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Monday, August 22, 2022

पात-पात डोलती है प्रार्थना सांझ गुनगुनाने लगी



याद घर बुलाने लगी! इन थोड़े-से शब्दों में सारे धर्म का सार है--याद घर बुलाने लगी। जहां हम हैं, वहां हम तृप्त नहीं। जो हम हैं उससे हम तृप्त नहीं। एक बात निश्चित है कि हम अपने घर नहीं, कहीं परदेश में हैं। कहीं अजनबी की भांति भटक गए हैं। कहां जाना है यह भला पता न हो, लेकिन इतना सभी को पता है कि जहां हम हैं, वहां नहीं होना चाहिए।



एक बेचैनी है। कुछ भी करो, कितना ही धन कमाओ, कितनी ही पद-प्रतिष्ठा जुटाओ, कुछ कमी है, जो मिटती नहीं। कोई घाव है, जो भरता नहीं। कोई पुकार है जो भीतर कहे ही चली जाती है: यह भी नहीं, यह भी नहीं; कहीं और चलो। खोजो घर। द्वार-द्वार दरवाजे-दरवाजे दस्तक दिए। न मालूम कितने- कितने जन्मों में, कितने-कितने ढंग से अपने घर को खोजा है।


मगर सारी खोज एक ही बात की है कि कोई ऐसा स्थान हो, जहां तृप्ति हो। कोई ऐसी भावदशा हो, जिसमें कोई वासना न उठती हो।


वासना का अर्थ ही है कि जो हम हैं, उसमें रस नहीं आ रहा, कुछ और होना चाहिए। चाह का अर्थ ही है बेचैनी। चाह उठती ही बेचैनी से। राहत नहीं है। कोई कांटा चुभ रहा है। कोई अतृप्ति सब तरफ से घेरे है। सब मिल जाता है। फिर भी अतृप्ति वैसी की वैसी बनी रहती है--अछूती, अस्पर्शित।


धर्म का जन्म मनुष्य के भीतर इस महत घटना से होता है--बेचैनी की इस घटना से होता है। जैसे परदेश में हैं, जहां न कोई अपनी भाषा समझता, न कोई अपना है। जहां सब संबंध सांयोगिक हैं। जहां सब संबंध मन के मनाये हुए हैं; वास्तविक नहीं हैं। और जहां पानी का धोखा तो बहुत मिलता है, पानी नहीं मिलता--मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता जल का स्रोत, पास आते रेत ही रेत रह जाती है।


इस भटकाव को हम कहते हैं संसार। इस भटकाव में घर की याद आने लगी तो धर्म की शुरुआत हुई।


पानी पर तिरता है आईना
आंख झिलमिलाने लगी


अगर बाहर देख-देखकर ऊब पैदा हो गई हो, देख-देखकर देख लिया हो, कुछ देखने जैसा नहीं है, आंख झपकने लगी हो, भीतर देखने का खयाल उठने लगा हो, आंख बंद करके देखने का भाव जगने लगा हो तो हो गई शुरुआत।
हाथ भर-भरके देख लिए, जब पाया तब राख से भरे पाया। कभी हीरों से भरा लेकिन हीरे राख हो गए। सोने से भरा, सोना मिट्टी हो गया। संबंधों से भरा, तथाकथित प्रेम से भरा और सब अंततः मूल्यहीन सिद्ध हुआ। और अब हाथ को और भरने की आकांक्षा न रही।


पात-पात डोलती है प्रार्थना
सांझ गुनगुनाने लगी।
तो जिस दिन बाहर से आंख हटने लगती है, उसी दिन:
पात-पात डोलती है प्रार्थना
सांझ गुनगुनाने लगी
तो अब घर जाने का समय करीब आ गया।


प्रार्थना, जो बाहर से घर की तरफ लौटने लगे और अभी घर नहीं पहुंचे--बीच का पड़ाव है। जो संसार में हैं उनके हृदय में प्रार्थना नहीं उठती। जो परमात्मा में पहुंच गए, उनको प्रार्थना की जरूरत नहीं रह जाती। प्रार्थना सेतु है बाहर से भीतर आने का; परदेश से स्वदेश आने का; विभाव से स्वभाव में आने का।


जिन  सूत्र 


ओशो 


 

योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो।





तपस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है।


तपस्वियों से श्रेष्ठ कहा योगी को। साधारणतः कठिनाई मालूम पड़ेगी। तपस्वी से योगी श्रेष्ठ? दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है साधारणतः कि तपस्वी श्रेष्ठ मालूम पड़ता है, क्योंकि तपश्चर्या प्रकट चीज है और योग अप्रकट। तपश्चर्या दिखाई पड़ती है और योग दिखाई नहीं पड़ता है। योग है अंतर्साधना, और तपश्चर्या है बहिर्साधना।



अगर कोई व्यक्ति धूप में खड़ा है घनी, भूखा खड़ा है, प्यासा खड़ा है, उपवासा खड़ा है, शरीर को गलाता है, शरीर को सताता है--सबको दिखाई पड़ता है। क्योंकि तपस्वी मूलतः शरीर से बंधा हुआ है। जैसे भोगी शरीर से बंधा होता है; दिखाई पड़ता है उसका इत्र-फुलेल; दिखाई पड़ता है उसके शरीरों की सजावट; दिखाई पड़ते हैं गहने; दिखाई पड़ते हैं महल; दिखाई पड़ता है शरीर का सारा का सारा शृंगार। ऐसे ही तपस्वी का भी सारा का सारा शरीर-विरोध प्रकट दिखाई पड़ता है। लेकिन ओरिएंटेशन एक ही है; दोनों का केंद्र एक ही है--भोगी का भी शरीर है और तथाकथित तपस्वी का भी शरीर है।


हम चूंकि सभी शरीरवादी हैं, इसलिए भोगी भी हमें दिखाई पड़ जाता है और त्यागी भी दिखाई पड़ जाता है। योगी को पहचानना मुश्किल है, क्योंकि योगी शरीर से शुरू नहीं करता। योगी शुरू करता है अंतस से।


योगी की यात्रा भीतरी है, और योगी की यात्रा वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इस अर्थों में है कि योगी साधनों का प्रयोग करता है, जिनसे अंतस चित्त को रूपांतरित किया जा सके।


त्यागी केवल शरीर से लड़ता है शत्रु की भांति। तपस्वी केवल दमन करता हुआ मालूम पड़ता है। लड़ता है शरीर से, क्योंकि ऐसा उसे प्रतीत होता है कि सब वासनाएं शरीर में हैं। अगर स्त्री को देखकर मन मोहित होता है, तो तपस्वी आंख फोड़ लेता है। सोचता है कि शायद आंख में वासना है। और अगर कोई आदमी अपनी आंख फोड़ ले, तो हमें भी लगेगा कि ब्रह्मचर्य की बड़ी साधना में लीन है।



पर आंखों के फूटने से वासना नहीं फूटती है। आंखों के चले जाने से वासना नहीं जाती है। अंधे की भी कामवासना उतनी ही होती है, जितनी गैर-अंधे की होती है। अगर अंधों के पास कामवासना न होती, तो अंधे सौभाग्यशाली थे; पुण्य का फल था उन्हें। जन्मांध जो है, उसकी भी कामवासना होती है; तो आंख फोड़ लेने से कोई कैसे कामवासना से मुक्त हो जाएगा?


