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Friday, May 14, 2021

एक और मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि व्यक्ति जैसा भाव करता र्ह, वैसा ही बन जाता है। तो क्या मुक्त होने के भाव को गहन करने से वह मुक्त भी हो सकता है?




कभी भी नहीं। क्योंकि मुक्त होने का अर्थ ही है, भाव से मुक्त हो जाना। इसलिए संसार में सब कुछ हो सकता है भाव से, मुक्ति नहीं हो सकती। मुक्ति संसार का हिस्सा नहीं है।



भाव है संसार का विस्तार या संसार है भाव का विस्तार। तो आप जो भी भाव से चाहें, वही हो जाएंगे। स्त्री होना चाहें, स्त्री; पुरुष होना चाहें, पुरुष; पशु होना चाहें, पशु; पक्षी होना चाहें, पक्षी; स्वर्ग में देवता होना चाहें तो, नरक में भूत—प्रेत होना चाहें तो, जो भी आप होना चाहे  मुक्ति को छोड़कर,आप अपने भाव से होते हैं और हो सकते हैं।



मुक्ति का अर्थ ही उलटा है। मुक्ति का अर्थ है कि अब हम कुछ भी नहीं होना चाहते। अब जो हम हैं, हम उससे ही राजी हैं। अब हम कुछ होना नहीं चाहते हैं।


जब तक आप कुछ होना चाहते हैं, तब तक आप जो हैं, उससे आप राजी नहीं हैं। कुछ होना चाहते हैं। गरीब अमीर होना चाहता है; स्त्री पुरुष होना चाहती है; दीन धनी होना चाहता है। कुछ होना चाहते हैं। पशु पुरुष होना चाहता है, पुरुष स्वर्ग में देवता होना चाहता है। लेकिन कुछ होना चाहते हैं, कुछ होना चाहते हैं।


होना चाहने का अर्थ है कि जो मैं हूं उससे मैं राजी नहीं हूं; मैं कुछ और होना चाहता हूं। और जो आप हैं, वही आपका सत्य है। और जो भी आप होना चाहते हैं, वह झूठ है।


भाव से झूठ पैदा हो सकते हैं, सत्य पैदा नहीं होता। सत्य तो है ही। इसलिए सभी भाव असत्य को जन्माते हैं। सारा संसार इसीलिए माया है, क्योंकि वह भाव से निर्मित है।


आप जो होना चाहते हैं, वह हो जाते हैं। जो आप हैं, वह तो आप हैं ही। वह इस होने के पीछे दबा पड़ा रहता है। जैसे राख में अंगारा दबा हो, ऐसे आपके होने में, बिकमिंग में आपका बीइंग, आपका अस्तित्व दबा रहता है।


जिस दिन आप थक जाते हैं होने से, और आप कहते हैं, अब कुछ भी मुझे होना नहीं है, अब तो जो मैं हूं राजी हूं। अब मुझे कुछ भी नहीं होना है। अब तो जो मेरा होना है, वही ठीक है। मेरा अस्तित्व ही अब मेरे लिए काफी है। अब मेरी कोई वासना, कोई दौड़ नहीं है। जिस दिन आपकी भाव की यात्रा बंद हो जाती है, आप मुक्त हो जाते हैं।



इसलिए भावना से आप मुक्त न हो सकेंगे। भावना संसार का स्रोत है। भावना रुक जाएगी, तो आप मुक्त हो जाएंगे। यह कहना भी ठीक नहीं कि मुक्त हो जाएंगे; क्योंकि मुक्त आप हैं। भावना के कारण आप बंधे हैं। आपकी मुक्ति भावना के जाल में बंधी है। जिस दिन भावना का जाल गिर जाएगा, आप मुक्त हैं।


आप सदा मुक्त थे। मोक्ष कोई भविष्य नहीं है। और मोक्ष कोई स्थान नहीं है। ध्यान रहे, मोक्ष आपका स्वभाव है। आप जो हैं अभी, इसी वक्त, इसी क्षण, वही आपका मोक्ष है।


गीता दर्शन 


ओशो 

Thursday, May 13, 2021

सेक्स की मांग जो इंसान के दिल में है, और अश्लीलता की मांग, इन दोनों में थोड़ा वैचारिक...






पहली बात तो यह कि सेक्स की मांग अश्लील नहीं है, लेकिन जो समाज सेक्स की निंदा करेगा उस समाज में सेक्स की अश्लील मांग शुरू हो जाएगी। सेक्स की मांग अश्लील नहीं है, लेकिन सप्रेसिव सोसाइटी सेक्स की मांग को अश्लील रास्तों पर ले जाएगी।


खाना खाना कोई, खाने की मांग कोई पाप नहीं है। लेकिन मैं एक ऐसे घर में पैदा हुआ जहां सोलह वर्ष तक मैंने कभी रात को खाना नहीं खाया था, और सोचता था कि रात खाना खाया तो नरक गया। न कभी घर में किसी को खाते देखा था। और जो आस-पास खाते थे, तो घर के लोगों का भाव भी देखा था कि वे सब नरक जाने वाले हैं। सोलह साल तक घर के बाहर भी ज्यादा नहीं गया था, तो मुझे कभी रात खाने का मौका भी नहीं आया था।



एक बार कुछ मित्रों के साथ पिकनिक पर गया, कालेज में पहुंचा तो। वे तो सब रात को खाने वाले थे। पहाड़ पर दिन भर घूमे, थक गए। उन्होंने दिन में तो खाने की कोई फिक्र न की, रात खाना बनाना शुरू किया। अब मैं दिन भर का भूखा हूं, थका-मांदा हूं। उनके खाने की सुगंध, सामने ही खाना बन रहा है। मेरा पूरा मन तो इनकार कर रहा है कि खाना मत खाना, क्योंकि इससे बड़ा कोई पाप नहीं है। और भूख कह रही है कि खाना खाना ही पड़ेगा, असंभव है रोकना। फिर उनके खाने की सुगंध घेर रही है। फिर उन सबका मनाना भी आकर्षण दे रहा है--कि खा ही लो, इससे क्या बिगड़ता है! हम सब नरक जाएंगे तो तुम भी चले चलना। इतने लोग सब नरक जाएंगे।



