ छेड़-छाड़ मत करो क्योंकि उससे तो ज्यादा गड़बड़ पैदा होगी, ज्यादा विभ्रम पैदा होंगे। सिर्फ देखो, क्योंकि इन व्यक्तित्वों को देखते हुए तुम्हें बोध होनेवाला है कि एक देखनेवाला भी है, जो कि कोई व्यक्तित्व नहीं है, जिसके समक्ष ये सारे व्यक्तित्व आते और जाते हैं।


और यह कोई दूसरा व्यक्तित्व नहीं है, क्योंकि एक व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व को नहीं देख सकता। यह बड़ी ही सारभूत और रोचक बात है- कि एक व्यक्तित्व दूसरे व्यक्तित्व को देख नहीं सकता, क्योंकि इन व्यक्तित्वों में कोई आत्मा नहीं होती।


ये तुम्हारे वस्त्रों जैसे हैं। तुम अपने वस्त्र बदलते जा सकते हो, लेकिन तुम्हारे वस्त्र यह नहीं जान सकते कि वे बदल दिये गये हैं, कि अब एक दूसरे वस्त्र का उपयोग किया जा रहा है। तुम वस्त्र नहीं हो, इसलिये तुम उन्हें बदल सकते हो। तुम व्यक्तित्व नहीं हो- इसलिए तुम इन असंख्य व्यक्तित्वों के प्रति सजग हो सकते हो।


लेकिन इससे एक बात और बहुत साफ हो जाती है कि कुछ है जो तुम्हारे आसपास चलने वाले व्यक्तित्वों के इस सारे खेल को देखता रहता है।

और यही तुम हो।


तो इन व्यक्तित्वों को देखो, लेकिन याद रहे कि तुम्हारा देखना ही, तुम्हारी वास्तविकता है। यदि तुम इन व्यक्तित्वों को देखते रह सको- तो ये व्यक्तित्व विदा होने लगेंगे; वे जीवित नहीं रह सकते। जीवित रहने के लिये उनको तादात्म्य की जरूरत है। यदि तुम क्रोध में हो तो उसकी जरूरत है कि तुम देखना भूलो और क्रोध के साथ तादात्म्य में होओ अन्यथा क्रोध का कोई जीवन नहीं है; वह पहले से ही मृत है, मर रहा है, विलीन हो रहा है।


तो अपने द्रष्टा में ज्यादा से ज्यादा एकाग्र रहो, और ये सारे व्यक्तित्व खो जायेंगे। और जब कोई व्यक्तित्व नहीं बचता, तब तुम्हारी वास्तविकता- मालिक- घर आ गया है।


तब तुम ईमानदारी से, प्रामाणिकता से व्यवहार करते हो। तब जो कुछ भी तुम करते हो, समग्रता से, पूर्णता से करते हो- कभी पछताते नहीं हो। तुम हमेशा आनंदित भावदशा में होते हो।


हमारी बहुत-सी समस्याएँ- शायद अधिकांश समस्याएँ- इसलिये हैं क्योंकि हमने उन्हें आमने-सामने करके नहीं देखा है, उनका सामना नहीं किया है। और उनकी ओर न देखना उन्हें ऊर्जा दे रहा है। उनसे भयभीत रहना उन्हें ऊर्जा दे रहा है, हमेशा उनसे बचने की कोशिश उन्हें ऊर्जा दे रही है- क्योंकि तुम उन्हें स्वीकार कर रहे हो। तुम्हारा स्वीकार ही उनका अस्तित्त्व है। तुम्हारे स्वीकार के अतिरिक्त उनका कोई अस्तित्त्व नहीं है।


ऊर्जा का स्रोत तुम्हारे पास है। जो कुछ भी तुम्हारे जीवन में घटता है उसको तुम्हारी ऊर्जा की जरूरत होती है। यदि तुम ऊर्जा के स्रोत को काट दो और- दूसरे शब्दों में उसे ही मैं तादात्म्य कहता हूं- यदि तुम किसी भी चीज से तादात्म्य न जोड़ो, तो वह तत्क्षण मृत हो जाती है, उसके पास अपनी कोई ऊर्जा नहीं है।


और अ-तादात्म्य द्रष्टा होने का ही दूसरा पहलू है।


आदतें आसान है, होश कठिन है- लेकिन केवल शुरु में ही।

जीवन के विभिन्न आयाम 

ओशो

प्रेम और घृणा



जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है, कुछ भी स्थायी हो नहीं सकता। किसी भी चीज को स्थायी बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं है। केवल मृत चीजें स्थायी हो सकती हैं। कोई भी चीज जितनी ज्यादा जीवंत है, उतनी ही ज्यादा क्षणभंगुर होगी।