लेकिन योगी? योगी आंख नहीं फोड़ता। आंख के पीछे वह जो ध्यान देने वाली शक्ति है, उसे आंख से हटा लेता है।
रास्ते पर गुजरती है एक स्त्री, और मेरी आंखें उससे बंधकर रह जाती हैं। अब दो रास्ते हैं। या तो मैं आंख फोड़ लूं; आंख फोड़ लूं, तो आप सबको दिखाई पड़ेगा कि आंख फोड़ ली गई। या मैं आंख मोड़ लूं; तो भी दिखाई पड़ेगा कि आंख मोड़ ली गई। या मैं भाग खड़ा होऊं और कहूं कि दर्शन न करूंगा, देखूंगा नहीं, तो भी आपको दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन मेरी आंख के पीछे जो ध्यान की ऊर्जा है, अगर मैं उसे आंख से हटा लूं, तो दुनिया में किसी को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मुझे ही दिखाई पड़ेगा।


योग अंतर-रूपांतरण है।


भोगी भोजन खाए चला जाता है; जितना उसका वश है, भोजन किए चला जाता है। त्यागी भोजन छोड़ता चला जाता है। लेकिन योगी क्या करता है? योगी न तो भोजन किए चला जाता है, न भोजन का त्याग करता है; योगी रस का त्याग कर देता है, स्वाद का त्याग कर देता है। जितना जरूरी भोजन है, कर लेता है। जब जरूरी है, कर लेता है। जो आवश्यक है, कर लेता है। लेकिन स्वाद की वह जो लिप्सा है, वह जो विक्षिप्तता है, जो सोचती रहती है दिन-रात, भोजन, भोजन, भोजन, उसे छोड़ देता है।



लेकिन यह दिखाई न पड़ेगा। यह तो योगी ही जानेगा, या जो बहुत निकट होंगे, वे धीरे-धीरे पहचान पाएंगे--योगी कैसे उठता, कैसे बैठता, कैसी भाषा बोलता। लेकिन बहुत मुश्किल से पहचान में आएगा।


तपस्वी दिखाई पड़ जाएगा, क्योंकि तपस्वी का सारा प्रयोग शरीर पर है। योगी का सारा प्रयोग अंतसचेतना पर है।
तप दिखाई पड़ने से क्या प्रयोजन है? तपस्वी को बाजार में खड़ा होने की जरूरत ही क्या है? यह प्रश्न तो अपना और परमात्मा के बीच है; यह मेरे और आपके बीच नहीं है। आप मेरे संबंध में क्या कहते हैं, यह सवाल नहीं है। मैं आपके संबंध में क्या कहता हूं, यह सवाल नहीं है। मेरे संबंध में परमात्मा क्या कहता है, वह सवाल है। मेरे संबंध में मैं क्या जानता हूं, वह सवाल है।


योगी की समस्त साधना, अंतर्साधना है।


गीता दर्शन 

ओशो 

Wednesday, July 20, 2022

दासता ही दुख है

एक संध्या एक पहाड़ी सराय में एक नया अतिथि आकर ठहरा। सूरज ढलने को था, पहाड़ उदास और अंधेरे में छिपने को तैयार हो गए थे। पक्षी अपने निबिड़ में वापस लौट आए थे। तभी उस पहाड़ी सराय में वह नया अतिथि पहुंचा। सराय में पहुंचते ही उसे एक बड़ी मार्मिक और दुख भरी आवाज सुनाई पड़ी। पता नहीं कौन चिल्ला रहा था? पहाड़ की सारी घाटियां उस आवाज से भर गई थी। कोई बहुत जोर से चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।वह अतिथि सोचता हुआ आया, किन प्राणों से यह आवाज उठ रही है? कौन प्यासा है स्वतंत्रता को? कौन गुलामी के बंधनों को तोड़ देना चाहता है? कौन सी आत्मा यह पुकार कर रही? प्रार्थना कर रही?



और जब वह सराय के पास पहुंचा, तो उसे पता चला, यह किसी मनुष्य की आवाज नहीं थी, सराय के द्वार पर लटका हुआ एक तोता स्वतंत्रता की आवाज लगा रहा था।


वह अतिथि भी स्वतंत्रता की खोज में जीवन भर भटका था। उसके मन को भी उस तोते की आवाज ने छू लिया।


रात जब वह सोया, तो उसने सोचा, क्यों न मैं इस तोते के पिंजड़े को खोल दूं, ताकि यह मुक्त हो जाए। ताकि इसकी प्रार्थना पूरी हो जाए। अतिथि उठा, सराय का मालिक सो चुका था, पूरी सराय सो गई थी। तोता भी निद्रा में था, उसने तोते के पिंजड़े का द्वार खोला, पिंजड़े के द्वार खोलते ही तोते की नींद खुल गई, उसने जोर से सींकचों को पकड़ लिया और फिर चिल्लाने लगा--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।


वह अतिथि हैरान हुआ। द्वार खुला है, तोता उड़ सकता था, लेकिन उसने तो सींकचे को पकड़ रखा था। उड़ने की बात दूर, वह शायद द्वार खुला देख कर घबड़ा आया, कहीं मालिक न जाग जाए। उस अतिथि ने अपने हाथ को भीतर डाल कर तोते को जबरदस्ती बाहर निकाला। तोते ने उसके हाथ पर चोटें भी कर दीं। लेकिन अतिथि ने उस तोते को बाहर निकाल कर उड़ा दिया।


निश्चिंत होकर वह मेहमान सो गया उस रात। और अत्यंत आनंद से भरा हुआ। एक आत्मा को उसने मुक्ति दी थी। एक प्राण स्वतंत्र हुआ था। किसी की प्रार्थना पूरी करने में वह सहयोगी बना। वह रात सोया और सुबह जब उसकी नींद खुली, उसे फिर आवाज सुनाई पड़ी, तोता चिल्ला रहा था--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।


वह बाहर आया, देखा, तोता वापस अपने पिंजड़े में बैठा हुआ है। द्वार खुला है और तोता चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। वह अतिथि बहुत हैरान हुआ। उसने सराय के मालिक को जाकर पूछा, यह तोता पागल है क्या? रात मैंने इसे मुक्त कर दिया था, यह अपने आप पिंजड़े में वापस आ गया है और फिर भी चिल्ला रहा, स्वतंत्रता?



सराय का मालिक पूछने लगा, उसने कहा, तुम भी भूल में पड़ गए। इस सराय में जितने मेहमान ठहरते हैं, सभी इसी भूल में पड़ जाते हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी आकांक्षा नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी प्रार्थना नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं, यांत्रिक शब्द हैं। तोता स्वतंत्रता नहीं चाहता, केवल मैंने सिखाया है वही चिल्ला रहा है। तोता इसीलिए वापस लौट आता है। हर रात यही होता है, कोई अतिथि दया खाकर तोते को मुक्त कर देता है। लेकिन सुबह तोता वापस लौट आता है।


मैंने यह घटना सुनी थी। और मैं हैरान होकर सोचने लगा, क्या हम सारे मनुष्यों की भी स्थिति यही नहीं है? क्या हम सब भी जीवन भर नहीं चिल्लाते हैं--मोक्ष चाहिए, स्वतंत्रता चाहिए, सत्य चाहिए, आत्मा चाहिए, परमात्मा चाहिए? लेकिन मैं देखता हूं कि हम चिल्लाते तो जरूर हैं, लेकिन हम उन्हें सींकचों को पकड़े हुए बैठे रहते हैं जो हमारे बंधन हैं। हम चिल्लाते हैं, मुक्ति चाहिए, और हम उन्हीं बंधनों की पूजा करते रहते हैं जो हमारा पिंजड़ा बन गया, हमारा कारागृह बन गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह मुक्ति की प्रार्थना भी सिखाई गई प्रार्थना हो, यह हमारे प्राणों की आवाज न हो? अन्यथा कितने लोग स्वतंत्र होने की बातें करते हैं, मुक्त होने की, मोक्ष पाने की, प्रभु को पाने की। लेकिन कोई पाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। और रोज सुबह मैं देखता हूं, लोग अपने पिंजड़ों में वापस बैठे हैं, रोज अपने सींकचों में, अपने कारागृह में बंद हैं। और फिर निरंतर उनकी वही आकांक्षा बनी रहती है।


सारी मनुष्य-जाति का इतिहास यही है। आदमी शायद व्यर्थ ही मांग करता है स्वतंत्रता की। शायद सीखे हुए शब्द हैं। शास्त्रों से, परंपराओं से, हजारों वर्ष के प्रभाव से सीखे हुए शब्द हैं। हम सच में स्वतंत्रता चाहते हैं? और स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपनी चेतना को स्वतंत्र करने में समर्थ नहीं हो पाता, उसके जीवन में आनंद की कोई झलक कभी उपलब्ध नहीं हो सकेगी। स्वतंत्र हुए बिना आनंद का कोई मार्ग नहीं है।