उनकी बात आखिर में मान ली। खाना खा लिया। खाना तो खा लिया, लेकिन रात में तीन बार वॉमिट हुई। जब तक पूरा खाना नहीं निकल गया तब तक मैं रात में सो नहीं सका।



उस दिन मैंने यही सोचा कि यह पापपूर्ण चीज थी, इसलिए वॉमिट हो गई। आज मैं जानता हूं, पाप-पुण्य होने से कोई संबंध न था। मेरा जो विरोध था, मेरी जो निंदा थी, मेरे जो मन का भाव था, मेरा जो सप्रेसिव दिमाग था--कि नहीं खाना है--उसने रिवोल्ट पैदा किया है, उसने वॉमिट भी पैदा कर दी। अब तो बहुत बार खा रहा हूं, अब वॉमिट नहीं होती। इतने लोग खा रहे हैं, उन्हें नहीं होती। उस दिन मैंने यही समझा था कि वॉमिट जो है, वह पाप को बाहर फेंक देने के लिए है।



सेक्स की मांग तो स्वाभाविक है। न हो तो आदमी बीमार है। वह मांग तो स्वाभाविक है। लेकिन उस स्वाभाविक मांग को अगर हम सब तरफ से निंदा करें और रोकने की कोशिश करें, तो मांग अश्लील बन जाएगी, पाप-पुण्य बन जाएगी। और उस आदमी को भी लगने लगेगा कि कोई अपराध का काम हो रहा है। वह उसे चोरी से भी करने लगेगा और ऐसे उपाय खोजेगा जहां वह मांग भी पूरी हो जाए अश्लील, और कोई बाधा भी न पड़े। अब दो ही उपाय हैं--या तो वह पिक्चर देख कर पूरा कर ले और या सड़कों पर चलती स्त्रियों के वस्त्र छीन ले। एक ही उपाय है--या तो वह कविता पढ़ कर पूरी कर ले या बाथरूम में गालियां लिख कर पूरी कर ले। वह कुछ उपाय खोजेगा और उस उपाय से एक नई मांग पैदा होगी, एक नया बाजार पैदा होगा।



मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सेक्स की मांग गलत है। मैं यह कह रहा हूं कि सेक्स के संबंध में हमारी जो धारणा है दुश्मनी की, वह गलत है। वह दुश्मनी की धारणा अश्लीलता पैदा करती है। अश्लीलता दमन का सहज परिणाम है। और जितना स्वस्थ समाज होगा उतना कम दमन वाला होगा, उतनी कम अश्लीलता होगी। क्योंकि चीजों के तथ्यों को हमने स्वीकार कर लिया होगा।



एक छोटा सा बच्चा पूछ रहा है, एक छोटे से बच्चे के मन में भी जिज्ञासा है कि लड़की का शरीर कैसा है? एक छोटी लड़की के मन में भी जिज्ञासा है कि लड़के का शरीर कैसा है? और हम सबने उनके शरीर ढांके हुए हैं। और जिज्ञासा बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि लड़के को लड़की कुछ अलग मालूम पड़ती है; लड़की को लड़का कुछ अलग मालूम पड़ता है। घर के लोग अलग-अलग होने का भाव भी पैदा करते हैं, कांशसनेस भी पैदा करते हैं--कि वह लड़का है, वह लड़की है। लड़का गुड्डी खेल रहा हो तो इनकार करते हैं--कि यह क्या लड़कियों जैसा काम कर रहे हो! स्वाभाविक है कि वह जानना चाहे कि फर्क क्या है? भेद क्या है? और कभी उसको पूरा नहीं देखा है। तो वह छिप कर देखना चाहता है। वह डाक्टरी का खेल खेल कर और लड़की के घाघरे के भीतर घुस जाना चाहता है। वह कुछ न कुछ उपाय खोजेगा।



अब ये उपाय अश्लील हुए चले जा रहे हैं। ये उपाय खतरनाक हुए चले जा रहे हैं। और इनका ईजाद करने वाला बच्चा नहीं है, इनका ईजाद हम करवा रहे हैं। हम उसको रोक रहे हैं। अगर लड़के और लड़कियां नंगे साथ खेल रहे हों, स्नान कर रहे हों एक उम्र तक, नंगे बड़े हो रहे हों और कोई कांशसनेस न दी जा रही हो कि यह शरीर अलग, यह शरीर अलग, वे उसके अलगपन से परिचित हो गए होंगे, वे बड़े हो गए होंगे।



आज भी आदिवासी समाज में शरीर के प्रति वह जुगुप्सा नहीं है जो हममें है। क्योंकि शरीर खुले हुए हैं, जुगुप्सा का सवाल क्या है! सीक्रेसी नहीं है तो अश्लीलता का सवाल क्या है! एक आदिवासी को हैरानी ही होती है यह बात देख कर कि स्त्रियों के स्तनों का इतना प्रचार विज्ञापनों में हो, फिल्मों में हो! हैरानी ही होती है कि यह मामला क्या है? यह दिमाग खराब हो गया है लोगों का क्या? स्त्री के स्तन हैं सो ठीक बात है, अब इसमें मामला क्या है इतना बढ़ाने का!



और कालिदास से लेकर और सारे कवि स्त्री के स्तनों की चर्चा कर रहे हैं। महाकवि भी वही चर्चा कर रहा है। कालिदास भी वही कह रहे हैं। और सारे लोग वही कह रहे हैं। कालिदास को जंगल में फल लटके दिखाई पड़ते हैं तो भी यही दिखाई पड़ता है कि स्त्री के स्तनों जैसे फल लटके हुए हैं।



यह कुछ न कुछ अस्वस्थ हो गई कहीं कोई बात। कहीं हमने ऐसा धक्का दिया है कि हमने परवर्शन का उपाय पैदा कर दिया। नहीं तो फल में फल दिखाई पड़ना चाहिए। फल से स्त्री के स्तन को देखने का क्या संबंध है? कोई मामला नहीं समझ में आता। कोई एसोसिएशन नहीं दिखता है। लेकिन हमने जब सब तरफ से रोका है, तो माइंड नये-नये मार्ग खोज रहा है, नई तरकीबें खोज रहा है और नये उपाय खोज रहा है।



