भय से मुक्त मैं तुम्हें नहीं कर सकता, तुम ही कर सकते हो। भय
वास्तविक है। तुम चाहोगे कि मैं तुमसे कह दूं कि नहीं जी, कोई
चिंता की बात नहीं है, चौरासी कोटि योनियां वगैरह नहीं
होतीं--ताकि तुम निर्भार हो जाओ और लग जाओ अपनी वासनाओं की दौड़ में फिर।
नहीं, यह मैं तुमसे नहीं कह सकता। ऐसा ही है। सत्य यही है कि यह जो वर्तुल है,
यह घूम रहा है। तुमने अगर मनुष्य होने का लाभ न उठाया तो तुम मनुष्य
होने का हक खो देते हो। यह सीधा-सा गणित है। आखिर मनुष्य होने का हक तुम्हें मिला
है--किसी कारण से।
बुद्ध से किसी ने पूछा--एक युवक आया, संन्यस्त होना चाहता
था--उसने पूछा कि आपको देखकर, राह पर आपको चलते देखकर,
आपकी यह प्रसादपूर्ण कांति, आपका यह अपूर्व
अपार्थिव सौंदर्य--मेरे मन में भी बड़ी गहन आकांक्षा उठी है। मगर मैंने कभी इसके
पहले संन्यास का सोचा भी नहीं था। और मैं कभी धर्म इत्यादि में उत्सुक भी नहीं
रहा। पंडित-पुरोहितों से मैं ज़रा दूर ही दूर रहा। मेरे पिता और मेरी भी मुझे अगर
कभी ले जाना चाहते हैं तो मैं बच जाता हूं हजार बहाने करके। पंडितों की बातें सुन
कर मुझे सिर्फ सिरदर्द हो जाता है और ऊब आती है। मगर आपको देखकर मैं बड़ा आंदोलित
हो गया हूं और एक भाव उठता है भीतर कि मैं दीक्षित हो जाऊं। मगर यह मेरी समझ में
नहीं आता कि अनायास! पीछे कोई सिलसिला नहीं है, कोई श्रृंखला
नहीं है। अनायास! इतनी बड़ी बात होने की मेरे मन में कैसे कामना आ गई!
बुद्ध ने आंख बंद की और उसे कहा : "युवक, तुझे पता नहीं, तू पिछले जन्म में हाथी था। जंगल में आग लग गई थी और तू भागा जा रहा था।
सारे पशु-पक्षी भागे जा रहे थे। थका-मांदा तू एक वृक्ष के नीचे थोड़ी देर विश्राम
करने को खड़ा हो गया। तेरे पैर थक गए थे और एक पैर के नीचे कांटा चुभ रहा था,
तो तूने वह पैर ऊपर उठाया। जिस बीच तूने पैर ऊपर उठाया उसी बीच एक
खरगोश तेरे उस पैर के नीचे आकर बैठ गया। तूने नीचे नहीं देखा। वह घड़ी ऐसी थी कि
सारा जंगल आग से लगा था। वह मौका ऐसा था कि तुझे एक बात दिखाई पड़ी : हम सभी जीवन
के लिए भागे जा रहे हैं: यह खरगोश भी बेचारा भागा जा रहा है। मैं थक गया, मैं बड़ा हाथी हूं, तो यह भी थक गया है। और यह किस
निश्चिंतता से मेरे पैर के नीचे बैठा है जो मैंने उठाया हुआ है; अब मैं रखूंगा पैर नीचे तो यह मर जाएगा।
"वह घड़ी ऐसी थी कि तू अपने जीवन के लिए इतना उत्सुक था, तेरी जीवेष्णा इतनी प्रबल थी कि बच जाऊं, कि तुझे यह
लगा कि जैसे मैं बचना चाहता हूं वैसे सभी बचना चाहते हैं। तुझे बड़ा बोध हुआ। और तू
पैर वैसा ही उठाए खड़ा रहा और वह खरगोश नीचे निश्चिंत बैठा रहा। जब खरगोश हट गया तब
तूने पैर नीचे रखा। लेकिन पैर अकड़ गया था। तू नीचे न रख पाया, गिर पड़ा। खरगोश तो बच कर निकल गया लेकिन तू उस जंगल में लगी आग में जल कर
मर गया। लेकिन मरते वक्त तेरे मन में बड़ी तृप्ति थी, एक बड़ी
शांति थी, एक अपूर्व उल्लास था, एक
आनंद का भाव था कि मैंने खरगोश को नहीं मारा; चलो मैं मर गया,
ठीक। उसका फल है कि तू मनुष्य हुआ।'
बुद्ध ने कहा : तूने वह जो करुणा दिखाई, उस करुणा के कारण तू मनुष्य
हुआ। उसी करुणा के कारण तेरे भीतर यह बीज पड़ गया।
बुद्ध कहते थे : जिसके जीवन में करुणा हो उसके जीवन में प्रज्ञा
आती है, बोध आता
है। और जिसके जीवन में प्रज्ञा हो उसके जीवन में करुणा आती है। ये एक ही सिक्के के