दासता ही दुख है। यह जो स्प्रिचुअल स्लेवरी है, यह जो हमारी मानसिक गुलामी है, वही हमारा दुख, वही हमारी पीड़ा, वही हमारे जीवन का संकट है। शायद हम सबके मन में उससे मुक्त होने का खयाल भी पल रहा हो। लेकिन हमें पता नहीं कि जिन बातों को हम पकड़े हुए बैठे रहते हैं वे ही हमारे बंधन को पुष्ट करने वाली बातें हैं। उन थोड़े से बंधनों पर मैं चर्चा करूंगा। और उन्हें तोड़ने के संबंध में भी। ताकि मनुष्य की आत्मा मुक्ति का कोई मार्ग खोज सके।


आनंद की खोज

ओशो 

अर्धनारीश्वर


अगर किसी व्यक्ति की जीवन-चेतना में तुम गौर से देखने की कला समझ जाओ, तो तुम देख सकते हो कि पिता और मां--कैसे अलग-अलग रंगों की दो धाराएं बह रही हैं। स्त्री है उसके भीतर, पुरुष है उसके भीतर। और वह जो भीतर छिपी स्त्री हैं पुरुष के भीतर, वही तो पुरुष का आकर्षण है बाहर की स्त्री में। भीतर का तो उसे पता नहीं है। एक पुकार है, एक प्यास है, एक तड़फन है। और भीतर का उसे पता नहीं है, भीतर जाने का भी उसे कुछ पता नहीं है, भीतर जैसी कोई चीज है, इसका भी उसे पता नहीं है। वह अपने घर के पोर्च के ही पास खड़ा जी रहा है। उसे घर भीतर क्या है, उसका पता भी नहीं है। द्वार इतने दिन से बंद हैं, कि दीवाल जैसा लगता है। पोर्च को ही घर समझ लिया। वहीं जीता है। और नजर उसकी सड़क पर लगी है। क्योंकि आंख बाहर ही देख रही है। भीतर देखने को तुम्हें कुछ अंदाज ही नहीं है। 


वह भीतर देखना ही तो ध्यान है। वह महुआ तुम्हें अभी मिला नहीं।



तो भीतर एक नारी है पुरुष के; वही आकर्षण है बाहर की नारी में। और भीतर एक पुरुष है नारी में, वही आकर्षण है बाहर के पुरुष में। इसलिए बड़ी अड़चन भी है। आकर्षण भी; अड़चन भी, उपद्रव भी।



क्योंकि जब तक तुम्हें तुम्हारी भीतर की नारी जैसी नारी बाहर न मिल जाए, तब तक तृप्ति न होगी। क्योंकि उसे तुम खोज रहे हो। और यह असंभव है। करीब-करीब असंभव है। अगर कुछ प्रतिशत भी बाहर की नारी मिल जाए तो भी तृप्ति मालूम होगी, लेकिन पूरा मिल जाना तो असंभव है। इसीलिए सुंदरतम जोड़े भी, पूर्णतम जोड़े भी अपूर्ण रह जाते हैं। कुछ कमी रह जाती है।


जिसकी खोज है, वह भीतर छिपी है। उसे तुम बाहर खोज रहे हो। थोड़ा-बहुत तालमेल बैठ जाए तो काफी है। इसलिए सौ में निन्यानबे विवाह असफल होते हैं। वे सफल हो ही नहीं सकते। उनकी बुनियाद में ही सफलता संभव नहीं है।


कैसे खोजोगे उस नारी को?



तुम एक प्रतिमा लिए हो भीतर, उसकी ही तलाश है। किसी स्त्री में वह झलक मिल जाती है किसी दिन; तुम प्रेम में पड़ जाते हो। जिसको तुम प्रेम में पड़ना कहते हो वह कुछ और नहीं है, तुम्हारी भीतर की नारी की झलक तुमने किसी स्त्री में देख ली है। कोई स्त्री तुम्हारे लिए दर्पण बन गई और तुमने अपनी भीतर की नारी का थोड़ा सा प्रतिबिंब उसमें पा लिया, थोड़ी छवि पकड़ ली। तुम प्रेम में पड़ गए।



अब तुम पागल हो गए कि जब तक यह स्त्री नहीं मिलेगी, शांति नहीं। यह तुम्हें मिल भी जाएगी; लेकिन थोड़े ही दिन शांति और सुख रहेगा। क्योंकि जैसे-जैसे तुम इसे ज्यादा पहचानोगे, वैसे-वैसे पाओगे, तुम्हारी भीतर की नारी से मेल खाता नहीं। फर्क है। रोज-रोज फर्क बड़ा होता जाएगा। जैसी पहचान बढ़ेगी, वैसे-वैसे फर्क बड़ा होता जाएगा। दूर से लगता था जो, वह पास से आकर ठीक नहीं पाया जाएगा। जितनी निकटता होगी, उतनी दूरी बढ़ जाएगी और इसलिए स्त्री और पुरुष के संबंध बड़े ही दुखद हैं--होंगे ही। कामचलाऊ हो सकते हैं।


तंत्र की यह बड़ी पुरानी खोज है। जुंग ने तो इस सदी में पश्चिम में यह कहा; लेकिन तंत्र की यह सदियों पुरानी खोज है; हजारों वर्ष पुरानी खोज है। हमने शिव की मूर्ति बनाई है अर्धनारीश्वर। आधे शिव पुरुष हैं और आधे स्त्री हैं। वह हमारी खोज है। उस मूर्ति में हमने कह दिया मनुष्य का यह सत्य।


और जब तक तुम्हारे भीतर की नारी तुम्हारे भीतर के पुरुष से मिल न जाए, आलिंगनबद्ध न हो जाए--उसको तंत्र कहता है, "युगनद्ध"; जब तुम अपने भीतर अपने द्वैत को मिला न लो, भीतर संभोग घटित न हो जाए, तब तक तुम अतृप्त रहोगे।


कहै कबीर दीवाना


ओशो 

Tuesday, April 5, 2022

भगवान, क्या हम आपकी बातों को कभी भी नहीं समझेंगे, या कि वह सौभाग्य का दिन भी कभी आएगा?


धर्म कृष्ण ,



सब तुम पर निर्भर है। मैं तो अपनी तरफ से पूरी चेष्टा  कर रहा हूं। जितनी तुम्हारी ठोंक-पीट कर सकता हूं, करता हूं। तुम्हारे सिर पर जितने डंडे बरसा सकता हूं, बरसाता हूं। डंडे तुम्हें नहीं समझ में आते तो हथौड़े से भी चोट करता हूं। जैसा मरीज देखता हूं: सुनार से मान गये तो सुनार और लुहार से माने तो लुहार हो जाता हूं। हथौड़ी तो हथौड़ी, हथौड़ा तो हथौड़ा-जो भी जरूरत हो। मैं फिर इसकी फिक्र नहीं करता।




लेकिन कुछ ऐसे लोग हैं, जो इस तरह बंद हैं, इस तरह बंद हैं कि उनमें से रंघ्र खोजनी मुष्किल है। उनमें भीतर प्रवेश  करना मुश्किल है।



मुल्ला नसरूद्दीन ने डाॅक्टर को फोन किया आधी रात, कि पत्नी को बहुत जोर से पेट में दर्द हो रहा है, लगता है बच्चा पैदा होने का क्षण आ गया, आप इसी वक्त आ जाएं। आधी रात, वर्षा, आंधी! डाॅक्टर बेचारा उठा किसी तरह, गाड़ी स्टार्ट न हो, बमुश्किल धक्का दे-दाकर गाड़ी स्टार्ट हुई, किसी तरह पंहुचा। जाकर अंदर पहुंचा, एक पांच मिनट बाद उसने खिड़की के बाहर मुंह झांका और नसरूद्दीन से कहा: ‘नसरूद्दीन, हथौड़ा है?’



नसरूद्दीन थोड़ा डरा-हथौड़ा! हथौड़ा लाया निकाल कर। एक-दो मिनिट बाद फिर खटर पटर की आवाज अंदर से आती रही। नसरूद्दीन थोड़ा डरा भी कि हथौड़े का क्या कर रहा है यह! आदमी होश में है, नशा वशा  तो नहीं किए हुए है? यह डाॅक्टर है कि विटनरी डाॅक्टर है, क्या है मामला? फिर दो मिनिट बाद वह डाॅक्टर बाहर आया और नसरूद्दीन से कहा कि ऐसा करो भाई.....आरी तो नहीं हैं?