यह मांग, हमारी जो शुद्धतावादी दृष्टि है उसने पैदा की है। और मजा यह है कि वह शुद्धतावादी दृष्टि कहती है कि हम नियम इसलिए पैदा करते हैं कि आपको स्वस्थ कर सकें। हम व्यवस्था इसलिए देते हैं कि आप गड़बड़ न हो जाएं। हम अनुशासन इसलिए बनाते हैं कि आदमी भटक न जाए। और उसके अनुशासन, उसकी व्यवस्था, उसके सारे नियम मिल कर, जैसा आदमी है, उसको भटका रहे हैं।


चेति सकै तो चेति 


ओशो 




आग्रह आक्रमण है



लाओत्से की दृष्टि में शिक्षक वही है जिसे शिक्षा देनी न पड़े, जिसकी मौजूदगी शिक्षा बन जाए; गुरु वही है जिसे आदर मांगना न पड़े, जिसे आदर वैसे ही सहज उपलब्ध हो जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं। ऐसी सहजता ही जीवन में क्रांति ला सकती है।


शिक्षक शिक्षा देना चाहता है; गुरु अपना गुरुत्व दिखाना चाहता है; पिता बेटे को बदलना चाहता है; समाज-सुधारक समाज को नया रूप देना चाहते हैं। उनकी आकांक्षाएं शुभ हैं, लेकिन वे सफल नहीं हो पाते। न केवल वे सफल नहीं हो पाते, बल्कि वे भयंकर रूप से हानिपूर्ण सिद्ध होते हैं। क्योंकि जब कोई किसी को बदलना चाहता है तो वह उसकी बदलाहट में बाधा बन जाता है। और जितना ही आग्रह होता है बदलने का उतना ही बदलना मुश्किल हो जाता है।



आग्रह आक्रमण है। अच्छे पिता अक्सर ही अच्छे बेटों को जन्म नहीं दे पाते। उनका अच्छा होना, और अपने बेटे को भी अच्छा बनाने का आग्रह, बेटों की विकृति बन जाती है। जो समाज बहुत आग्रह करता है शुभ होने का, उसका शुभ पाखंड हो जाता है और भीतर अशुभ की धाराएं बहने लगती हैं। जिस चीज का निषेध किया जाता है उसमें रस पैदा हो जाता है, और जिस चीज को जबरदस्ती थोपने की कोशिश की जाती है उसमें विरस पैदा हो जाता है। ये मनोवैज्ञानिक सत्य आज पश्चिम की मनस की खोज में स्पष्ट होते चले जाते हैं।




लेकिन लाओत्से अभी भी अप्रतिम है, अभी भी लाओत्से की बात पूरी समझ में मनुष्य को नहीं आ सकी है। लाओत्से यह कह रहा है कि शुभ लाने की चेष्टा से अशुभ आता है; अच्छा बनाने की कोशिश बुरा बनने का कारण बन जाती है। परिणाम विपरीत होते हैं। इसको हम ठीक से समझ लें तो फिर इस सूत्र में प्रवेश हो जाएगा।



जब मैं किसी को अच्छा बनाने की कोशिश करता हूं, तो इस पूरी कोशिश की व्याख्या समझ लें, इस पूरी कोशिश का एक-एक ताना-बाना समझ लें। जब मैं किसी को अच्छा बनाने की कोशिश करता हूं तो पहली तो बात यह कि मैं अपने को अच्छा मानता हूं जो कि गहन अहंकार है, और दूसरा कि मैं दूसरे को बुरा मानता हूं जो कि अपमान है। और जितना ही मैं आग्रह करता हूं दूसरे को अच्छा बनाने का उतना ही मैं उसे अपमानित करता हूं; मेरी चेष्टा उसकी गहन निंदा बन जाती है। और अपमान प्रतिकार चाहता है, अपमान बदला लेना चाहता है। तो जिसे मैं अपमानित कर रहा हूं इस सूक्ष्म विधि से वह मुझ से बदला लेगा। और बदले का सबसे सरल उपाय यह है कि जो मैं चाहता हूं वह भर वह न होने दे; उससे विपरीत करके दिखा दे। तो बेटे बाप के विपरीत चल जाते हैं; शिष्य गुरुओं को सब भांति खंडित कर देते हैं; अनुयायी नेताओं को बुरी तरह पराजित कर देते हैं।



इधर हमने देखा, महात्मा गांधी की अथक चेष्टा थी, लोग अच्छे हो जाएं; और उन्होंने अपने अनुयायियों को अच्छा बनाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन उन्हें लाओत्से का कोई भी पता नहीं था। और जो परिणाम हुआ वह हमारे सामने है कि उनका अनुयायी, ठीक वह जो चाहते थे, उससे विपरीत हुआ। इसके लिए सभी लोग अनुयायियों को जिम्मेवार ठहराएंगे, लाओत्से जिम्मेवार नहीं ठहराता, मैं भी जिम्मेवार नहीं ठहराता। क्योंकि भूल शिक्षक की है। लेकिन वह भूल दिखाई हमें नहीं पड़ेगी। क्योंकि हम भी यह धारणा मान कर चलते हैं कि महात्मा गांधी ने तो अथक चेष्टा की लोगों को अच्छा बनाने की; अगर लोग नहीं अच्छे बने तो लोगों का कसूर है।



लेकिन लाओत्से यह कहता है कि शिक्षक की बुनियादी भूल है। जहां आग्रह होता है, जहां दूसरे को ठीक करने की चेष्टा होती है, वह चेष्टा विपरीत परिणाम लाती है। और ऐसा नहीं कि विपरीत परिणाम अनुयायियों पर हुए, उनकी खुद की संतान पर भी विपरीत परिणाम हुआ। जो वे चाहते थे उससे उलटा हुआ। चाह में कुछ भूल न थी, लेकिन उन्हें जीवन के गहन इस सत्य का जैसे पता नहीं है कि आग्रह आक्रमण है, और चाहे दूसरा कहे या न कहे, भीतर अपमानित होता है।



