मन की चाल समझ लें,
तो सब समझ लिया। मन को पहचान लिया, तो कुछ और
पहचानने को बचता नहीं। मन की चाल समझते ही चेतना अपने में लीन हो जाती है। जब तक
नहीं समझा है, तभी तक मन का अनुसरण चलता है। मन के पीछे चलता
है आदमी यही मानकर कि मन गुरु है—जो कहता है, ठीक कहता है; जो बताता है, ठीक
बताता है।
एक बार अपने मन पर संदेह आ जाए, तो जीवन में क्रांति की शुरुआत हो जाती है। और मजा यही है कि मन सभी पर संदेह करता है। और तुम कभी मन पर संदेह नहीं करते। मन पर तुम्हारी श्रद्धा अपूर्व है; उसका कोई अंत नहीं। और मन रोज तुम्हें गङ्ढे में डाले, तो भी श्रद्धा नहीं टूटती।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, लोगों की श्रद्धा उठ गई है।
मैं उनसे कहता हूं कि लोगों की जैसी श्रद्धा मन पर है, उसे
देखकर ऐसा नहीं लगता कि लोगों की श्रद्धा उठ गई है। कितना ही भटकाए मन, कितना ही सताए मन, कितना ही भरमाए मन—श्रद्धा नहीं टूटती। श्रद्धा तो भरपूर है—गलत दिशा
में है। आज तक मुझे कोई अश्रद्धालु आदमी नहीं मिला। श्रद्धा गलत दिशा में हो सकती
है; जिस पर नहीं आनी चाहिए, उस पर हो
सकती है—लेकिन अश्रद्धालु कोई भी नहीं है।
और दो ही श्रद्धाएं हैं;
या तो मन की श्रद्धा है और या आत्मा की श्रद्धा है। या तो तुम अपने
पर भरोसा करते हो—अपने का अर्थ है, जहां
मन की कोई भनक भी नहीं, जहां एक विचार भी नहीं तिरता,
जहां शुद्ध चेतना है—या तो उस शुद्ध चेतना का
तुम्हारा भरोसा है। अगर उसका भरोसा है, तो तुम जीवन में कहीं
भी गङ्ढे न पाओगे; तुम्हारा कोई पैर गलत न पड़ेगा। और या फिर
आदमी भरोसा करता है मन पर। तब तुम गङ्ढे ही गङ्ढे पाओगे; तब
तुम जीवन में जहां भी जाओगे, भटकोगे ही—क्योंकि मन की चाल ही ऐसी है।
मन की चाल को समझ लें।
एक, कि मन तुम्हें देखने नहीं देता। मन तुम्हें अंधा रखता है। मन तुम्हारी
आंखों को धुंधला रखता है, धुएं से भरा रखता है। वह धुंआ ही
विचार है। इतनी तीव्रता से मन विचारों को चलाता है कि तुम्हें जगह भी नहीं मिलती
कि तुम देख पाओ, कि तुम्हारे बाहर क्या हो रहा है, कि तुम्हारे जीवन में क्या घट रहा है। मन तुम्हें विचारों में उलझाए रखता
है। जैसे छोटे बच्चे को हम खिलौने दे देते हैं—फिर उसकी मां
मर भी रही हो, तो भी वह अपने खिलौने से खेलता रहता है,
खिलौनों में उलझा रहता है।
मन तुम्हें विचार देता है;
विचार खिलौने हैं। खिलौनों में भी थोड़ा—बहुत
सत्य है, विचारों में उतना भी नहीं। लेकिन एक खिलौने से तुम
चुक भी नहीं पाते कि मन तत्क्षण दूसरा निर्मित कर देता है। इसके पहले कि तुम जागकर
देख पाओ, मन तुम्हें नया खिलौना दे देता है। पुराने से तुम
ऊब जाते हो, तो मन नई उलझनें सुझा देता है। एक उपद्रव बंद भी
नहीं हो पाया कि मन दस उपद्रवों में रस जगा देता है। और यह इतनी तीव्रता से होता