नसरूद्दीन फिर भी कुछ नहीं बोला, आरी लेकर दे दी। वह तो दो मिनिट बाद फिर डाॅक्टर बाहर आ गया और कहने लगा: ‘एक बड़ी चट्टान हो तो उठा लाओ।’



नसरूद्दीन ने कहा: ‘बहुत हो गया डाॅक्टर साहब! माजंरा क्या है? मेरी पत्नी को तकलीफ क्या है?’



डाॅक्टर ने कहा: ‘तुम्हारी पत्नी से सवाल ही अभी कहां उठती है! अभी मेरी पेटी ही नहीं खूल रही। पहले मेरी पेटी तो खुले, फिर तुम्हारी पत्नी की जांच-परख करूं।’



तो कई की पेटी ऐसी बंद है कि खुलती ही नहीं। हथौड़ा बुलाओ, आरी बुलाओ चट्टान लाओ........अब आखिर में उसने कहा कि चट्टान पटक कर पेटी को तोड़ ही डालो, क्योंकि पत्नी मरी जा रही है, चिल्ला रही है, चीख पुकार मचा रही है। और नसरूद्दीन उसकी चीख-पुकार सुन रहा है, और खटर-पटर की आवाज सुन रहा है। उसको लग रहा है कि डाॅक्टर कर क्या रहा है! हथौड़े मार रहा है मेरी पत्नी को, आरी चला रहा है उसके पेट पर या क्या कर रहा है? यह किस तरह का आपरेषन हो रहा है?



यहां मोहल्ले-पड़ोस के लोंगो को यही डर लगा रहता है, क्योंकि यहां से आवाजें उठती हैं आश्रम से एक-एक तरह की। किसी पर आरी चलायी जा रही हैं, किसी पर हथौड़ा मारा जा रहा है। और यहां सिर्फ पेटी नहीं खुल रही! पहले पेटी तो खुले, फिर आगे कुछ दूसरा काम हो। पेटी तुम ऐसी बंद किए बैठे हो सदियों से, जन्मों-जन्मों से, चौरासी करोड़ योनियों से, पेटी को ऐसा बंद किया, ऐसी जंग खा गयी कि उसको खोलना मुश्किल हो रहा है। और ताले भी इतने पुराने हैं कि अब उनकी चाबी मिलना मुष्किल है।



मेरी तरफ से तो पूरी कोशिश करता हूं, धर्म कृष्ण। तुम कहते हो: ‘क्या हम आपकी बातों को कभी नहीं समझेंगे, या कि वह सौभाग्य का दिन भी कभी आएगा?’



टिके रहे तो आएगा। आना ही पडेगा। आखिर कब तक? पेटी ही है, तोड़ ही लेंगे। खून-पसीना एक कर देंगे, मगर तोडेंगे। रोज सुबह से लग जाता हूं तोड़ने में। सब तरह के उपाय यहां किए हैं तोड़ने के। तुमसे भी उपाय करवाता हूं कि तुम भीतर से तोड़ो, मैं बाहर से तोड़ता हूं।


मगर देर तो लगने वाली है, क्योंकि समझ.....मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ समझोगे। वह स्वभाविक है।


मुल्ला नसरूद्दीन बहुत दिनों से गुलजान के पिता से मिलने की सोच रहा था, मगर हिम्मत न जुटा पाता था। लेकिन जब बहुत दिन हो गये तो एक दिन हिम्मत करके पहुंच ही गया और गुलजान के पिता से बोला कि मैं आपकी बेटी से निकाह करना चाहता हूं। पिता ने मुल्ला नसरूद्दीन को ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा: ‘मगर क्या तुम गुलजान की मम्मी से भी मिले या नहीं?’


‘जी’- नसरूद्दीन ने कहा-‘उनसे भी मिला, मगर मुझे गुलजान ही ज्यादा पसंद आयी।’



अब मैं क्या कहूंगा और तुम क्यो समझोगे, इसमें भेद तो होने वाला ही है।



गुलजान भागती हुई आयी और नसरूद्दीन से बोली कि जल्दी से कुछ करो, मुन्ने ने दस पैसे का सिक्का निगल लिया है। मुल्ला नसरूद्दीन बोला: ‘तो निगल भी लेने दो! आखिर दस पैसे में अब आता ही क्या है? निकाल कर भी क्या करेंगे?’



ऐसे ही एक दिन उसने डाॅक्टर को फोन किया कि मेरा लड़का मेरा फाउन्टेन पेन निगल गया है, तो मैं क्या करूं? तो डाॅक्टर ने कहा कि मैं आता हूं।आधा घंटा तो लग ही जाएगा।


तो मुल्ला ने कहा: ‘लेकिन आधा घंटा मै क्या करूं?’


तो डाॅक्टर ने कहा: ‘अब आधा घंटा तुम क्या करो! अरे तब तक पेंसिल से लिखो, और क्या करोगे? बालप्वाइंट हो तो उससे लिखों।’



प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समझ तो चलेगी। सुनोगे तुम मुझे, समझोगे तो तुम अपनी।


मुल्ला नसरूद्दीन घबड़ाते हुए बोला: ‘सुनती हो फजलू की अम्मा, भूल से फजलू का कम्बल मेरे हाथ से बालकनी से नीचे गिर गया है!’


पत्नी बोली मुल्ला से: ‘हाय, अब फजलू को सर्दी लग गयी तो?’


मुल्ला बोला: ‘घबड़ाओ नहीं, फजलू को सर्दी कभी नहीं लग सकती। फजलू भी कम्बल में लिपटा हुआ है।’


मुल्ला नसरूद्दीन एक रात अपनी पत्नी से कह रह था: ‘फजलू की मां, जेल में रहने से कई फायदे हैं। एक तो बड़ा फायदा है।’


पत्नी ने कहा: ‘क्या उल्टी सीधी बातें बकतें हो! जेल में रहने से फायदा! क्या फायदा है जी?’



मुल्ला बोला: ‘यही कि वहां कोई कम्बख्त आधी रात को जाकर यह नहीं कहता कि जाकर देख आओ, पिछवाड़े वाला दरवाजा बंद है कि खुल्ला है?’



नसरूद्दीन ने अपने व्याख्यान के बाद लोंगो से कहा कि मित्रो, यदि किसी को कुछ पूछना हो तो कृपया एक कागज पर लिख कर पूछ लें। सिर्फ एक ही कागज आया, जिस पर सिर्फ इतना ही लिखा हुआ था: गधा!



नसरूद्दीन बोला: ‘मित्रो, किसी सज्जन ने अपना नाम तो लिख कर भेज दिया है, लेकिन प्रश्न नहीं पूछा।’



धर्मकृष्ण , मैं कोशिश करता रहूंगा। तुम भी कोशिश करते रहो। बनते-बनते शायद  बात बन जाए। और न भी बनी तो हर्ज क्या? अनंत काल पड़ा है, अगले जन्म में किसी और बुद्ध को सताना। तुम यही काम करते रहे पहले से। न मालूम किन किन बुद्धों को तुमने सताया होगा! आखिर बुद्धों को भी तो काम चाहिए न! नहीं तो वे किसको मुक्त करेंगे?



तो कुछ लोग तो टिके ही रहो। लाख समझाऊं, समझ में भी आ जाए, मत समझना। क्योंकि आगेवाले बुद्धों का भी ख्याल रखना आवश्यक  है।

उड़ियो पंख पसार

ओशो 

एक प्रश्न पूछा है कि हम शांत कैसे हो जाएं? आप कहते हैं, शांति द्वार है; आप कहते हैं, शून्य द्वार है, तो हम शांत कैसे हो जाएं? शून्य कैसे हो जाएं? निर्विकल्प दशा को कैसे उपलब्ध हो जाएं?