जैसे ही मैं किसी को अच्छा करने की कोशिश करता हूं, एक बात तो मैंने कह दी कि तुम बुरे हो। और यह मैं सीधा कह देता तो शायद इतनी चोट न लगती, लेकिन मैं यह परोक्ष कहता हूं कि तुम्हें अच्छा होना है, तुम्हें अच्छा बनना है। यह तो मैं कह रहा हूं कि तुम जैसे हो वैसे स्वीकृत नहीं हो; तुम कटो, छंटो, निखरो, तो मैं स्वीकार कर सकूंगा। मेरे स्वीकार में शर्त है: जैसा मैं चाहता हूं वैसे तुम हो जाओ।



एक तो मैंने मान ही लिया कि मैं ठीक हूं और दूसरी अब मैं यह कोशिश कर रहा हूं कि तुम गलत हो। और यह एक गहरी हिंसा है। दूसरे को मारना बड़ी स्थूल हिंसा है; दूसरे को बदलना बड़ी गहन हिंसा है, बड़ी सूक्ष्म हिंसा है। मैं आपका हाथ काट डालूं, यह बहुत बड़ी हिंसा नहीं है; लेकिन मैं आपके व्यक्तित्व को काटूं--चाहे भली इच्छा से ही, चाहे मैं आपको लाभ पहुंचाने के लिए ही, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। बड़े मजे की तो बात यह है कि जितने लोग भी दूसरों को लाभ पहुंचाना चाहते हैं अक्सर तो लाभ पहुंचाना असली बात नहीं होती, दूसरे को बदलने, तोड़ने, काटने का रस असली बात होती है। और बड़ा सूक्ष्म मजा है कि दूसरे को मैं अपने अनुकूल ढाल रहा हूं। जैसा मैं हूं, जैसा मैं समझता हूं ठीक है, वैसा मैं दूसरे को बना रहा हूं। यह दूसरे की आत्मा का अपमान है।



तो शिक्षक, आदर्शवादी, महात्मा, साधु-संन्यासी, नेता, क्रांतिकारी, समाज-सुधारक समाज को बदल नहीं पाते, और विकृत कर जाते हैं। और उनके पीछे जो छाया आती है वह अत्यंत पतन की होती है। जब भी कोई महापुरुष लोगों को बदलने की कोशिश करता है तो उसके पीछे एक अंधकार की धारा अनिवार्यरूपेण पैदा हो जाती है।



लाओत्से कहता है कि तुम दूसरे को बदलना मत। तुम अपने स्वभाव में जीना। और अगर तुम्हारे स्वभाव में कुछ भी मूल्यवान है तो दूसरे उसकी उपस्थिति में बदलना शुरू हो जाएंगे। यह बदलाहट तुम्हारा आग्रह न होगी; इस बदलाहट में तुम्हारी चेष्टा न होगी; इस बदलाहट में तुम सचेतन रूप से सक्रिय भी नहीं होओगे। दूसरा ही सक्रिय होगा, दूसरा ही यत्न करेगा; लेकिन तुम सिर्फ एक मौन उपस्थिति, एक मौन प्रेरणा रहोगे।


ताओ उपनिषद 


ओशो 

Tuesday, May 11, 2021

is it fair to take Sanyaas because you cannot solve your personal problems?

चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते, क्या इस कारण लिया गया संन्यास उचित है?






पूछा है डाक्टर राजेंद्र आई. देसाई ने। डाक्टर देसाई, संन्यास का संबंध समस्याओं को हल करने से है ही नहीं। मैं समस्याएं हल नहीं करता। मैं व्यक्तिगत समस्याएं हल नहीं करता, मैं तो व्यक्ति को मिटाने का उपाय बताता हूं जिससे सारी समस्याएं पैदा होती हैं।




तुम कहते हो: चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते...








तुम तो पैदा करते हो, हल कैसे करोगे? तुम्हीं तो पैदा करने वाले हो, हल कैसे करोगे? तुम्हीं तो समस्या हो, हल कौन करेगा? स्व जाए, तो स्वयं से पैदा होने वाली समस्याएं जाएं। इसलिए तुम यह मत सोचना कि संन्यास कोई समस्याओं को हल करने की विधि है। हम तो जड़ काटते हैं, शाखाएं नहीं। पत्ते—पत्ते क्या काटना! और एक पत्ता काटो तो तीन निकल आते हैं। एक समस्या हल करो, तीन पैदा हो जाएंगी। यही रिवाज है। तुमने देखा न, वृक्ष को घना करना हो तो पत्ते काट देता है माली। क्यों? क्योंकि जानता है, वृक्ष क्रोध में आ जाएगा; एक पत्ता काटा, वृक्ष उत्तर में तीन पत्ते पैदा करता है। माली को हराने की चेष्टा शुरू हो जाती है—कि समझा क्या है तूने अपने को! एक शाखा काटो, तीन शाखाएं निकल आती हैं। वृक्ष घना होने लगता है। वृक्ष भी जवाब देता है, चुनौती अंगीकार कर लेता है।








अहंकार में समस्याएं लगती हैं, अहंकार के वृक्ष पर समस्याओं के पत्ते लगते हैं, शाखाएं—प्रशाखाएं ऊगती हैं। तुम एक समस्या हल करो, और तीन समस्याएं उसकी जगह खड़ी हो जाएंगी। तुम एक प्रश्न का उत्तर खोजो, और उसी उत्तर में से तीन नए प्रश्न खड़े हो जाएंगे। यही तो पूरे मनुष्य का इतिहास है। जाल छूटता नहीं, बढ़ता चला जाता है।
हम तो जड़ काटते हैं, हम तो मूल काटते हैं। हम कहते हैं, पत्ते—पत्ते क्या उलझना? और मजा यह है कि जड़ दिखाई नहीं पड़ती। वह भी वृक्ष की तरकीब है, क्योंकि दिखाई पड़े तो कोई काट दे। तो वृक्ष जड़ को छिपाकर रखता है, उसको जमीन में छिपाकर रखता है—अंधेरे में दबी रहती है जड़। पत्ते ऊपर भेज देता है, कोई डर नहीं—कट भी जाएंगे, लुट भी जाएंगे, पक्षी ले जाएंगे, जानवर चर लेंगे, आदमी छांट देंगे—कोई फिक्र नहीं। अगर जड़ें शेष हैं, तो फिर पत्ते निकल आएंगे। पत्ते मूल्यवान नहीं हैं। पत्तों का आना—जाना होता रहता है। पतझड़ में अपने—आप गिर जाएंगे, अगर किसी ने न भी छीने तो। वसंत में फिर पुनः अंकुरित हो जाएंगे। बस जड़ें बची रहनी चाहिए।
देखते हो, वृक्ष जड़ों को कैसे छिपाकर रखता है! किसी को पता ही नहीं होने देता। अगर तुम पूरा वृक्ष भी काट दो तो भी कोई फिक्र नहीं है वृक्ष को। जड़ें शेष हैं, तो नए अंकुर निकल आएंगे। ऐसी ही अवस्था तुम्हारी है। समस्याएं ऊपर हैं, समस्याओं की जड़ भीतर है। जड़ है—अहंकार।