है कि दोनों घटनाओं के बीच खिड़की बनाने लायक भी जगह नहीं मिलती, जहां से तुम देख लो कि जिंदगी में हो क्या रहा है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन जब बहुत बूढ़ा हो गया, नब्बे वर्ष का हुआ, तब उसका बड़ा भरा—पूरा परिवार था। उसका बड़ा बेटा ही
सत्तर वर्ष पार कर रहा था। उसके बेटों के बेटे पचास पार रहे थे। उसके बेटों के
बेटे विवाहित हो गए थे। उनके भी बच्चे हो गए थे। अचानक एक दिन बूढ़े नसरुद्दीन ने
कहा कि मैंने फिर से शादी करने का तय कर लिया है। पत्नी मर चुकी थी। पहले तो लड़कों
ने मजाक समझी; हंसे कि "अब इस बुढ़ापे में...। हम भी
बूढ़े हो गए हैं। अब शादी! पिताजी मजाक कर रहे होंगे।' लेकिन नसरुद्दीन
ने जब बार—बार दुहराया, तो उन्होंने
गंभीरता से बात ली। और जब नसरुद्दीन ने एक दिन सुबह आकर घोषणा ही कर दी कि
"मैंने लड़की भी तय कर ली', तब जरा सोचना पड़ा। सारा
परिवार इकट्ठा हुआ। उन्होंने विचार किया कि इससे बड़ी फजीहत होगी, लोग हंसेंगे। ऐसे ही नसरुद्दीन की वजह से लोग जिंदगी भर हंसते रहे;
और अब यह बुढ़ापे में आखिरी उपद्रव खड़ा कर रहे हैं। क्या कहेंगे लोग?
बड़े लड़के को सबने कहा कि तुम्हीं जाकर कहो। बड़े लड़के ने जो सुना तो
चकित हो गया। सुना कि सामने ही एक रंगरेज की लड़की से तय किया है नसरुद्दीन ने।
लड़की की उम्र मुश्किल से सोलह साल है। उसने कहा, "यह
नहीं हो सकता। पापा, यह बंद करो। यह सोच ही छोड़ दो। यह भी तो
सोचो, उस लड़की की उम्र सिर्फ सोलह साल है।' नसरुद्दीन ने कहा, "अरे पागल! सोलह साल ही तो
शादी की उम्र है। और जब फिर मैंने तेरी मां से शादी की थी, तब
उसकी भी उम्र सोलह साल ही थी। इसमें बुरा क्या हुआ जा रहा है?'
मन तर्क दे रहा है। मन पीछे लौटकर नहीं देखता। मन अपनी तरफ नहीं
देखता, मन सिर्फ
दूसरे की तरफ देखता है।
लड़के बहुत परेशान हुए और बड़े बूढ़ों से सलाह ली। डॉक्टर से भी
पूछा। डॉक्टर ने कहा, "यह बहुत खतरनाक है। इस उम्र में शादी जीवन के लिए खतरा हो सकती है।'
फिर बेटे को समझा—बुझाकर भेजा। बेटे ने कहा कि "हम सब सलाह—मशविरा
किए हैं। डॉक्टर कहता है, जीवन के लिए खतरा हो सकता है। जीवन
को दांव पर मत लगाओ।' नसरुद्दीन ने कहा, "अरे पागल, यह लड़की मर भी गई तो कोई लड़कियों की कमी
है? दूसरी लड़की खोज लेंगे।'
मन कभी पीछे की तरफ देखता नहीं—अपनी तरफ नहीं देखता है। मन सदा दूसरे में खोजता
है सुख, दूसरे पर थोपता है दुख; दूसरे
से पाना चाहता है शांति, दूसरे से ही पाता है अशांति। सदा ही
नजर दूसरे पर लगी है, जबकि नजर अपने पर लगी होनी चाहिए। तो
मन के जगत का उपद्रव, मूल आधार दूसरे पर दृष्टि है।
सुनो भई साधो
ओशो
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