बहुत सरल है निर्विकल्प दशा को उपलब्ध करना। अत्यंत सरल, उससे सरल कोई बात ही नहीं है। लेकिन ये जो तीन बातें मैंने पहली कहीं, ये बड़ी कठिन हैं। और इन तीन को जो नहीं कर पाता वह उस अत्यंत सरल बात को भी नहीं कर पाता। वह चौथी सीढ़ी है। इन तीन को पार करके ही उसे पार किया जा सकता है। वह तो बहुत सरल है। कठिनाई है इन तीन बातों की--विश्वास को, अनुकरण को, आदर्श को त्यागने में बड़ी कठिन, बड़ा आर्डुअस, बड़ा श्रम है। लेकिन चौथी बात बहुत सरल है। जो इन तीन बातों को कर ले, चौथी बात करनी ही नहीं पड़ती, बड़ी सरलता से हो जाती है। उस सूत्र के संबंध में अंत में थोड़ी सी बात आपको समझाऊं। लेकिन इन तीन को किए बिना वह नहीं हो सकेगा।



जैसे कोई हमसे पूछे कि हम फूल कैसे पैदा करें? मैं कहूंगा, फूल पैदा करना बड़ी सरल बात है। फूल पैदा करने में कुछ करना ही नहीं पड़ता। लेकिन बीज लगाने में बड़ी मदद करनी पड़ती है। पानी सींचने में, खाद डालने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। पौधे की सम्हाल करने में, बागुड़ लगाने में बहुत श्रम उठाना पड़ता है। फिर जब सब सम्हल जाती है बात, बीज अंकुर बन जाता, खाद मिल जाती, पानी मिल जाता, चारों तरफ सुरक्षा हो जाती है पौधे की, तो फूल तो अपने आप आ जाते हैं, फूल का आना कोई कठिन है? कुछ भी करना पड़ता है फूल को लाने में? फूल तो अपने आप आटोमेटिक, पौधा सम्हल जाए, फूल आ जाते हैं। लेकिन आप कहें कि पौधे की तो बाकी बातचीत छोड़िए, हमको तो सिर्फ फूल लाना है, तब मामला बहुत कठिन हो जाता है। आप कहें कि यह तो सब ठीक है, विश्वास हमें करने दो, आदर्श हमें मानने दो, अनुकरण हमें करने दो, जैन, हिंदू, मुसलमान हमें बना रहने दो, बाकी चित्त शांत करने का, शून्य करने का कोई रास्ता हो तो बता दें। तो आप ऐसी बात कर रहे हैं कि पौधा तो हम लगाएंगे नहीं, बीज हम डालेंगे नहीं, पानी हम सींचेंगे नहीं, यह तो छोड़ो, ये बातें छोड़ दो, हमें दो इतना बता दो कि फूल कैसे आते हैं? फिर फूल नहीं आते।



चित्त की निर्विकल्प दशा, शून्य दशा, ध्यान दशा बहुत सरल है। लेकिन सीढ़ियां जो उस तक पहुंचाती हैं वे बड़ी कठिन मालूम होती हैं। और वे भी कठिन इसलिए नहीं हैं कि वे कठिन हैं, आप में साहस नहीं है जरा सा भी, इसलिए वे कठिन हो गई हैं। साहस हो, एक क्षण की देर नहीं है।



मैं एक नगर में था। उस नगर के कलेक्टर ने मुझे फोन किया और कहा कि मैं अपनी मां को भी चाहता हूं कि आपके सुनने के लिए लाऊं, लेकिन मेरी मां की उम्र नब्बे के करीब पहुंच गई, और आपकी बातों से मैं परिचित हूं, तो मैं डरता हूं कि इस बुढ़िया को लाना कि नहीं लाना? क्योंकि वह तो चौबीस घंटे माला जपती रहती है, राम-राम जपती रहती है। सोती है तो भी हाथ में माला लिए ही सोती है। तीस वर्ष से यह क्रम चलता है, तो मैं डरता हूं इस बुढ़ापे में आपकी बातें सुन कर कहीं उसको आघात और चोट न लग जाए, कहीं वह विचलित न हो जाए व्यर्थ ही और अशांत न हो जाए, तो मैं लाऊं या न लाऊं? उसकी उम्र नब्बे वर्ष।



मैंने उनसे कहा, अगर उम्र कुछ कम होती तो मैं कहता, दुबारा आऊंगा तब ले आना। उम्र नब्बे वर्ष है इसलिए ले ही आना, क्योंकि दुबारा मिलना हो सके इसका कोई पक्का भरोसा नहीं।



वे अपनी मां को लेकर आए। मैंने देखा उनकी मां माला लिए ही आई हुई थी। हाथ में माला वह चलती ही रहती है। बात सुनने के बाद वे चले गए, दूसरे दिन आए और मुझसे कहने लगे, मैं बहुत हैरान हो गया हूं। आपने तो ऐसी बातें कहीं कि मुझे लगा कि जैसे मेरी मां को जान कर ही आप कह रहे हैं। मुझे लगा मुझसे गलती हो गई जो मैं आपको बता कर अपनी मां को लाया। आप तो जैसे मेरी मां को ही सारी बातें कह रहे हों, ऐसा मुझे लगने लगा। और मैं बहुत डरा हुआ रहा। लौटते में कार में मैंने अपनी मां को पूछा कि तुम्हें चोट तो नहीं लगी, कुछ बुरा तो नहीं लगा? मेरी मां कहने लगी, बुरा? चोट? उन्होंने कहा, माला से कुछ भी नहीं होगा, मुझे बात बिलकुल ठीक लगी, तीस साल का मेरा अनुभव भी कहता है कि कुछ भी नहीं हुआ, मैं माला वहीं छोड़ आई।



इतना साहस। तो मैंने उनसे कहा, तुम्हारी मां तुमसे ज्यादा जवान है। साहस व्यक्ति को युवा बनाता है। छोड़ने का हममें जरा भी साहस नहीं है। इसलिए हम अटके खड़े रह जाते हैं। और व्यर्थ बातें भी छोड़ने का साहस नहीं है, तब तो बहुत कठिनाई हो जाती है।



शून्यता पा लेनी बहुत सरल है, साहस चाहिए।


अंतर की खोज 


ओशो

जगत अनित्य है।




अनित्य का अर्थ होता है, जो है भी और प्रतिक्षण नहीं भी होता रहता है। अनित्य का अर्थ नहीं होता कि जो नहीं है। जगत है, भलीभांति है। उसके होने में कोई संदेह नहीं है। क्योंकि यदि वह न हो, तो उसके मोह में, उसके भ्रम में भी पड़ जाने की कोई संभावना नहीं। और अगर वह न हो, तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं।



जगत है। उसका होना वास्तविक है। लेकिन जगत नित्य नहीं है, अनित्य है। अनित्य का अर्थ है, प्रतिपल बदल जाने वाला है। अभी जो था, क्षणभर बाद वही नहीं होगा। क्षणभर भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है।



इसलिए बुद्ध ने कहा है : जगत क्षण सत्य है। बस, क्षणभर ही सत्य रह पाता है। हेराक्लतु ने यूनान में कहा है, यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन द सेम रिवर, एक ही नदी में दो बार उतरना संभव नहीं है। नदी बही जा रही है। ठीक ऐसे ही कहा जा सकता है, यू कैन नाट लुक ट्वाइस द सेम वर्ल्ड, एक ही जगत को दोबारा नहीं देखा जा सकता। इधर पलक झपकी नहीं कि जगत दूसरा हुआ जा रहा है।



इसलिए बुद्ध ने तो बहुत अदभुत बात कही है। बुद्ध ने कहा कि है शब्द गलत है। है का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। सभी चीजें हो रही हैं। है की अवस्था में तो कोई भी नहीं है। जब हम कहते हैं, यह व्यक्ति जवान है, तो है का बड़ा गलत प्रयोग हो रहा है। बुद्ध कहते थे, यह व्यक्ति जवान हो रहा है। गति है, प्रोसेस है। स्थिति कहीं भी नहीं है। एक आदमी को हम कहते हैं, यह का है। कहने से ऐसा लगता है कि का होना कोई स्थिति है, जो ठहर गई है, स्टेगनेंट है। नहीं, बुद्ध कहते थे, यह आदमी का हो रहा है। है की कोई अवस्था ही नहीं होती। सब अवस्थाएं होने की हैं।