संन्यास का अर्थ होता है—अहंकार का समर्पण। संन्यास का और क्या अर्थ है? संन्यास का इतना अर्थ है—मैं थक गया, अब मैं अपने मैं को छोड़ता हूं।






और डाक्टर देसाई को वही अड़चन हो रही है। संन्यास लेना चाहते होंगे, नहीं तो प्रश्न ही न उठता। डाक्टर हैं, पढ़े—लिखे हैं, सम्मानित हैं। सूरत के डाक्टर हैं, प्रसिद्ध हैं वहां, डरते होंगे—लोग देखेंगे गैरिक वस्त्रों में, कहेंगे कि एक अच्छा भला आदमी और पागल हुआ! मरीज भी संदिग्ध हो जाएंगे कि अब इनसे आपरेशन करवाना? क्या भरोसा संन्यासियों का! आपरेशन करते—करते कुंडलिनी ध्यान करने लगें! इनसे दवा लेनी? क्या भरोसा पागलों का! डर लगता होगा।






मैं डाक्टर देसाई की तकलीफ समझता हूं, डर लगता होगा। संन्यास का मन में भाव तो उठा है, नहीं तो प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन अब बचना भी चाहते हैं। और बचना इस ढंग से चाहते हैं, जिसमें सम्मान भी शेष रहे।
तो वे पूछ रहे हैं: चूंकि हम अपनी व्यक्तिगत समस्याएं स्वयं हल नहीं कर पाते, क्या इस कारण लिया गया संन्यास उचित है?






फिर संन्यास कब लोगे? जब सारी व्यक्तिगत समस्याएं हल कर लोगे तब! फिर संन्यास की जरूरत क्या होगी? यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई मरीज डाक्टर के पास तब जाए, जब स्वस्थ हो जाए। डाक्टर देसाई डाक्टर हैं, इसलिए यह उदाहरण ठीक होगा। कोई मरीज कहे कि क्या हम अपनी बीमारी खुद ठीक नहीं कर सकते, इसलिए डाक्टर के पास जाना उचित होगा? जाएंगे, जब बीमारी चली जाएगी। मगर तब जाने का अर्थ क्या होगा? क्या प्रयोजन होगा?
बुद्ध ने कहा है, मैं वैद्य हूं। नानक ने भी कहा है कि मैं चिकित्सक हूं। दुनिया के बड़े ज्ञानी वस्तुतः दार्शनिक नहीं हैं, चिकित्सक हैं। बुद्ध ने कहा है। मुझसे व्यर्थ के प्रश्न मत पूछो, अपनी मूल बीमारी कहो और इलाज लो। अपनी जड़ उघाड़ो और मुझे काट देने दो।








मैं भी चिकित्सक हूं। आखिर डाक्टरों को भी तो चिकित्सक की जरूरत पड़ती है न! समस्याएं हल करके आओगे, फिर तो कोई जरूरत न रह जाएगी।






भय क्या है? अहंकार बाधा डालता है। अहंकार कहता है, किसी के सामने जाकर अपनी समस्याएं प्रगट करना? छिपाए रहो भीतर, मत कहो किसी से। ऊपर एक मुखौटा लगाए रहो कि अपनी कोई समस्याएं नहीं हैं। ऊपर चाहे दूसरों को धोखा दे लो, भीतर तो समस्याएं हैं और तुम तो जलोगे उनकी आग में, तुम तो तड़पोगे उनकी आग में।




डाक्टर देसाई, तुम अपने को बचाना चाहते हो—अच्छे शब्दों के जाल में कि क्या यह संन्यास लेना उचित होगा? फिर कब उचित होगा? अभी औषधि की जरूरत है!

और तुम्हें अभी यह भी पक्का पता नहीं है कि तुम्हारी समस्या क्या है। समस्याएं समस्या नहीं हैं। समस्याएं तो पत्ते हैं, समस्या तो भीतर छिपी है, वह अहंकार है। और संन्यास उसी जड़ को काटने की प्रक्रिया है।



संन्यास का अर्थ होता है—समर्पण, किसी के चरणों में जाकर अपने को समर्पित कर देना। जिससे प्रेम हो जाए।


 जिसके भीतर थोड़ी—सी उसकी बांसुरी बजती सुनाई पड़ जाए। जिसके भीतर से थोड़ी—सी उसकी हवा की
 झलक मिलने लगे। जिसके पास उसके सौंदर्य का थोड़ा—सा आभास हो। बस, उसके चरणों में सब छोड़ देना। उस छोड़ने में क्रांति घट जाती है। क्योंकि उस छोड़ने में तुम्हारा अहंकार पहली दफा झुकता है। वही झुकना जड़ का कट जाना है।



हां, अगर न झुके, तो संन्यास से भी कुछ न होगा। संन्यास फिर ऊपर—ऊपर रह गया। वर्षा भी हो गई, मगर तुम भीगे नहीं। कुछ सार न हुआ। भीतर झुकना! तो समस्याओं की समस्या, सारी समस्याओं का मूल आधार विसर्जित हो जाता है।



