समझने की बात ही नहीं है
यह। जब सदगुरु की आंख तुम्हारी आंख में पड़ जाती है तो बात हो जाती है। यह प्रेम
जैसी बात है, समझ जैसी बात नहीं है।
तुम कैसे समझते हो कि कोई स्त्री तुम्हारे प्रेम में पड़ गयी? तुम कैसे समझते हो कोई
पुरुष तुम्हारे प्रेम में पड़ गया? कैसे समझते हो? समझने का वहां कुछ भी नहीं है। जब गुरु प्रेम से तुम्हारी आंख में झांकता
है तो तुम्हारे हृदय में सुगबुगाहट पैदा हो जाती है। वह समझ की बात ही नहीं है।
मस्तिष्क में नहीं घटती घटना; घटना हृदय में घटती है। जहां
समझ इत्यादि की बातें चल रही हैं, वहां नहीं घटती; तर्क के तल पर नहीं घटती, प्रेम के तल पर घटती है।
शिष्य और गुरु के बीच जो नाता है वह हृदय और हृदय का है--दो
आत्माओं का है। यह बात जब घटती है तो पहचान में आ ही जाती है; इससे बचने का कोई उपाय नहीं
है।
अगर तुम मेरी बात समझो तो मैं ऐसा कहूंगाः जब गुरु तुम्हें चुनेगा
तो तुम कैसे बचोगे समझने से? असंभव है बचना !वे आंखें तुमसे कह जाएंगी। वह भाव तुमसे कह जाएगा। गुरु की
उपस्थिति तुमसे कह जाएगी कि तुम अंगीकार हो गए हो; किसी ने
तुम्हें चाहा है और किसी ने बड़ी विराट ऊंचाई से चाहा है। उसकी चाहत में ही
तुम्हारी आंखें शिखरों की तरफ उठने लगेंगी। किसी ने तुम्हें पुकारा है और अनंत की
दूरी से पुकारा है और उसकी पुकार में ही तुम्हारे भीतर हजार फूल खिलने लगेंगे।
मगर यह बात समझ की नहीं है, फिर भी दोहरा दूं। यह घटना घटेगी भाव के तल पर,
समझ के तल पर नहीं। मस्तिष्क का इसमें कुछ लेना-देना नहीं है। और
अगर तुमने बहुत जिद की मस्तिष्क से समझने की, तो शायद तुम
चूक ही जाओ। गुरु चुन भी लेता है बहुत बार और फिर भी शिष्य चूक सकता है, अगर वह अपनी खोपड़ी ही लड़ाता रहा; अगर उसने अपने हृदय
की न सुनी, तो चूक भी हो जाती है। ऐसा जरूरी नहीं है कि गुरु
चुने और तुम चुन ही लिए जाओ। दुर्भाग्य के बहुत द्वार हैं; सौभाग्य
का एक द्वार है। पहुंचने के बहुत द्वार नहीं हैं; भटक जाने
के बहुत द्वार हैं। पहुंचने का एक मार्ग है; भटक जाने के
हजार मार्ग हैं। भूल-चूक होना बहुत संभव है। एक तो गुरु के पास पहुंचना करीब-करीब
असंभव-सा मालूम होता है। पहुंच भी जाओ तो उन आंखों की भाषा को समझ पाओगे? समझने से मेरा मतलब : हृदय को आंदोलित होने दोगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि
हृदय को बंद रखो, हृदय
को दूर रखो और बुद्धि को बीच में ले जाओ। और बुद्धि से सोचो तो चूक जाओगे। समझने
की कोशिश की तो बिना समझे लौट जाओगे। अगर समझने की फिक्र नहीं की, यही श्रद्धा का अर्थ है।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
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