पहली बार जब बाइबिल का अनुवाद बर्मी भाषा में किया जा रहा था, तो बहुत कठिनाई हुई। क्योंकि बर्मी भाषा बर्मा में बौद्ध धर्म के पहुंचने के बाद धीरे—धीरे विकसित हुई है, तो बौद्ध चिंतन की जो आधारशिलाएं हैं, वे बर्मी भाषा में प्रवेश कर गईं। तो बर्मी भाषा में 'है' शब्द के लिए कोई ठीक—ठीक शब्द नहीं है। जो भी शब्द हैं, उनका मतलब होता है, हो रहा है। अगर कहें नदी है, तो बर्मी भाषा में उसका जो रूपांतरण होगा, वह होगा कि नदी हो रही है। और सब तो ठीक था, लेकिन बाइबिल के अनुवाद करने में ईश्वर का क्या करें? गॉड इज, ईश्वर है। बर्मी भाषा में करें, तो उसका हो जाता है कि ईश्वर हो रहा है। बड़ी अड़चन थी।



और बुद्ध कहते थे, कुछ भी नहीं है, सब हो रहा है। और ठीक कहते थे। यह वृक्ष आप देखते हैं; हम कहेंगे, वृक्ष है। जब तक आप कह रहे हैं, तब तक वृक्ष हो गया कुछ और। एक नई कोंपल निकल आई होगी। एक पुरानी कोंपल और पुरानी पड़ गई होगी। एक फूल थोड़ा और खिल गया होगा। एक गिरता फूल गिर गया होगा। जड़ों ने नए पानी की बूंदें सोख ली होंगी, पत्तों ने सूरज की नई किरणें पी ली होंगी। जब आप कहते हैं, वृक्ष है, जितनी देर आपको कहने में लगती है, उतनी देर में वृक्ष कुछ और हो गया। है जैसी कोई अवस्था जगत में नहीं है। सब हो रहा है—जस्ट ए प्रोसेस।



उपनिषद यही कह रहे हैं।



उपनिषद का ऋषि कह रहा है, जगत अनित्य है



नित्य कहते हैं उसे, जो है, सदा है। जिसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं, जिसमें कोई रूपांतरण नहीं होता। जो वैसा ही है, जैसा सदा था और वैसा ही रहेगा।




निश्चित ही, जगत ऐसा नहीं है। जगत है अनित्य। लगता है कि है, और बदला जा रहा है, भागा जा रहा है। जगत एक दौड़ है—एक गत्यात्मकता, एक क्षणभंगुरता। लेकिन भ्रांति बहुत पैदा होती है। भ्रांति बहुत पैदा होती है, सभी चीजें लगती हैं, है। शरीर लगता है, है। वह भी एक धारा है, प्रवाह है।



अगर वैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है, सात साल में आपके शरीर में एक टुकड़ा भी नहीं बचता वही जो सात साल पहले था। सात साल में सब बह जाता है, शरीर नया हो जाता है। जो आदमी सत्तर साल जीता है, वह दस बार अपने पूरे शरीर को बदल लेता है। एक—एक सेल बदलता जाता है —प्रतिपल।



आप सोचते हैं कि आप एक दफा मरते हैं, आपका शरीर हजार दफे मर चुका होता है। एक—एक शरीर का कोष्ठ मर रहा है, निकल रहा है शरीर के बाहर। भोजन से रोज नए कोष्ठ निर्मित हो रहे हैं। पुराने कोष्ठ बाहर फेंके जा रहे हैं—मल के द्वारा, और—और मार्गों से शरीर अपने मरे हुए कोष्ठों को बाहर फेंक रहा है।



आपने खयाल नहीं किया होगा, नाखून काटते हैं, दर्द नहीं होता; बाल काटते हैं, दर्द नहीं होता। आपने खयाल नहीं किया होगा कि ये डेड पार्ट्स हैं, इसलिए दर्द नहीं होता। अगर ये शरीर के हिस्से होते, तो काटने से तकलीफ होती। ये मरे हुए हिस्से हैं।




शरीर के भीतर जो कोष्ठ मर गए हैं, उनको फेंका जा रहा है बाहर—बालों के द्वारा, नाखूनों के द्वारा, मल के द्वारा, पसीने के द्वारा। प्रतिपल शरीर अपने मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंक रहा है और भोजन के द्वारा नए हिस्सों को जीवन दे रहा है। शरीर एक सरिता है, लेकिन भ्रम तो यह पैदा होता है कि शरीर है।



आज से तीन सौ साल पहले तक पता भी नहीं था कि शरीर के भीतर खून गति करता है। तीन सौ साल पहले तक खयाल था कि शरीर के भीतर खून भरा हुआ है। क्योंकि शरीर के भीतर जो खून की गति है, उसका हमें पता तो चलता ही नहीं। और शरीर में खून नदी की तेज धार की तरह चल रहा है। जो आपके पैर में था, वह क्षणभर बाद आपके सिर में पहुंच जाता है। तीव्र परिभ्रमण चल रहा है खून का। उस परिभ्रमण का भी उपयोग यही है कि वह आपके मरे हुए सेल्स को शरीर के बाहर निकालने के लिए स्रोत का काम करता है, धारा का काम करता है। वह मरे हुए हिस्सों को बाहर फेंकने की कोशिश में लगा रहता है।



इस जगत में भ्रांति भर पैदा होती है कि चीजें हैं। इस जगत में कोई चीज क्षणभर भी वही नहीं है, जो थी। सब बदला चला जा रहा है। इस परिवर्तन को ऋषि ने कहा है, अनित्यता।



इस अनित्यता को कहने का कारण है, क्योंकि अगर हमें यह स्मरण आ जाए कि जगत का स्वभाव ही अनित्य है, तो हम जगत में कोई भी ठहरा हुआ मोह निर्मित न करें। अगर जगत का स्वभाव ही अनित्य है, अगर सब चीजें बदल ही जाती हैं, तो हम आग्रह छोड़ देंगे चीजों को ठहराए रखने का। जवान फिर यह आग्रह न करेगा कि मैं जवान ही बना रहूं, क्योंकि यह असंभव है। यह हो ही नहीं सकता। असल में जवानी सिर्फ के होने की तरफ एक रास्ता है, और कुछ नहीं। जवानी सिर्फ बूढ़े होने की कोशिश है, और कुछ भी नहीं। जवानी बुढ़ापे के विपरीत नहीं, उसी की धारा का अंग है। दो कदम पहले की धारा है, बुढ़ापा दो कदम बाद की। उसी सरिता में जवानी का घाट भी आता है, उसी सरिता में बुढ़ापे का घाट भी आ जाता है।




अगर हमें यह खयाल में आ जाए कि इस जगत में सभी चीजें प्रतिपल मर रही हैं, तो हम जीने का जो आग्रह है पागल, वह भी छोड़ दें। क्योंकि जिसे हम जन्म कहते हैं, वह मृत्यु का पहला कदम है। असल में जिसे मरना नहीं है, उसे जन्मना नहीं चाहिए। उसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। जन्मे, कि मरेंगे। जन्मे, उसी दिन मरने की यात्रा शुरू हो गई। द फस्ट स्टेप हैज बीन टेकन। जन्म मृत्यु का पहला कदम है, मृत्यु जन्म का आखिरी कदम है। अगर इसे प्रवाह की तरह देखेंगे, तो कठिनाई न होगी। अगर स्थितियों की तरह देखेंगे, तो जन्म अलग है, मौत अलग है। जवानी अलग है, बुढ़ापा अलग है।



लेकिन ऋषि कहता है, जगत एक अनित्य प्रवाह है। यहां जन्म भी मृत्यु से जुड़ा है और जवानी भी बुढ़ापे से जुडी है। यहां सुख दुख से जुड़ा है। यहां प्रेम घृणा से जुड़ा है। यहां मित्रता शत्रुता से जुड़ी है। और जो भी चाहता है कि चीजों को ठहरा लूं वह दुख और पीड़ा में पड़ जाता है।



आदमी की चिंता यही है कि जहा कुछ भी नहीं ठहरता, वहां वह ठहराने का आग्रह करता है। अगर मुझे यश है, तो मैं सोचता हूं मेरा यश ठहर जाए। अगर मेरे पास धन है, तो मैं सोचता हूं मेरे पास धन ठहर जाए। अगर मेरे पास जो भी है, मैं चाहता हूं वह ठहर जाए। अगर मुझे कोई प्रेम करता है, तो मैं चाहता हूं यह प्रेम चिर हो जाए। सभी प्रेमी की यही आकांक्षा है कि प्रेम शाश्वत हो जाए। इसलिए सभी प्रेमी दुख में पड़ते हैं। क्योंकि इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं हो सकता, प्रेम भी नहीं।



यहां सभी बदल जाता है। जगत का स्वभाव बदलाहट है। इसलिए जिसने भी चाहा कि कोई चीज ठहर जाए वह दुख में पड़ेगा। क्योंकि हमारी चाह से जगत नहीं चलता। जगत का अपना नियम है। वह अपने नियम से चलता है।


निर्वाण उपनिषद 


ओशो 

Friday, April 1, 2022

मैं एक स्कूल-अध्यापक हूं, पुरोहित, राजनेता, और पंड़ित का एक तरह का पनीला—मिश्रण, जिस सबसे आपको चिढ़ है। क्या मेरे लिए भी कोई आशा है? फिर मैं छप्पन वर्ष का हूं—क्या में बाकी की बची जिंदगी भी धैर्य पूर्वक यूं ही बिता दूं। और उम्मीद करू की अगली बार मेरा भाग्य अच्छा होगा?



