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Tuesday, September 18, 2018

अगर बड़ा नेता होना हो, तो युद्ध बहुत जरूरी है....


 शांति के समय में बड़े नेता पैदा नहीं होते। बड़े नेता के पैदा होने के लिए संघर्ष जरूरी है, युद्ध जरूरी है, हिंसा जरूरी है, हत्या जरूरी है। जितनी हत्या होगी, जितनी हिंसा होगी, उतना बड़ा नेता प्रकट होगा। शांति के समय में बड़ा नेता प्रकट नहीं होता। अगर शांति स्थाई चल जाए, तो नेता एकदम फेड आउट हो जाएंगे, विदा हो जाएंगे, उनको कोई पूछेगा ही नहीं। उनकी जरूरत ही तभी है।

रास्ते पर, चैराहे पर एक पुलिसवाला खड़ा है। वह पुलिसवाला इसलिए खड़ा है कि कहीं चोर है। अदालत में एक मजिस्ट्रेट बैठा है, वह इसलिए बैठा है कि कहीं चोर है। अगर चोर विदा हो जाएं, तो चोरों के विदा होते ही अचानक चैरस्ते का पुलिसवाला भी विदा हो जायेगा। चोरों के विदा होते ही मजिस्ट्रेट विदा हो जायेगा। इसलिए मजिस्ट्रेट ऊपर से चोरों को सजा दे रहा है, भीतर से भगवान से प्रार्थना करता है कि रोज आते रहना। स्वाभविक है। उसका धंधा तो चोरों पर है। उसकी जिंदगी चोरों पर है।

राजनीतिज्ञ ऊपर से कहता है कि शांति चाहिए। कबूतर उड़ाता है, शांति के कबूतर! लेकिन भीतर से युद्ध की कामना करता है। युद्ध चाहिए। युद्ध न हो, तो राजनीतिक नेता की कोई जगह नहीं है। युद्ध न हो, तो राजनीति की ही कोई जगह नहीं है। असल में युद्ध से ही राजनीति पैदा होती है। फिर अगर बड़ा युद्ध न चलता हो तो छोटा युद्ध चलाना पड़ता है। अगर मुल्क के बाहर कोई लड़ाई न हो, तो मुल्क के भीतर लड़ाई चलानी पड़ती है। अगर मुल्क के भीतर भी न हो, तो एक ही पार्टी को दो हिस्सों में तोड़कर लड़ाई चलानी पड़ती है!

बड़ा नेता लड़ाई में पैदा होता है। छोटे नेता शांति में जीते हैं। छोटे नेता कभी बड़े नहीं हो सकते हैं, अगर लड़ाई चलनी चाहिए। लड़ाई चलनी ही चाहिए किन्हीं भी तालों पर। हजार-हजार तलों पर लड़ाई चलनी चाहिए। लड़ाई नेता को बड़ा करती है। जनता को आतुर करती है, जनता की आंखों को उठाती है, नेता को देखने के लिए। इसलिए नेता निरंतर नई लड़ाई की चेष्टा में संलग्न है।

 
और मजा यह है कि रोज मंच पर खड़े होकर कहता है कि शांति चाहिए, एकदम चाहिए। मनुष्य इकट्ठे हों, सब एक हों। इधर मंच पर यह कहेगा। मंच के पीछे सारे उपाय करेगा, जिनसे मनुष्य एक न हो पाये, जिनसे आदमी कभी इकट्ठा न हो पाये, जिनसे पृथ्वी कभी इकट्ठी न हो पाये। इसकी पीछे कोशिश चलेगी, लेकिन यह हम समझ सकते हैं।


एक डाक्टर है, वह मरीज का इलाज करता है और मरीज की तरफ, सब तरफ से कोशिश करता है कि मरीज ठीक हो जाये। डाक्टर मरीज हो ठीक करने के लिए है। लेकिन पता है कि जब महामारी फैलती है, प्लेग फैलती है, या जब फ्लू फैलता है, तो डाक्टर आपस में कहते हैं कि सीजन चल रह है!डाक्टरों का सीजन तो तभी आता है, ऋतु तभी आती है धंधे की, जब फ्लू फैले, प्लेग फैले, मलेरिया फैले, लोग बड़े पैमाने पर बीमार हों! इधर डाक्टर इलाज कर रहा है मरीज का, उधर प्रार्थना कर रहा है कि बीमारी कैसे बढ़े! और पैसे वाले बीमार का ठीक हो जाना इसलिए बहुत मुश्किल हो जाता है। गरीब बीमार को ज्यादा देर बीमार रखने में डाक्टर का कोई हित नहीं है। पैसे वाले बीमार का ठीक हो जाना मुश्किल हो जाता है। अक्सर तो पैसे वाले बीमार ही बने रहते हैं। क्योंकि जितनी देर पैसे वाला बीमार रहे, उतने ही हित में है डाक्टर के। अब ऊपर से डाक्टर दिखता है बीमारी से लड़ रहा है, और भीतर से वह बीमारी के लिए प्रार्थना कर रहा है।


इसलिए ऊपर मंचों पर जो चेहरे दिखाई पड़ते हैं, वे मंच के पीछे वही नहीं हैं, यह ध्यान में रखना जरूरी है। मंच पर चेहरे बिल्कुल बनावटी हैं। मंच पर वे कुछ और कहते हैं, और सौ में निन्यानबे मौके यह हैं कि मंच पर वे जो भी कहते हैं, ठीक उससे उल्टा मंच की पीछे करते होंगे। जो भी शांति की बातें चलती हैं, उनके पीछे युद्ध का इंतजाम चलता है। इसलिए बड़े आश्चर्य की बात है कि दुनिया के सारे युद्ध शांति के लिए होते हैं! सब युद्ध शांति के लिए होते हैं। वे कहते हैं, हम इसलिए लड़ रहे हैं, ताकि दुनियां में शांति हो सके! लड़ना जरूरी है; शांति की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी है। हिटलर भी शांति की रक्षा के लिए लड़ते हैं और चर्चिल भी। रूजवेल्ट भी और स्टैलिन भी शांति के लिए लड़ते हैं। हिंदुस्तान भी और पाकिस्तान भी, सभी शांति के लिए लड़ते हैं।


लेकिन राजनीतिज्ञ की जिंदगी अशांति पर निर्भर है। इसलिए राजनीतिज्ञ शांति चाह नहीं सकता। और अगर दुनिया को शांति चाहनी हो, तो राजनीतिज्ञ को विदा देना जरूरी होगा। वह हट जाना चाहिए, उसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज उसी की जगह है। वही सब कुछ है। उसे हम सारी ताकत दे रहे हैं। और वह हमारी अशांति का बुनियादी आधार है। हम उसको ही भोजन खिला रहे हैं। हम उसका ही सम्मान कर रहे हैं और फूलमालाएं पहना रहे हैं। क्योंकि वह शांति की बातें करता है। लेकिन शांति की बातों का शांति से कोई भी संबध नहीं है।

पंथ प्रेम को बड़ो कठिन 

ओशो

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