दो पहलू हैं। तो जो व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध होकर प्रज्ञा को उपलब्ध होता है उसके
जीवन में महाकरुणा आ जाती है। और जिसके जीवन में महाकरुणा आ जाती है। और जिसके
जीवन में करुणा की थोड़ी-सी भी गंध हो, वह आज नहीं कल समाधि
में उत्सुक हो ही जाएगा। उस करुणा के कारण आज राह पर चलते मुझे देखकर तेरे मन में
यह भाव उठा। यह अकारण नहीं है, इसके पीछे श्रृंखला है।
मैं तुमसे कहता हूं कि तुम मनुष्य हो, यह अकारण नहीं है। कुछ किया
होगा। कुछ हुआ होगा। अनंत अनंतयात्रा-पथ पर तुमने अर्जन किया है मनुष्यत्व। यह
अर्जित है। लेकिन यह अवसर अवसर ही है। यह तुम्हारी कोई शाश्वत संपदा नहीं है। तुम
इसके मालिक नहीं हो गए हो। यह क्षणभंगुर है। यह आज है और कल चला जाएगा। जैसे
अर्जित किया है वैसे ही गंवा भी सकते हो।
अगर एक हाथी करुणा के कारण मनुष्य हो सकता है, तो एक मनुष्य कठोरता के
कारण हाथी हो सकता है। यह तो सीधा गणित है। अगर एक हाथी करुणा के कारण मनुष्य होने
की क्षमता, पात्रता पैदा कर लेता है, तो
तुम कठोरता के कारण, हिंसा के कारण, क्रूरता
के कारण पशु होने की क्षमता में उतर ही जाओगे। जाओगे कहां और? वर्तुल घूम जाएगा। चाक घूम गया। आरा नीचे जाने लगा। फिर लंबी यात्रा है,
क्योंकि आरा तभी वापिस लौटेगा जब पूरा चाक घूम जाएगा।
यह जो चौरासी कोटियों की बात है, यह एकदम अवैज्ञानिक नहीं है। और यह चौरासी करोड़
योनियों की जो बात है, यह केवल कोई पौराणिक आंकड़ा भी नहीं
है। ऐसा ही है। अब तो वैज्ञानिक धीरे-धीरे धीरे-धीरे खोज करते-करते इस नतीजे पर
पहुंच रहे हैं कि हिंदुओं का आंकड़ा शायद सही सिद्ध होगा। इतनी ही कोटियां हैं। अभी
तक इतनी पूरी नहीं हो पाई हैं; लेकिन रोज खोज हो रही है।
पहले तो ईसाई हंसते थे कि चौरासी करोड़! चौरासी करोड़ योनियां दिखाई कहां पड़ती हैं?
चलो होंगी लाख, दो लाख, पचास
लाख, करोड़ मान लो; मगर चौरासी करोड़ योनियां
दिखाई कहां पड़ती हैं? लेकिन अब संख्या करोड़ों में हो गई है।
क्योंकि बहुत योनियां हैं जो अदृश्य हैं। बहुत-से छोटे कीटाणु हैं, सूक्ष्म कीटाणु हैं जो अदृश्य हैं। अब उनकी भी गणना हो रही है। धीरे-धीरे
करोड़ों पर संख्या पहुंच गई है। और तब तो वैज्ञानिकों को लगता है कि शायद हिंदुओं
का आंकड़ा चौरासी करोड़ सही सिद्ध हो जाए। कम तो नहीं होंगी, ज्यादा
भला हों। इतनी बात अब साफ हो गई है। जितनी नवीनतम शोधें हुई हैं, उनसे बात साफ हो गई है कि प्राणियों के होने के ढंग ज्यादा तो हो सकते हैं,
कम नहीं हो सकते। अभी आंकड़ा पूरा नहीं हुआ है, लेकिन हो जाएगा आंकड़ा पूरा।
यह पूरा वर्तुल है। ये चौरासी करोड़ आरे हैं और इनका पूरा चाक है।
यह चाक पूरा घूमता है। एक बार तुम मनुष्य होने के आरे पर ऊपर आए, शिखर बने . . . मनुष्य शिखर
है। अगर वहां से छलांग लगा ली तो लगा ली। क्योंकि वहां थोड़ा बोध है--बहुत थोड़ा!
मनुष्य होने में ही इतना थोड़ा बोध है कि यहां से भी चूक जाते हो। तो फिर और हाथी,
घोड़े, कुत्ते होने में तो बोध और खो जाएगा।
फिर वहां से तो चूकना निश्चित ही है।
तो मैं तुम्हें भय से मुक्त नहीं कर सकता--तुम्हीं भय से मुक्त
कर सकते हो। मत चूको, भय खत्म हुआ। भय का उपयोग कर लो। इसको भय क्यों समझे हो? इसको सत्य समझो।
अजहुँ चेत गँवार
ओशो
No comments:
Post a Comment