पुरोहित के लिए, राजनेता के लिए, पंडित के लिए तो कोई आशा नहीं है। अगले जन्म में भी नहीं। पर पुरोहित होना, राजनेता होना, पंडित होना तो तुम छोड़ सकते हो, किसी भी क्षण—और तब आशा है। लेकिन पुरोहित के लिए कोई आशा नहीं, राजनेता के लिए कोई आशा नहीं, पंडित के लिए कोई आशा नहीं। इस बारे में मैं एक दम से सुनिश्चित हूं, अगले जन्म में भी, उससे अगले और अगले जन्म में भी—कभी नहीं। मैंने कभी नहीं सुना कि कोई पुरोहित कभी निर्वाण को पहुंचा हो, कभी नहीं सुना कि किसी राजनेता का कभी परमात्मा से मिलना हुआ हो। कभी नहीं सुना कि कोई पंडित कभी जाग गया हो। ज्ञानी हुआ हो। मनीषी हो गया हो। नहीं यह संभव ही नहीं है।



पंडित ज्ञान में विश्वास करता है, जानने में नहीं। ज्ञान तो बाहर से है, जानना भीतर से है। पंडित जानकारी पर भरोसा करता है। वह जानकारी इकट्ठी करता जाता है। यह एक भारी बोझ बन जाता है। पर भीतर कुछ उगता नहीं। आंतरिक वास्तविकता तो वही की वही बनी रहती है—उतनी ही अज्ञानी जितनी कि पहले थी।




राजनेता शक्ति—सत्ता की तलाश करता है—यह एक अहंकार की यात्रा है। और जो पहुंचते है वे तो विनीत होते है। अहंकारी नहीं। अहंकारी तो कभी नहीं पहुंचते, उनके अहंकार के कारण वे पहुंच ही नहीं सकते। अहंकार तो तुम्हारे और परमात्मा के बीच सबसे बड़ी बाधा है—एक मात्र बाधा। इसलिए राजनेता तो पहुंच ही नहीं सकते।




और पुरोहित...पुरोहित बड़ा चालाक होता है। वह तुम्हारे और परमात्मा के बीच मध्यस्थ बनने की चेष्टा कर रहा होता है। और परमात्मा को जाना उसने जरा भी नहीं होता है। वह सबसे बड़ा धोखेबाज है, सबसे बड़ा कपटी। वह मनुष्य जो सबसे बड़ा पाप कर सकता है, वह वहीं पाप कर रहा है। वह दिखावा कर रहा है कि वह परमात्मा को जानता है। इतना ही नहीं यह भी कि वह परमात्मा को तुम्हें उपलब्ध भी करवा देगा, कि तुम आओ, उसका अनुसरण करो और वह तुम्हें उस परम तक ले चलेगा। और उस परम के बारे में जानता वह कुछ भी नहीं है। वह शायद कर्मकांड़ जानता है, प्रार्थना कैसे की जाए शायद वह यह भी जानता हो, परंतु उस परम को वह नहीं जानता। वह तुम्हें कैसे ले जा सकता है? वह स्वयं अंधा है और जब कोई अंधा अंधे को राह दिखलता है, दोनों कुएं में गिरजाते है।




पुरोहित के लिए तो कोई आशा नहीं, राजनेता के लिए तो कोई आशा नहीं। पंडित के लिए तो कोई भी आशा नहीं है। पर आनंद तेजस, तुम्हारे लिए आशा है, प्रश्न आनंद तेजस का है—तुम्हारे लिए आशा है, हर आशा है।



और यह आयु का प्रश्न नहीं है। तुम छप्पन वर्ष के हो, या छिहत्तर के, या एक सौ छ: के—उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। यह आयु का प्रश्न नहीं है। क्योंकि यह समय का प्रश्न नहीं है। शाश्वतता में प्रवेश करने के लिए कोई क्षण इतना ही उपयुक्त है जितना कि कोई दूसरा क्षण—क्योंकि कोई भी व्यक्ति प्रवेश तो यहां—अभी में ही करता है। इसमें फिर क्या अंतर पड़ता है कि तुम कितने वर्ष के हो? छप्पन के या सोलह के—सोलह वर्ष बाले को भी यहां अभी में प्रवेश करना है, और छप्पन वर्ष वाले को भी अभी में प्रवेश करना है। और न तो तुम्हारे सोलह वर्ष सहायक हैं, और न ही छप्पन वर्ष सहायक है। दोनों के लिए अगल-अलग समस्याएं हैं। जो कि मैं जानता हूं। जब एक सोलह वर्षीय नवयुवक ध्यान में या परमात्मा में प्रवेश करना चाहता है, उसकी समस्या उस व्यक्ति से भिन्न है, जो छप्पन वर्ष का है। क्या है अंतर? परंतु यदि तुम उसे मापो, अंतत: अंतर संख्यात्मक है, गुणात्मक नहीं।



सोलह-वर्षीय व्यक्ति के पास केवल सोलह वर्ष का अतीत है, इस तरह से तो वह उस व्यक्ति से बेहतर अवस्था में है, जो छप्पन वर्ष का है। उस व्यक्ति के पास छप्पन वर्ष का अतीत है। छोड़ने के लिए उसके पास भारी बोझ है। बहुत सी आसक्तियां है—एक छप्पन वर्ष के जीवन के बहुत से अनुभव है, बहुत सारा ज्ञान है। सोलह वर्ष वाले के पास छोड़ने के लिए कुछ अधिक नहीं है। उसके पास छोटा सा भार है, जरा सा सामान—एक छोटा सा सूटकेस एक छोटे से लड़के का सूटकेस। छप्पन वर्ष वाले के पास बहुत सा सामान है। इस तरह से तो छोटे वाला एक बेहतर स्थिति में है।


लेकिन एक दूसरी बात भी है: बड़ी आयु वाले के पास अब भविष्य नहीं बचा है। छप्पन वर्ष वाले के पास, यदि वह पृथ्वी पर सत्तर साल तक जीने वाला है, केवल चौदह वर्ष बचे है। मात्र चौदह वर्ष...उसके पास न के बराबर भविष्य बचा है। न ही अधिक कल्पना, न अधिक सपने। सोलह वर्ष वाले के पास लम्बा जीवन है, उसके लिए लम्बा भविष्य है, बहुत सी कल्पनाए उसका इंतजार कर रही है। कितने सपने उसकी राह में इंतजार कर रहे है। अनंत कल्पनाएं खड़ा उसकी राह तक रही है।



नवयुवक के लिए अतीत छोटा है पर भविष्य बहुत बड़ा; वृद्ध के लिए अतीत बड़ा है, भविष्य छोटा है—कुल मिलाकर बात वही है। यह सत्तर वर्ष की ही बात है; दोनों को ही सत्तर वर्ष ही छोड़ने होते है। नवयुवक के लिए, सोलह वर्ष अतीत में, बाकी वर्ष भविष्य में। भविष्य भी उतना ही छोडा जाना है जितना कि अतीत। इसलिए अंत में, अंतिम हिसाब में, कुछ अंतर नहीं पड़ता।