डरो मत! संन्यास की आकांक्षा उठी हो, तो आने दो प्रभु को भीतर। उसने पुकारा है, इसलिए उठी होगी, डाक्टर देसाई! उसकी पुकार को समझो। उसकी पुकार में अपनी पुकार भी जोड़ दो।


कहे वाजिद पुकार 


ओशो 

पिछले जन्मों का कर्म



एक व्यर्थ की धारणा हमें सिखा दी गई है कि तुम्हें दु:खी होना ही पड़ेगा, क्योंकि पिछले जन्मों का कर्म तुम्हें भोगना है। यह धारणा अगर मन में बैठ गई कि मैं पिछले जन्मों के कर्मों को भोग रहा हूं, तो सुख का उपाय कहां है? इतने—इतने जन्म! कितने—कितने जन्म! चौरासी कोटि योनियां! इनमें कितने पाप किए होंगे, थोड़ा हिसाब तो लगाओ! इन सारे पापों का फल भोगना है। सुख हो कैसे सकता है! दुख स्वाभाविक मालूम होने लगेगा। ये आदमी को दु:खी रखने की ईजादें हैं।



मैं तुमसे कहता हूं: कोई पाप नहीं किए हैं, कोई कर्म का फल नहीं भोगना है। तुम अभी जागे ही नहीं, तुम अभी हो ही नहीं, पाप क्या खाक करोगे! पाप बुद्ध कर सकते हैं। लेकिन बुद्ध पाप करते नहीं।



अकबर की सवारी निकलती थी और एक आदमी अपने मकान की मुंडेर पर चढ़ गया और गालियां बकने लगा। सम्राट को गालियां! तत्क्षण पकड़ लिया गया। दूसरे दिन दरबार में मौजूद किया गया। अकबर ने पूछा: तू पागल है! क्या कह रहा था? क्यों कह रहा था? उसने कहा मुझे क्षमा करें, मैंने कुछ कहा ही नहीं। मैंने शराब पी ली थी। मैं बेहोश था। मैं था ही नहीं! अगर आप मुझे दंड देंगे, तो ठीक नहीं होगा, अन्याय हो जाएगा। मैं शराब पीए था।




अकबर ने सोचा और उसने कहा: यह बात ठीक है; दोष शराब का था, दोष तेरा नहीं था। तू जा सकता है। मगर अब शराब मत पीना। शराब पीने का दोष तेरा था। शराब पीने के बाद जो कुछ तेरे मुंह से निकला, उसमें तेरा हाथ नहीं, यह बात सच है।




आज भी अदालत पागल आदमी को छोड़ देती है, अगर पागल सिद्ध हो जाए। क्यों? क्योंकि पागल आदमी का क्या दायित्व? किसी पागल ने किसी को गोली मार दी। अदालत क्षमा कर देती है, अगर सिद्ध हो जाए कि पागल है। क्योंकि पागल आदमी को क्या दोष देना, उसे होश ही नहीं है!




तुम होश में रहे हो? ये जो चौरासी कोटि योनियां जिनके संबंध में तुम शास्त्रों में पढ़ते हो, तुम होश में थे? तुम्हें एकाध की भी याद है? अगर तुम होश में थे, तो याद कहां है? तुम्हें एक बार भी तो याद नहीं आती कि तुम कभी वृक्ष थे, कि तुम कभी एक पक्षी थे, कि तुम कभी जंगल के सिंह थे। तुम्हें याद आती है कुछ? शास्त्र कहते हैं; तुम्हें याद नहीं। और तुम गुजरे हो चौरासी कोटि योनियों से।




तुम बेहोश थे, तुम मूर्च्छित थे। मूर्च्छा में जो भी किया गया, उसका क्या मूल्य है? परमात्मा अन्याय नहीं कर सकता। इस दुनिया की अदालतें भी इतना अन्याय नहीं करतीं, तो परमात्मा तो परम कृपालु है, वह तो महाकरुणावान है। सूफी कहते हैं—रहीम है, रहमान है, करुणा का स्रोत है। इस जगत की अदालतें, जिनको हम करुणा का स्रोत कह नहीं सकते, वे भी क्षमा कर देती हैं मूर्च्छित आदमी को।




मैं तुमसे कहता हूं बार—बार: तुम जागो, उसके बाद ही तुम्हारे कृत्यों का लेखा—जोखा हो सकता है। यह मैं एक अनूठी बात कह रहा हूं, जो तुमसे कभी नहीं कही गई है। मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। मुझे चौरासी कोटि योनियों के पाप नहीं काटने पड़े और मैं उनके बाहर हो गया हूं। तुम भी हो सकते हो। तुम्हें भी काटने की झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। और काट तुम पाओगे नहीं, वह तो सिर्फ दु:खी रहने का ढंग है। वह तो दुख को एक व्याख्या देने का ढंग है। वह तो दुख में भी अपने को राजी कर लेने की व्यवस्था, आयोजन है। क्या करें, अगर दुख है तो जन्मों—जन्मों के पापों के कारण है। जब कटेंगे पाप, जब फल मिलेगा, तब कभी सुख होगा—होगा आगे कभी।





ऐसा ही तुम पहले भी सोचते रहे, ऐसा ही तुम आज भी सोच रहे हो, ऐसा ही तुम कल भी सोचोगे, अगले जन्म में भी सोचोगे। जरा सोचो, फर्क क्या पड़ेगा? अगले जन्म में तुम कहोगे कि पिछले जन्मों के पापों का फल भोग रहा हूं। और अगले जन्म में भी तुम यही कहोगे। तुम सदा यही कहते रहोगे, तुम सदा यही कहते रहे हो। तुम दुख से बाहर कब होओगे? और तुम्हें किसी एक जन्म की याद नहीं है। तुम्हें—पिछले जन्मों की तो फिक्र छोड़ो—तुम्हें अभी भी याद नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। तुम अभी भी होश में कहां हो? तुम्हारे पास होश का दीया कहां है?