आज प्रेम है कल की किसे खबरः रह भी सकता है, नहीं भी रह सकता। उसका नियंत्रण करना तुम्हारे हाथ में नहीं है। वह एक घटना है तुम कुछ भी कर नहीं सकते; तुम उसे पैदा नहीं कर सकते यदि वह न हो। या तो वह होता है अथवा वह नहीं होता है- तुम बस असहाय हो। पत्थर स्थायी हो सकते हैं, फूल नहीं हो सकते। और प्रेम पत्थर नहीं है। वह एक फूल है, और अनूठी गुणवत्ता वाला।
हृदय द्वंद्व का अतिक्रमण है। हृदय चीजों को स्पष्टता से देखता है और प्रेम उसका स्वाभाविक गुण है- ऐसी चीज नहीं जिसमें प्रशिक्षण लेना हो और इस प्रेम में घृणा उसके प्रतिपक्ष के रूप में उपस्थित नहीं रहती।


तुम प्रेम-घृणा रूपी द्वंद्व के पार जाने में समर्थ हो।


अभी वे तुम्हारे जीवन में साथ-साथ चलते हैं। तुम उसी व्यक्ति से प्रेम करते हो जिससे तुम घृणा करते हो। तो सुबह घृणा है, शाम को प्रेम है- और यह बड़ी चकराने वाली बात है। तुम जान ही नहीं पाते कि तुम इस व्यक्ति से प्रेम करते हो या घृणा करते हो, क्योंकि अलग-अलग समयों पर तुम दोनों ही करते हो।


लेकिन यही मन के काम करने का ढंग है; वह विरोधाभासों के जरिए काम करता है। विकास भी विपरीत के माध्यम से काम करता है; लेकिन वे विपरीतताएं अस्तित्त्व के लिए विरोधाभास नहीं हैं, वे परिपूरक हैं।


घृणा भी एक तरह का प्रेम है- शीर्षासन करता हुआ।


जो प्रेम मन से आता है वह हमेशा प्रेमघृणा होता है। ये दो शब्द नहीं हैं, यह एक शब्द हैः प्रेमघृणा”- उनके बीच संयोजक चिन्ह भी नहीं है। और प्रेम, जो तुम्हारे हृदय से आता है, वह सभी द्वंद्वों के पार है।


हर व्यक्ति उसी प्रेम की खोज में है जो प्रेम और घृणा के पार जाता है- लेकिन मन के द्वारा, खोज रहे हैं, इसीलिये दुखी हैं। प्रत्येक प्रेमी असफलता महसूस करता है, धोखा हुआ, विश्वासघात हुआ महसूस करता है लेकिन इसमें किसी का दोष नहीं है। असलियत यह है कि तुम गलत उपकरण का उपयोग कर रहे हो। यह ऐसे ही है जैसे कोई व्यक्ति आंखों का उपयोग संगीत सुनने के लिये कर रहा हो, और फिर विक्षिप्तता प्रगट करता है कि कहीं कोई संगीत नहीं है लेकिन आंखों का काम सुनना और कानों का काम देखना नहीं है। मन अति व्यापारी किस्म का, हिसाबी-किताबी यंत्र है; उसका प्रेम से कोई लेना-देना नहीं।


प्रेम एक अराजकता होगी। वह मनका सब कुछ अस्त-व्यस्त कर देगा। हृदय का व्यापार से कोई लेना-देना नहीं- वह सदा ही छुट्टी पर है। वह प्रेम कर सकता है और ऐसा प्रेम कर सकता है जो घृणा में कभी नहीं बदलता; उस के पास घृणा के जहर नहीं हैं।


हर व्यक्ति इसी की खोज कर रहा है, लेकिन बस गलत उपकरण से; इसीलिये जगत में असफलता है। और धीरे-धीरे लोग, यह देखकर कि प्रेम केवल दुख लाता है, बंद हो गये हैं प्रेम बकवास है।वे प्रेम के विरोध में बड़ी दीवारें खड़ी कर लेते हैं। लेकिन वे जीवन के समस्त आनंदों को चूकेंगे, वे जो भी जीवन में मूल्यवान है उस सबको चूकेंगे।

जीवन के विभिन्न आयाम 

ओशो

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