तुम्हारे लिए हर आशा है, आनंद तेजस। और चूंकि तुमने प्रश्न पूछा है, काम शुरू हो ही चुका है। तुम अपने पुरोहित, राजनेता, पंडित के प्रति सजग हो गए हो—यह एक अच्छी बात है। किसी रोग के विषय में सजग हो जाना, यह जान लेना कि यह क्या है, आधा इलाज हो जाता है।



और तुम संन्यासी हो गए हो, तुमने पहले से ही अज्ञात में एक कदम उठा लिया है। यदि तुम मेरे साथ होने जा रहे हो, तुम्हें अपने पुरोहित से, अपने राजनेता से अपने पंडित से अलविदा कहना होगा। परंतु मुझे विश्वास है कि तुम यह काम कर सकते हो, वर्ना तुमने यह प्रश्न पूछा ही नहीं होता। तुमने यह महसूस किया है कि यह अर्थहीन है। वह सब जो अब तक तुम करते आए हो, वह सब अर्थहीन है—यह तुमने अनुभव किया है। यह भाव बड़ा कीमती है।



इसलिए मैं यह नहीं कहूंगा कि बस धैर्य रखो और अगले जन्म की प्रतीक्षा करो, न। मैं कभी भी स्थगन के पक्ष में नहीं हूं। सब स्थगन खतरनाक होते है, और बड़ी चालबाजी होती है उनमें। यदि तुम कहते हो, ‘इस जन्म में तो मैं स्थगित कर दूंगा अब कुछ नहीं किया जा सकता है! तुम बस दिखाव कर रहे हो। और यह बचने की एक तरकीब है: ‘अब क्या किया जा सकता है? मैं इतना वृद्ध हो गया हूं।’



मृत्यु के समय पर भी, अंतिम क्षण में भी, परिवर्तन घट सकता है। उस समय भी जब कि व्यक्ति मर रहा हो, एक क्षण के लिए वह अपनी आँख खोल सकता है...और परिवर्तन घट सकता है। और इससे पहले कि मौत आए, वह अपने सारे अतीत को छोड़ सकता है। और वह पूरी तरह से ताजा हो कर मर सकता है। तब वह एक नए ही ढंग से मर रहा होता है। वह एक संन्यासी की तरह से मर रहा है। वह गहन ध्यान की अवस्था में मर रहा है। और गहन ध्यान में मरना-मरना नहीं होता। क्योंकि वह उस समय पूरी जागरूकता के साथ मर रहा है, तब कहां मृत्यु है। मृत्यु तो एक बेहोशी का नाम है।


तंत्रा-विज्ञान

ओशो 

Thursday, March 31, 2022

परमात्मा कहां हैं?





लोग मेरे पास आते हैं, और वह कहते हैं: ‘हम परमात्मा को जानना चाहते है—परमात्मा कहां हैं?’ अब यह प्रश्न ही अर्थ हीन है? वह कहां नहीं है? तुम पूछते हो कि वह कहां है, तुम्हें बिलकुल ही अंधा होना चाहिए। क्या तुम उसे देख नहीं सकते हो? केवल वही तो है, वृक्षों में, पक्षीयों में, पशुओं में, पहाड़ों में, जल में, नब में, सब जगह वहीं तो है। एक स्त्री में एक पुरुष में, पिता में माता में, बेटे में कहां नहीं हैं। उसी ने तो इतने सारे रुप ले लिए है। हर तरफ वही तो है। वह हर जगह से तुम्हें, पुकार रहा है, और तुम सुनते ही नहीं हो। तुमने अपनी आंखें हर तरफ से बंद कर ली है। तुमने अपनी आंखों पर पट्टियां बाँध ली है। तुम बस किसी और देखते ही नहीं हो।



तुम एक बहुत ही संकरे ढंग से, बड़े ही केंद्रीभूत तरीके से जी रहे हो। यदि तुम धन की और देख रहे होते हो, तुम बस धन की तरफ देखते हो; फिर तुम किसी और तरफ नहीं देखते हो। यदि तुम शक्ति की तलाश में होते हो, तुम केवल शक्ति की और ही देखते हो, तुम किसी और तरफ नहीं देखते। और स्मरण रखना : धन में परमात्मा नहीं है—क्योंकि धन तो मनुष्य निर्मित है, और परमात्मा तो मनुष्य निर्मित हो ही नहीं सकता। जब मैं कहता हूं कि परमात्मा हर जगह है, स्मरण रखना कि उन चीजों को, जिन्हें मनुष्य ने निर्मित किया है, इसमें शामिल नहीं करना है। परमात्मा मनुष्य-निर्मित नहीं हो सकता। परमात्मा धन में नहीं है। धन तो मनुष्य का एक बड़ी चालाकी भरा आविष्कार है। और ईश्वर शक्ति में भी नहीं है, वह भी मनुष्य का एक पागलपन है। किसी पर अधिपत्य जमाने का विचार ही विक्षिप्त है। यह विचार ही कि ‘मैं सत्ता में रहूं और दूसरे सत्ता-विहीन रहे,’ एक पागल आदमी का विचार है, एक विनष्टकारी विचार है।



परमात्मा राजनीति में नहीं है और परमात्मा धन में भी नहीं है। न ही परमात्मा महत्वकांक्षा में ही है। लेकिन परमात्मा हर उस चीज में है, जहां मनुष्य ने उसे नष्ट नहीं किया। जहां मनुष्य ने कोई अपनी ही रचना नहीं कि है। आधुनिक जगत में यह सर्वाधिक कठिन बातों में से एक है। क्योंकि चारों तरफ से तुम इतनी मनुष्य-निर्मित चीजों से धिरे हुए हो। क्या तुम बस इस तथ्य को देख नहीं पाते?



जब तुम एक वृक्ष के समीप बैठे होते हो, परमात्मा को महसूस करना आसान है। जब तुम कोलतार की बनी सड़क पर बैठे होते हो, तुम उस कोलतार की सड़क पर परमात्मा को वहां न पाओगे। यह बहुत सख्त है। तब तुम किसी आधुनिक शहर में होते हो, चारों और बस सीमेंट और कंक्रीट की इमारतें होती हैं, इस कंक्रीट और सीमेंट के जंगल में तुम परमात्मा को नहीं खोज सकते। तुम इसे नहीं महसूस कर सकते। क्योंकि मनुष्य निर्मित चीजें विकसित नहीं होती, यही तो सारी समस्या है। मनुष्य निर्मित चीजें विकसित नहीं होती। वे प्राय मृत है। उनमें कुछ जीवन नहीं होता। ईश्वर निर्मित चीजें विकसित होती है, पहाड़ तक बढ़ते है। हिमालय अभी भी बढ़ रहा है। ऊंचे और ऊंचे होता जा रहा है। एक वृक्ष उगता है, एक बच्चा विकसित होता है।



मनुष्य-निर्मित चीजें बढ़ती नहीं, महानतम चीजे भी। एक पिकासो का चित्र भी कभी बढ़ेगा नहीं। तब सीमेंट, कंक्रिट के जंगल तो क्या बढ़ेगें? बीथो वन का संगीत तक कभी विकसित नहीं होगा, तब प्रोधौगिकी का, मनुष्य-निर्मित यंत्रों का तो कहना ही क्या?



देखो! जहां कहीं भी तुम वृद्धि देखो, वहां ईश्वर है—क्योंकि केवल ईश्वर ही विकसित होता है, कुछ और नहीं। हर चीज में बस ईश्वर ही बढ़ता है। जब वृक्ष में कोई पत्ता उग रहा होता तो वह ईश्वर ही है। जब कोई पक्षी गीत गा रहा होता है, तब ईश्वर ही गा रहा है। जब कोई पक्षी उड़ान भर रहा होता है, तब परमात्मा उड़ान भर रहा होता है। जब एक छोटा बच्चा खिलखिलाकर हंस रहा होता है तब परमात्मा ही खिलखिला रहा होता है। जब तुम किसी स्त्री या पुरूष की आंखों से आंसुओं को बहते देखते हो, यह ईश्वर ही रो रहा होता है।



जहां कहीं भी तुम जीवंतता पाओं, हां; ईश्वर वहीं है। ध्यान पूर्वक सुनो। समीप आओ। ध्यान पूर्वक महसूस करो। सावधान हो जाओ। तुम पवित्र भूमि पर हो।



तंत्रा-विज्ञान- (सरहा के गीत)

 
ओशो 


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