सिर्फ बुद्ध—पुरुष अगर पाप करें, तो उत्तरदायी हो सकते हैं। मगर वे पाप करते नहीं, क्योंकि जाग्रत व्यक्ति कैसे पाप करे? अब तुम मेरी बात समझो। जाग्रत व्यक्ति कैसे पाप करे? और सोया व्यक्ति, मैं कहता हूं, कैसे पुण्य करे? जैसे अंधा आदमी तो टटोलेगा ही, ऐसा मूर्च्छित आदमी तो गलत करेगा ही। जैसे अंधा आदमी टेबल—कुर्सी से टकराएगा ही। दरवाजे से निकलने के पहले हजार बार उसका सिर दीवारों से टकराएगा; स्वाभाविक है। आंख वाला आदमी क्यों टकराए? आंख वाला आदमी दरवाजे से निकल जाता है। आंख वाले आदमी को दीवारें बीच में आती ही नहीं, न कुर्सियां, न टेबलें, कुछ भी बीच में नहीं आता। न वह टटोलता है, न वह पूछता है कि दरवाजा कहां है? सिर्फ दरवाजे से निकल जाता है। हां, आंख वाला आदमी अगर दीवार से टकराए, तो हम दोष दे सकते हैं, कि यह तुम क्या कर रहे हो? मगर आंख वाला टकराता नहीं, और जिसको हम दोष देते हैं, वह अंधा है।


कहे वाजिद पुकार 


ओशो 


 





Saturday, May 8, 2021

बुद्ध ने कहा मेरी मूर्तियां मत बनाना...

 

.... तो जिन्होंने मूर्तियां बनायीं उन्होंने बुद्ध की आज्ञा  तोड़ी। लेकिन बुद्ध ने यह भी कहा कि जो ध्यान को उपलब्ध होगा, समाधि जिसके जीवन में खिलेगी, उसके जीवन में करुणा की वर्षा भी होगी।

 

 

तो जिन्होंने मूर्तियां बनायीं उन्होंने करुणा के कारण बनायीं। बुद्ध के चरण-चिह्न खो जाएं, और बुद्ध के चरण-चिह्नों की छाया अनंत काल तक बनी रहे।

 

 

कुछ बात ही ऐसी थी कि जिस आदमी ने कहा मेरी मूर्तियां मत बनाना, हमने अगर उसकी मूर्तियां बनाई होतीं तो बड़ी भूल हो जाती। जिन्होंने कहा था हमारी मूर्तियां बनाना, उनकी हम छोड़ भी देते, बनाते, चलता। बुद्ध ने कहा था मेरी पूजा मत करना, अगर हमने बुद्ध की पूजा की होती, तो हम बड़े चूक जाते।

 

 

यह सौभाग्य की घड़ी कभी-कभी, सदियों में आती है, जब कोई ऐसा आदमी पैदा होता है जो कहे मेरी पूजा मत करना। यही पूजा के योग्य है। जो कहता है मेरी मूर्ति मत बनाना, यही मूर्ति बनाने के योग्य है। सारे जगत के मंदिर इसी को समर्पित हो जाने चाहिए। .

 

 

बुद्ध ने कहा मेरे वचनों को मत पकड़ना, क्योंकि जो मैंने कहा है उसे जीवन में उतार लो। दीये की चर्चा से क्या होगा, दीये को सम्हालो। शास्त्र मत बनाना, अपने को जगाना। लेकिन जिस आदमी ने ऐसी बात कही, अगर इसका एक-एक वचन लिख लिया गया होता, तो मनुष्यता सदा के लिए दरिद्र रह जाती। कौन तुम्हें याद दिलाता ' कौन तुम्हें बताता कि कभी कोई ऐसा भी आदमी हुआ था, जिसने कहा था मेरे शब्दों को अग्नि में डाल देना, और मेरे शास्त्रों को जलाकर राख कर देना, क्योंकि मैं चाहता हूं जो मैंने कहा है वह तुम्हारे भीतर जीए, किताबों में नहीं? लेकिन यह कौन लिखता?

 

 

तो निश्चित ही जिन्होंने मूर्तियां बनायीं, बुद्ध की आज्ञा तोड़ी। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं उन्होंने ठीक ही किया। बुद्ध की आज्ञा तोड़ देने जैसी थी। नहीं कि बुद्ध ने जो कहा था, वह गलत था। बुद्ध ने जो कहा था, बिलकुल सही कहा था। बुद्ध से गलत कहा कैसे जा सकता है बुद्ध ने बिलकुल सही कहा था, मेरी मूर्तियां मत बनाना, क्योंकि कहीं मूर्तियों में तुम मुझे भूल जाओ, कहीं मूर्तियों में मैं खो जाऊं, कहीं मूर्तियां इतनी ज्यादा हो जाएं कि मैं दब जाऊं। तुम सीधे ही मुझे देखना।

 

 

 लेकिन हम इतने अंधे हैं कि सीधे तो हम देख ही पाएंगे। हम तो टटोलेंगे। टटोलकर ही शायद हमें थोड़ा स्पर्श हो जाए। टटोलने के लिए मूर्तियां जरूरी हैं। मूर्तियों से ही हम रास्ता बनाएंगे। हम उस परम शिखर को तो देख ही सकेंगे जो बुद्ध के जीवन में प्रगट हुआ। वह तो बहुत दूर है हमसे। आकाश के बादलों में खोया है वह शिखर। उस तक हमारी आंखें उठ पाएंगी। हम तो बुद्ध के चरण भी देख लें, जो जमीन पर हैं, तो भी बहुत। उन्हीं के सहारे शायद हम बुद्ध के शिखर पर भी कभी पहुंच जाएं, इसकी आशा हो सकती है।

 

 

तो मैं तुमसे कहता हूं जिन्होंने आशा तोड़ी उन्होंने ही आज्ञा मानी। जिन्होंने वचनों को सम्हालकर रखा, उन्होंने ही बुद्ध को समझा। लेकिन तुम्हें बहुत जटिलता होगी, क्योंकि तर्क बुद्धि तो बड़ी नासमझ है।

 

ऐसा हुआ। एक युवक मेरे पास आता था। किसी विश्वविद्यालय में अध्यापक था। बहुत दिन मेरी बातें सुनीं, बहुत दिन मेरे सत्संग में रहा। एक रात आधी रात आया और कहा, जो तुमने कहा था वह मैं पूरा कर चुका। मैंने अपने सब वेद, उपनिषद, गीता कुएं में डाल दीं। मैंने उससे कहा, पागल! मैंने वेद-उपनिषद को पकड़ना मत, इतना ही कहा था। कुएं में डाल आना, यह मैंने कहा था। यह तूने क्या किया?

 

 

वेद-उपनिषद को पकड़ो तो ही वेद-उपनिषद समझ में आते हैं। वेद- उपनिषद को समझने की कला यही है कि उनको पकड़ मत लेना, उनको सिर पर मत ढो लेना। उनको समझना। समझ मुक्त करती है। समझ उससे भी मुक्त कर देती है जिसको तुमने समझा। कुएं में क्यों फेंक आया? और तू सोचता है कि तूने कोई बड़ी क्रांति की, मैं नहीं सोचता। क्योंकि अगर वेद-उपनिषद व्यर्थ थे, तो आधी रात में कुएं तक ढोने की भी क्या जरूरत थी 2 जहां पड़े थे पड़े रहने देता। कुएं में फेंकने वही जाता है, जिसने सिर पर बहुत दिन तक सम्हालकर रखा हो। कुएं में फेंकने में भी आसक्ति का ही पता चलता है। तुम उसी से घृणा करते हो जिस से तुमने प्रेम किया हो। तुम उसी को छोड़कर भागते हो जिससे तुम बंधे थे।

 

एक संन्यासी मेरे पास आया और उसने कहा, मैंने पत्नी-बच्चे सबका त्याग कर दिया। मैंने उससे पूछा, वे तेरे थे कब? त्याग तो उसका होता है जो अपना हो। पत्नी तेरी थी? सात चक्कर लगा लिए थे आग के आसपास, उससे तेरी हो गई थी? बच्चे तेरे थे? पहली तो भूल वहीं हो गई कि तूने उन्हें अपना माना। और फिर दूसरी भूल यह हो गई कि उनको छोड़कर भागा। छोड़ा वही जा सकता है जो अपना मान लिया गया हो। बात कुल इतनी है, इतना ही जान लेना है कि अपना कोई भी नहीं है, छोड़कर क्या भागना है! छोड़कर भागना तो भूल की ही पुनरुक्ति है।

 

 

जिन्होंने जाना, उन्होंने कुछ भी छोड़ा नहीं। जिन्होंने जाना, उन्होंने कुछ भी पकड़ा नहीं। जिन्होंने जाना, उन्हें छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। क्योंकि जब दिखाई पड़ता है कि पकड़ने को यहां कुछ भी नहीं है, तो मुट्ठी खुल जाती है।

 

 

बुद्ध की मृत्यु हुई-तब तक तो किसी ने बुद्ध का शास्त्र लिखा था, ये धम्मपद के वचन तब तक लिखे गये थे-तो बौद्ध भिक्षुओं का संघ इकट्ठा हुआ। जिनको याद हो, वे उसे दोहरा दें, ताकि लिख लिया जाए। .

 

 

  बड़े शानी भिक्षु थे, समाधिस्थ भिक्षु थे। लेकिन उन्होंने तो कुछ भी याद रखा था। जरूरत ही थी। समझ लिया, बात पूरी हो गई थी। जो समझ लिया, उसको याद थोड़े ही रखना पड़ता है। तो उन्होंने कहा कि हम कुछ कह तो सकते हैं, लेकिन वह बड़ी दूर की ध्वनि होगी। वे ठीक-ठीक वही शब्द होंगे जो बुद्ध के थे। उसमें हम भी मिल गये हैं। वह हमारे साथ इतना एक हो गया है कि कहां हम, कहां बुद्ध, फासला करना मुश्किल है।

 

 

तो अज्ञानियों से पूछा कि तुम कुछ कहो, इतनी तो कहते हैं कि मुश्किल है तय करना। हमारी समाधि के सागर में बुद्ध के वचन खो गये। अब हमने सुना, हमने कहा कि उन्होंने कहा, इसकी भेद-रेखा नहीं रही। जब कोई स्वयं ही बुद्ध हो जाता है, तो भेद-रेखा मुश्किल हो जाती है। क्या अपना, क्या बुद्ध का ' अज्ञानियों से पूछो।

 

 

अज्ञानियों ने कहा, हमने सुना तो था, लेकिन समझा नहीं। सुना तो था, लेकिन बात इतनी बड़ी थी कि हम सम्हाल सके। सुना तो था, लेकिन हम से बड़ी थी घटना, हमारी स्मृति में समाई, हम अवाक और चौंके रह गये। घड़ी आई और बीत गई, और हम खाली हाथ के खाली हाथ रहे। तो कुछ हम दोहरा तो सकते हैं, लेकिन हम पक्का नहीं कह सकते कि बुद्ध ने ऐसा ही कहा था। बहुत कुछ छूट गया होगा। और जो हमने समझा था, वही हम कहेंगे। जो उन्होंने कहा था, वह हम कैसे कहेंगे?

 

तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई। अज्ञानी कह नहीं सकते, क्योंकि उन्हें भरोसा नहीं। ज्ञानियों को भरोसा है, लेकिन सीमा-रेखाएं खो गई हैं।

 

 

फिर किसी ने सुझाया, किसी ऐसे आदमी को खोजो जो दोनों के बीच में हो। बुद्ध के साथ बुद्ध का निकटतम शिष्य आनंद चालीस वर्षों तक रहा था। लोगों ने कहा, आनंद को पूछो! क्योंकि तो वह अभी बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ है और वह अज्ञानी है। वह द्वार पर खड़ा है। इस पार संसार, उस पार बुद्धत्व, चौखट पर खड़ा है, देहली पर खड़ा है। और जल्दी करो, अगर वह देहली के पार हो गया, तो उसकी भी सीमा-रेखाएं खो जाएंगी।

 

 

आनंद ने जो दोहराया, वही संगृहीत हुआ। आनंद की बड़ी करुणा है जगत पर। अगर आनंद होता, बुद्ध के वचन खो गये होते। और बुद्ध के वचन खो गये होते, तो बुद्ध का नाम भी खो गया होता।


एस धम्मो सनंतनो 


ओशो 

 

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